स्कूल तो खुल गया, पर कोई ग्रामवासी अपनी बालिकाओं को भेजने के लिए तैयार नहीं था। अच्छा अब लड़कियाँ भी पढ़ेगी? हमें इन्हें पढ़ा लिखाकर कोई बाबू नहीं बनाना; जितने मुँह उतनी बातें। मुख्याध्यापिका अपने सहयोगी मित्रों के साथ चरखा कातती और बचे समय में महिलाओं-पुरुषों को समझाने का प्रयास करती है, पर समझने की बात तो दूर ग्रामीणों में आक्रोश बढ़ रहा था।
एक दिन सभी गाँव वालों ने आपस में सलाह की कि इसे गाँव बाहर निकाल देंगे। यह हमारे परिवारों को तोड़ने, महिलाओं को भड़काने, लड़कियों को बहकाने आई है। सभी मिलकर स्कूल तक जा पहुँचे, देखा वह मित्रों-सहयोगियों के साथ चरखा कात रही हैं।
एक साथ सारे गाँववासियों को देखकर उसे भी कुछ आश्चर्य हुआ। जो बुलाने पर नहीं आते, सुनाने पर नहीं सुनते, बेवजह फटकारते-दुत्कारते है आज अपने आप आए है। उसने शालीनता सके कहा बैठिए। जवाब में एक साथ कई स्वर उभरे हम बैठने नहीं तुम सब को निकालने आए है।
"ठीक है निकाल भी देना। गाँव आपका है। पर क्या मेरा अपराध बताने की कृपा करेंगे।"
अपराध! गाँव के मुखिया ने दाँत पीसते हुए कहा तुम हमारे परिवारों को बिगाड़ने आई हो। बिगाड़ने नहीं सँवारने। शिक्षा जिस किसी के पास जाती उसे सँवारती-सुसंस्कारित होगी, फिर जब बालिकाएँ सुसंस्कारित तो उनका तो और व्यापक प्रभाव होगा। आज की बालिकाएँ कल गृहसंचालन करने वाली बनेंगी। माँ की भूमिका निभाएँगी। यदि वे सुसंस्कारित-सुशिक्षित हो सकीं, तो निश्चित ही संतानों को, परिवार को अपने अनुरूप गढ़ पाएँगी।
बढ़-बढ़कर बातें न बनाओ। हम लोग अपनी लड़कियों को पढ़ा-लिखाकर मैम नहीं बनाना चाहते। तो क्या विदेशी महिलाएँ-बालिकाएँ ही पढ़ती है क्या? अगर आप समझते हैं कि प्राचीन भारत में नारियाँ अपढ़-गँवार होती थीं, यह आपकी भूल है। याज्ञवल्क्य के साथ शास्त्रार्थ करने वाली गार्गी गँवार कैसे होगी? बिना पढ़े घोषा, अपाला शास्त्र मर्मज्ञ ब्रह्मवादिनी कैसे बनी? अपढ़ कुंती भीम-अर्जुन को कैसे गढ़ती। ये सभी पढ़ी थीं, सुसंस्कृत थीं, तभी स्वयं के साथ समूचे परिवार-समाज की उन्नति में सहायक बन सकीं।
प्रभाव पड़ता देखकर कुछ रुकते हुए उनने फिर समझाना शुरू किया। "विधर्मी वही बनेगा जिसे अपने धर्म का ज्ञान नहीं, उस पर गौरव नहीं; जिन्हें उपनिषदों के उदात्त सत्य ऋषियों के क्रांतिदर्शी जीवन का सौंदर्य मालूम है, वह विधर्मी क्यों बनने लगा? पर यह मालूम तो तभी होगा, जब व्यक्ति शिक्षित हो। अपढ़ होने पर आशंका जरूर रहती है कि कही पैर न डगमगा जाएँ।"
बातें सटीक थीं, समझ में भी आ रहीं थीं। उन सब को लगने लगा कि शंकाएँ निर्मल हैं। मुखिया सहित कुछ ने धीरे से कह—"लगता हैं कि आप ही ठीक है। हम लोगों से जो अपराध हुआ उसे विसार दें।"
"इसमें अपराध की क्या बात? तथ्य मालूम न होने पर आक्रोश स्वाभाविक है। तो फिर आप लोग अपनी बालिकाओं को भेजना शुरू करें।" सभी ने हामी भरी।
स्कूल चलने लगा। बालिकाओं को पाठ्यक्रम का ज्ञान कराने के साथ, सफाई, शिष्टता, सद्व्यवहार, श्रम की स्वावलंबन की अनिवार्यता समझाई जाती। अभिभावक बालिकाओं के व्यवहार और प्रगति को देखकर विभोर थे। शिक्षा और स्वावलंबन का संगम; उन्होंने सपने में भी न सोचा था। स्कूल में दिन-पर-दिन छात्राओं की संख्या बढ़ती जाती। पर मुख्य अध्यापिका को इतने से संतोष न था। जो भी समय बचता उसमें वह घर-घर जाती, प्रौढ़ महिलाओं को गाँधी तिलक सुब्रहमण्यम भारती आदि के लेखों को पढ़कर सुनाती। दोष-दुष्प्रवृत्तियों होने वाली व्यक्तिगत व सामाजिक हानियाँ बताकर छोड़ने का आग्रह करतीं। महिलाएँ ही क्यों पुरुष भी प्रभावित होते।
गाँव वाले उन्हें परम हितैषी साक्षरता की दैवी के नाम से जानने लगे थे। गाँव का होता जा रहा कायाकल्प भला किसे प्रसन्न करता। यह साक्षरता की देवी थी, दुर्गाबाई, देशमुख, गाँधीजी की सहयोगिनी। जिन्होंने अपने ने प्रयत्नों से सिद्ध कर दिया यदि किसी के अंदर सेवा की टीस उभरे तो आज भी ग्रामीण जीवन में सुख-शांति सहकार की वह चमक पैदा हो सकती है कि शहरी भी उस ओर ललक कर दौड़ पड़े।