इस दिव्य अनुदान को व्यर्थ न जाने दें

March 1990

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श्रुति में एक आलंकारिक कथा आती है कि प्रजापति ने समस्त प्राणियों के शरीर बनाए और उनमें से किसी को पसंद करके उनमें निवास करने के लिए देवताओं से कहा। देवताओं ने अन्य सब शरीर अस्वीकृत कर दिए। मात्र मनुष्य शरीर को ही अपने योग्य समझा और उसे स्वीकार किया।

देवता अनेक थे। मनुष्य शरीर एक। सभी उसमें कैसे रहें? इस प्रश्न पर उन लोगों ने समझौता कर लिया और एक-एक अवयव में रहते हुए काम चला लेने का समझौता किया। अग्नि ने वाणी में, प्राणवायु ने नासिक में, नेत्रों में सूर्य-चंद्र ने, हृदय में इंद्र ने. मस्तिष्क में परब्रह्म ने, इसी प्रकार अंग-प्रत्यंगों से लेकर रोम-कूपों तक में समस्त देवता प्रसन्नतापूर्वक निवास करने लगे।

इसी प्रकार एक पौराणिक आलंकारिक वर्णन में देवताओं के निवास के लिए अनेक लोक बनने का प्रसंग आता है— ब्रह्मलोक, शिवलोक, इंद्रलोक, अग्निलोक, यमलोक आदि। इसका तात्पर्य यह हुआ कि चेतना अनेक महत्त्वपूर्ण अवयवों में विभाजित होकर समस्त ब्रह्मांड में समा गई। श्रुति वचनों में वही बात मनुष्य शरीर में उन सबको निवास के रूप में बताई गई है। इस प्रकार उपनिषद् की उस उक्ति का समर्थन होता है कि 'जो ब्रह्मांड में है, वही पिंड है'।

भौतिक विज्ञान ने इस तथ्य को दूसरे ढंग से कहा है। इस सृष्टि को परमाणुमयी माना है और प्रत्येक परमाणु में अत्यंत सामर्थ्य का समावेश माना है। एक अणु के विस्फोट से जो ऊर्जा निकलती है, वह सैकड़ों मील के दायरे को जला या गला सकती है। उसके रचनात्मक प्रयास भी हैं। अणुभट्टियों से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा छुटपुट अगणित बिजली घरों से भी भारी पड़ती है।

जड़ से चेतन का महत्त्व और भी अधिक है। मनुष्य शरीर की संरचना में पंचतत्त्वों की अणुशक्ति का समावेश है। साथ ही जीवाणुओं में भरी हुई चेतना पर श्रुति वाली उक्ति लागू होती है कि उसके विभिन्न अवयवों और जीवाणुओं में चेतना भी भरी पड़ी है। मनुष्य का शरीर जड़ और अंतःकरण सचेतन माना गया है। दोनों ही आपस में घुल-मिलकर रह रहे हैं। इसलिए शरीर न केवल पंचतत्त्वों से निर्मित है; वरन उसके पाँच प्राण भी हैं। इस प्रकार जड़-चेतन के समन्वय से बना हुआ शरीर निखिल ब्रह्मांड में पाई जाने वाली शक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है। छोटे रूप में मानव शरीर एक समूचा ब्रह्मांड ही है और उसके अणुरूप में विशाल विभु की सत्ता विद्यमान है। किंतु वह है सभी प्रसुप्त रूप में। बीज के भीतर एक विशाल वृक्ष की समस्त संभावनाएँ विद्यमान रहती हैं। आँख से न दीख पड़ने वाले शुक्राणु में पीढ़ियों के संस्कार लिए एक समूचा मानव विद्यमान है। रेत के एक कण का क्या मूल्य हो सकता है? पर उसी के परमाणु का जब वैज्ञानिक विधि से विस्फोट किया जाता है, तो उससे उत्पन्न शक्ति का पारावार नहीं रहता। मनुष्य की महानसत्ता का विवेचन इसी रूप में किया जाना चाहिए। यद्यपि भौंड़ और अनगढ़ रूप में वह पिछड़ा, दरिद्र, दुर्बल, भिक्षुक, चोर, रोगी जैसी हेय स्थिति में दिन काटते और जिंदगी की लाश ढोते दिखाई पड़ता है।

जागरण अपने आप में एक सुयोग है। सोता हुआ मनुष्य मृतक तुल्य पड़ा रहता है और उसे लज्जा ढकने वाले वस्त्रों तक को संभालने का ध्यान नहीं रहता। उस स्थिति में उसके लिए कुछ पुरुषार्थ कर सकना भी संभव नहीं होता। यही बात मनुष्य जीवन के संबंध में भी है। वह पेट भरने और प्रजनन के जंजाल की समस्याएँ सुलझाने भर में मुश्किल से ही समर्थ होता है। इतने भर से आए दिन रोना-खीजना  होता रहता है, गुजारा न होने पर चोरी करता, ठगते कुकर्मों में निरत रहता दीखता है। आत्मकल्याण और लोकल्याण के दैवी उत्तरदायित्व का निर्वाह तो उनसे बन ही कहाँ पड़ता है। पड़े तो तब, जब अपनी गरिमा का ज्ञान हो और उसके श्रेष्ठतम सदुपयोग की योजना बने और निभे। इसी को ‘माया’ कहा गया है कि सर्वसमर्थ मनुष्य हर घड़ी मृगतृष्णा से ग्रसित होकर प्यास की रट लगाता हुआ चारों ओर दौड़ता है। कस्तूरी के हिरन जैसी दुर्दशा वह अपने आप बनाता है।

मन में एक इच्छित स्तर की दुनिया बनाकर खड़ी कर देने की शक्ति है। यह सृष्टि विद्वान महामानव, सुखी, संपन्न, प्रतापी, सिद्ध पुरुषों द्वारा कुछ ही प्रयास से अपनी दिशाधारा को उत्कृष्टता की ओर मोड़ देने से बन सकती है। साथ ही उनके लिए यह भी संभव है कि दुर्व्यसनी, कुकर्मी, दरिद्र, दुष्ट आदि पतनोन्मुख दिशाओं की ओर पग बढ़ाएँ तो वैसा ही बन चले। इस संसार में भला-बुरा सभी कुछ है। अपने चुंबकत्व से मनुष्य अभीष्ट स्तर की परिस्थितियाँ, साधन-सामग्रियाँ तथा मंडलियाँ एकत्रित करके और अपना एक निजी सौरमंडल बनाकर चाहे तो उनका मार्गदर्शक बना सकने वाले केंद्रबिंदु की भूमिका निभा सकता है।

जीवन एक चौराहा है, उसमें उत्थान और पतन की दिशा में दोनों ओर रास्ते जाते हैं, उनमें से कोई भी पकड़ा जा सकता है। ऐसा भी हो सकता है कि कोल्हू के बैल की तरह पीसने की चक्की की तरह कुछ उलट-पुलट करते रहने पर भी यथास्थान खड़े रहा जाए। मन अपना है, शरीर की ही तरह। शरीर से इच्छानुसार जो भी चाहें काम ले सकते हैं, वैसे ही मन पर भी अंतःकरण के आदेश को मानने से इनकार नहीं कर सकता।  दो हाथ, दो पैर जिस प्रकार अपने हैं, वही बात शरीर और मन पर भी लागू होती है।

अवरोध एक ही है कि जन्म-जन्मांतरों के जमे हुए कुसंस्कार पशुप्रवृत्तियों की अभ्यस्त राह पर चल पड़ने के लिए खींचते हैं। मानवी गरिमा के अनुरूप कहने वाले तो बहुत मिलते हैं, पर उन्हें कार्यांवित करने वाले दृष्टि पसारने पर भी कहीं दीख नहीं पड़ते हैं। मनुष्य की एक बुरी आदत यह भी है कि वह स्वतंत्र चिंतन का विकास नहीं करता। भेड़ों की तरह भीड़ जिधर भी चलती है, उधर ही चल पड़ता है। तीसरी कमी है, विवेकसम्मत आदर्शवादिता को अपनाने की कमी। दूसरों का सहारा तकने की अपेक्षा एकाकी आत्मविश्वास के सहारे चल सकने की हिचकिचाहट। इन तीन कठिनाइयों से लड़ा जा सके तो उन्हें परास्त कर सकना तनिक भी कठिन नहीं है। प्रश्न महानता अपनाने के निश्चय भर का है। जोखिम तो हर मार्ग में है, किंतु उत्कृष्टता अपनाने में अपेक्षाकृत कम ही कठिनाई है। हिम्मत न हो, तो एक कदम उठाना भी कठिन है। साहस हो तो लंबी और कठिन मंजिल भी पार हो सकती है।

परमात्मा का सबसे बहुमूल्य उपहार मनुष्य जन्म प्राप्त करने के सौभाग्य के उपरांत दूसरा सौभाग्य एक ही है— उसका सदुपयोग। यह कार्य मनुष्य की बुद्धिमता पर छोड़ा गया है। वह प्रगति, अवगति या स्थिरता में से कोई मार्ग चुन ले और उस चुनाव एवं प्रयास के कड़ुए-मीठे फल भोगे। हम सब इस चक्र पर घूम रहे हैं। कर्त्तव्य अपना; किंतु उसका दोष या श्रेय दूसरों को देखकर अपना मन बहलाने की आत्मप्रवंचना करते रहते हैं।

मनुष्य जन्म धारण करने के उपरान्त स्वयं करने योग्य काम इतना ही रह जाता है कि अपने सौभाग्य से परिचित हों, सामर्थ्यों को पहिचानें और आंतरिक दुर्बलताओं से लड़ पड़ें। गीता में अर्जुन को इसी महाभारत में लड़ने के लिए भगवान ने कहा था। विवेक को मान्यता दें, औचित्य को अपनाएँ और इसकी परवाह न करें कि दूसरे लोग क्या कहते और क्या करते हैं। मार्ग-निर्धारण करने की बुद्धिमता और लक्ष्य की दिशा में चल पड़ने की साहसिकता अपनाने के उपरांत आधी मंजिल पार हो जाती है। कुसंस्कारों से जूझने के लिए साधनाओं का उपक्रम और भटकाव की बेला में किसी समर्थ का मार्गदर्शन अभीष्ट है। यह दोनों ही कार्य सरल हैं, उतने नहीं, जितने कि समझे जाते हैं।

सच्चे आत्मविश्वासी और प्रगतिपरायण व्यक्ति की सहायता करने वालों की कमी नहीं। गुरु बहुत हैं। कमी शिष्यों की है। यदि अपनी प्यास सही और उद्देश्यपूर्ण है तो ग्रीष्म की तपन को मिटाने के लिए बादल कहीं से भी आ धमकेंगे और अपना भंडार खाली करके जल-जंगल एक कर देंगे, उड़ती धूलि पर हरीतिमा का मखमली फर्श बिछा देंगे। साधक को सिद्धि मिल कर रही है और मार्ग बताने वाले सहारा देकर मंजिल पार कराने वाले की कहीं भी, कभी भी कमी नहीं रही।

अध्यात्म मार्ग सरल है। जंजाली— प्रपंची जीवन की तुलना में वह कहीं अधिक सुगम है। संकीर्ण, स्वार्थपरायण पग-पग पर ठोकर खाते, रोते-रुलाते और खीजते-खिजाते हैं। पर देवत्व की दिशा अपनाने में एक भी झंझट नहीं है। सादा जीवन का व्रत लेने पर उच्च विचारों का आगमन अनायास ही मेघमालाओं की तरह घुमड़ता चला आता है। उच्च आध्यात्मिक विचारों का अवलंबन लेने पर कठिनाइयाँ भी सुविधाओं की तरह श्रेयस्कर लगती हैं और आत्मबल बढ़ाती हैं।

महर्षि व्यास का कथन है कि “मैं एक बड़े रहस्य की बात बताता हूँ कि मनुष्य से बढ़कर श्रेष्ठ इस संसार में और कोई नहीं है।" इस कथन में रत्ती भर भी अत्युक्ति नहीं है। जिसके रोम-रोम में देवता बसे हों, जिसके कण-कण में निर्जीव परमाणुओं की तुलना में अनेक गुनी शक्ति वाली जीवनी अरबों-खरबों की संख्या में भरी पड़ी हो, वह किसी उपयुक्त कार्य के कर सकने में असफल— असमर्थ कैसे रह कसता है? उस तूफानी आत्मसत्ता के मार्ग में कौन-सा अवरोध, अड़ सकता है!

दूरदर्शी, विवेकशीलता का एक ही चिह्न है, कि हम छाया की ओर से मुँह मोड़कर प्रकाश की ओर चलना आरंभ करें। छाया के पीछे नहीं दौड़ना पड़ेगा, वह अपने पीछे मनुहार करती हुई चलेगी। सौभाग्यशीलता का एक ही चिह्न है, कि हम निकृष्टता से, सस्ती हेय महत्त्वाकांक्षाओं से विरत हों और उसका नाविक जैसा साहस जुटाएँ, जो स्वयं पार होता है और अनेकों को पार करता है। खतरे से भरे-पूरे नौकायन व्यवसाय को जब अनेकों आत्मविश्वासी अपनाते और भूखे पेट भी नहीं सोते, तो हमीं क्यों ऐसे असमंजस में पड़ें, कि परमार्थ-पथ अपनाने से घाटा सहेंगे और मूर्ख कहलाएँगे।

जिनके चरणों पर शत-शत अभिनंदन होते हैं, जिनके पदचिह्न का अनुगमन करने में असंख्यों को कृतकृत्य होने का अवसर मिलता है, उसका परित्याग करने के लिए कौन सा दुर्भाग्य हमारे आड़े आता है, इसे देखें। महामानवों की कृतियों की गौरव-गरिमा इतिहास के पृष्ठों पर तलाश करें, तो पाते हैं कि शरीर न रहने पर भी उनकी आत्मा जीवितों से बढ़कर अपनी सत्ता बनाए हुए है और अनेक निष्प्राणों में प्राण भरती हैं। हो कसता है कि वे अमीर न बन पाए हों; संभव है, तृष्णा, विलासिता और अहंता की मृगतृष्णा में उन्हें न भटकना पड़ा हो। संत-सज्जनों की तरह सामान्य जीवन जी सके हों, पर इतना निश्चित है कि जिस भी स्थिति में वे रहे होंगे, अपने सत्प्रयासों के कारण पुलकित और प्रमुदित रहे होंगे। अब जबकि उनका शरीर नहीं है, तो भी पिछला स्मरण करके संतोष की साँस लेते होंगे और कहते होंगे कि मनुष्य जीवन ने हमें धन्य किया और उस जीवन को गौरवांवित करने में हमने कमी न रहने दी।

जब कभी, जिस किसी के जीवन में मार्ग-निर्धारण की उमंग उठे; और उस बेला में उत्कृष्टता के अवलंबन की स्फुरणा उठे, समझना चाहिए वह स्वयं धन्य हुआ और देवताओं ने अपने निवास के लिए जिस चोले का चुनाव किया था, वह चुनाव भी बुद्धिमतापूर्ण सिद्ध हुआ।


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