यह जीवन प्रभुमय कैसे बने?

March 1990

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प्रयाग निवासी और दूर से आने वाले त्रिवेणी संगम की ओर जा रहे थे, कुछ उधर से लौट रहे थे। माघ मास की कड़कड़ाती सर्दी बिना किसी भेद-भाव से सभी को अपनी ठिठुरन भरी धमकी सुनाकर काँपने के लिए विवश कर रही थी। ऐसे में कुत्ते का छोटा-सा पिल्ला, जो थोड़ी देर बाद कूँ-कूँ कर देता, उसकी खबर किसे होती है। सड़क के किनारे पड़ा वह बस आने-जाने वालों को एक नजर उठा कर देख लेता। मानों पूछ रहा हो— "हे !" धर्मधुरंधरो! तुम्हारे धर्म में सेवा, सहिष्णुता, पर दुःख  कातरतायुक्त सम्वेदनाओं का स्थान है या नहीं? पर अपनी प्यास को रोककर यक्ष के सवालों को सुनने, जवाब देन वाले युधिष्ठिर का सा धैर्य भला किसी में कहाँ था? उलटे उसे पैरों की ठोकर और लगा देते।

इसी बीच एक प्रौढ़ वय का व्यक्ति निकला, उसने पिल्ले को देखा, उठाया और अपनी छाती-से चिपटा लिया और चल पड़ा। त्रिवेणी संगम की ओर नहीं, बल्कि वापस टूटे-फूटे अपने आवास की ओर। द्वार खोलकर एक मात्र शीतकालीन वस्त्र, फटा कंबल उठाया और उसमें पिल्ले को लपेट लिया हलके-से गर्म दूध को सकोरे में भरकर पिलाना शुरू किया था कि एक महिला उन्हें खोजती हुई आ गई। क्या कर रहे हो भाई? बैठो बहिन कहकर उन्हें आत्मीयतापूर्वक चटाई पर बिठाया। बहन ने अपने भाई से थोड़ी देर अपने साथ घूम आने का आग्रह किया। इस पर वह बोले— "बहिन अभी इस पिल्ले की देख-रेख मेरे जिम्मे है। इसकी माँ आ जाए तो मैं चलूँ।"

पता नहीं आप इसे कहाँ से उठा लाए? कैसे ढूँढ़ सकेगी इसकी माँ? भाई ने जवाब दिया— "पशु कहे जाने वाले इन प्राणियों में हम मनुष्यों से अधिक भाव-सम्वेदना है। एक के प्राण दूसरों को पुकार ही लेते हैं। चाह-राह बना ही देती है। राह भूलकर भटका है तो सिर्फ मनुष्य क्योंकि वह भावनाओं और विवेक की कंपास खो बैठा है। फिर दिशा कौन सुझाए? पिल्ला दूध पी चुका था, उसने संतुष्ट हो कूँ कूँ की। लगा जैसे उनके कथन ये हामी भर प्रामाणिक ठहरा रहा हो। क्या कभी मूर्छित और जर्जर ढाँचा ढोने वाले धर्मोपदेशक समाजसेवी सच्चाई को जानने की कोशिश करेंगे?  ईंट-पत्थर जुटाने जरा-जरा-सी बात पर दंगा फसाद करने में सारी शक्ति कचड़े में फेंक देने वालों को, कभी यह पता चलेगा कि उनका भगवान हाथी, गीध, गिलहरी तक की सेवा के लिए सब कुछ भुलाकर नंगे पाँवों दौड़ा है।" गोद में उठाकर छाती से चिपटाकर असीम प्यार दिया है। कहते-कहते गला रुँध गया हिचकियाँ शुरू हो गई, आँखों से आँसुओं का झरना बह निकला।

आगंतुक महिला की आँखों में भी आँसू डबडबा गए। जिस किसी तरह अपने को रोकर-समझाते हुए कहा— "होगा। भाई जरूर होगा कब? भर्राये गले से एक शब्द निकला।" उत्तर था— "जब आज की पीढ़ी मानव के सूखे-बंजर अंतराल भावनाओं की भागीरथी प्रवाहित करने के लिए भगीरथ बन जाएगी।" जब ये अनेकों भगीरथ इस गंगावतरण हेतु अपने अस्तित्व को होमने के लिए तैयार होंगे। जब भक्त भगवान की पीड़ा को समझेंगे और निवारण के लिए सर्वस्व त्याग को एक उपलब्धि मानेंगे।

हाँ ! तब तो होगा बहिन। तब अवश्य होगा। विश्वास जगा, आशा उभरी। "पर! आप इस जीर्ण-शीर्ण कुरते और फटे कंबल में इतनी भयंकर ठंड में गुजरा करते हैं। सब हो जाता है। नहीं इस बार तो नया कोट बनवाना ही पड़ेगा। बहिन का आग्रह पहले तो टालते रहे पर जब वे नहीं मानी तो उन्होंने स्वीकृति दे शरीर इस प्रक्रिया में चूँकि कोई साथ नहीं दे सकता, इसलिए वह पहले ही साथ छोड़ चुका होगा। इसका एक स्पष्ट कारण यह है कि स्थूलशरीर की विधिव्यवस्था बनाने परिजनों का इसके प्रति मोह होने से दर्शन झाँकी का कौतुक बने रहने से जो ढेरों समय नष्ट हो जाता है, उसे बचाया जाना है। सूक्ष्मशरीर बिना किसी अड़चन के एक व्यापक क्षेत्र में द्रुतगति से सक्रिय होता रह सकता है। इसी कारण प्रत्यक्ष मिलने-जुलने का क्रम क्रमशः कम करते-करते, अब बंद करने की स्थिति में लाने का निश्चय करना पड़ा।

सूक्ष्मशरीर से भी बड़ी कारणशरीर की सत्ता है, उसका कार्य-क्षेत्र अति विशाल है। महाकाल की चेतना सूक्ष्मशरीर धारी ऋषिसत्ताओं के द्वारा भूमंडल के जिस बड़े क्षेत्र में सक्रिय हो सकती है, वह मात्र कारणशरीर के बलबूते ही संभव है। अदृश्य जगत में जो अवांछनीयता घटित हो रही है एवं जिसकी प्रतिक्रिया दृश्य जगत में विभिन्न प्रकोपों विभीषिकाओं के रूप में दृष्टिगोचर हो रही है, उसमें हस्तक्षेप करने की सामर्थ्यमात्र, कारणशरीर में है। इक्कीसवीं सदी में कई ऐसे प्रयास संपन्न करने पड़ेंगे, जो स्थूल एवं सूक्ष्मशरीरों की क्षमता से परे है। ब्राह्मी-चेतना से जुड़कर दिव्य करणशरीर ही उन सब को क्रियांवित करता है; जिन्हें प्रायः अद्भुत एवं अलौकिक कहा जाता है।

इक्कीसवीं सदी निश्चित ही उज्ज्वल सँभावनाएँ लेकर आ रही है। इस अवधि में ऐसे अद्भुत परिवर्तन होंगे कि यह कैसे हो रहा है और कौन कर रहा है, यह अनुमान लगा पाना बहुतों के लिए कठिन होगा। यह कार्य असामान्य है। सूत्रसंचालक ने प्रत्यक्ष मिलने-जुलने का क्रम बंदकर, सूक्ष्मशरीर से सभी परिजनों से संपर्क बनाने एवं दिव्य कारणशरीर द्वारा परोक्ष स्तर, पर हो रहे परिवर्तनों में भागीदारी करने का निर्णय लिया है। ऐसे में प्राणवान परिजनों पर विशिष्ट जिम्मेदारियाँ आती हैं।

पूज्य गुरुदेव की समष्टिगत-साधना में भागीदारी करने का जिनका मन हो, वे न्यूनतम कार्यक्रम के रूप में इस बसंत पर्व से निम्न संकल्प तो कर रही ही ले। इन संकल्पों की पूर्ति जा कर सकेगा। वह सहज ही युग अवतरण का श्रेय भी प्राप्त करेगा तथा बड़भागी कहलायेगा।ये संकल्प इस प्रकार है

1. माह में एक बार गुरुदेव माता जी को अपने घर अवश्य बुलाएँ। यह कार्य अखण्ड ज्योति युगशक्ति गायत्री आदि में से किसी पत्रिका की एक प्रति अपने यहाँ मंगाने से पूरा हो सकता है। गुरुसत्ता की प्राणचेतना से घनिष्ठता स्थापित करने के लिए यह श्रेष्ठतम माध्यम हैं। बन पड़े तो पाँच अनुपाठक और तैयार करे तथा प्रत्येक से पाँच-पाँच साथी और बढ़ाने को कहे। युगऋषि की लेखनी इक्कीसवीं सदी में भी सूक्ष्मशरीर एवं कारणशरीर के माध्यम से यथावत चलती रहेगी। अखण्ड ज्योति को मात्र पत्रिका नहीं; उनकी प्रखर चिंतन चेतना का जीता-जागता स्वरूप माने, जो सतयुग की आधारशिला रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रही है। पत्रिकाओं का पठन-पाठन ही परोक्षरूप से उनके द्वारा दी गई ज्ञानदीक्षा है।

2. जन मानस के परिष्कार के लिए युगसाहित्य का विस्तार अपने परिकर में झोला पुस्तकालय अथवा ज्ञानरथ (चलदेवालय) द्वारा करें। लोगों की दुर्बुद्धि को ठीक करने का यही सबसे सशक्त माध्यम है। विचार क्रांति इसी से होगी। इक्कीसवीं सदी संबंधी नूतन साहित्य, जो इन्हीं दिनों लिखा गया है स्वयं भी पढ़े न्यूनतम अपने मंडल के पच्चीस साथियों को पढ़ाए। स्मरण रखे कि विद्याविस्तार ही युग की सबसे बड़ी सेवा है। सद्विचारों का बीजारोपण किया जा सके। तो नवयुग के लिए महामानव तैयार किए जा सकेंगे।

3. अपने समय एवं उपार्जन का एक अंश नियमित रूप से निकाले एवं सत्प्रवृत्ति संवर्ध्दन हेतु, उनका नियोजन करें। प्रतिदिन 2 घंटे या प्रति सप्ताह एक नियत समय युगचेतना के विस्तार हेतु तथा बीस पैसा प्रतिदिन या माह में एक दिन की आजीविका नवसृजन के कार्यक्रमों के निमित्त निकाले। यदि इतना बन सके तो यह कहा जा सकेगा कि परिजनों में संवेदना जागृत है, जीवंत है। निकाले गए समय का उपयोग जन-जन में 21 वीं सदी उज्ज्वल भविष्य गोष्ठी, व्याख्यान, युगसंगीत, दीपयज्ञ, जन्मदिन, तीर्थयात्राएँ आदि। किन्हीं भी विधाओं का उपयोग अपनी रुचि और सामर्थ्य के अनुसार किया जा कसता है। अंशदान द्वारा इनके लिए साधन जुटाए जाते रह सकते है। इस न्यूनतम सेवा-साधना में निष्ठापूर्वक लगे रहने वाले कम-से-कम एक लाख लोकसेवी तैयार करने का संकल्प है।

4. नवयुग की अभ्यर्थना अगले दिनों दीपयज्ञ मालिका द्वारा की जानी है, इसके लिए 1925 की प्रथम महापूर्णाहुति तक इन एक लाख लोकसेवियों द्वारा एक करोड़ याजक तैयार करना है। इस हेतु अपना अधिक-से-अधिक योगदान दीप, यज्ञायोजनों तथा याज्ञकों को तैयार करने के रूप में दें। सारे भारत में यह पूर्णाहुतियाँ 1995 तथा 2000 के बसंत में संपन्न होंगीं। अपना पुरुषार्थ नियोजितकर अधिक-से-अधिक साथी सहयोगी तैयार करें, ताकि वे भी नवयुग की अगवानी में युगशक्ति के साझीदार बन सके।

5. साप्ताहिक सत्संग का आयोजन नियत स्थान पर करें और कुछ न बने, तो टेप के साथ माध्यम से सहगान कीर्तन वंदनीय माता जी के चौबीस गायत्री मंत्र पूज्य गुरुदेव के साथ  उच्चारितकर ऋषि चेतना से अपने आप को जोड़े। इन माध्यमों से युगऋषि के विचारों को जन-जन तक पहुँचाने सक पुध्य कमाए। आज के युग की यह महत्त्वपूर्ण सेवा है।

6. अपने मौहल्ले समीपवर्ती स्थानों, कस्बों की प्रभातफेरी साइकिल यात्रा के माध्यम से संपन्न करें। यही इस युग की तीर्थ यात्रा है। घर-घर अलख जगाने हेतु संगीत प्रचार उपकरणों से सज्जित साइकिलों द्वारा सप्ताह में एक बार समूह सहित निकल सकें, तो नवयुग के आगमन का उद्घोष जन-जन तक पहुँच सकेगा।

"नया संसार बसाने"  "नया इंसान बनाने" के लिए, अगले दिनों सारे भारत में एक लाख साइकिलों की तीर्थयात्रा; सतत चलाते रहने का युगऋषि का मन है। उन्हें आशा है ,उनका यह संकल्प अवश्य पूरा होगा।

7. महापूर्णाहुति तक, एक या दो वर्ष में, एक बार सिद्धपीठ शांतिकुँज की तीर्थ चेतना से अनुप्राणित हो; शक्तिसंचय बैटरी चार्ज कराने के लिए किसी एक सत्र में सम्मिलित होने का संकल्प लें। संभव हो तो अपना जन्मदिवस यही मनाएँ। स्मरण रखें गुरुदेव-माताजी की प्राण-ऊर्जा इस तीर्थ परिकर में विशेषरूप से आगामी दस वर्ष तक और तदुपरांत एक शताब्दी तक घनीभूत रूप में विद्यमान रहेगीं। वर्ष में एक बार उनसे से वह लाभ मिलता रहेगा, जो उनकी साधना में भागीदारी से किसी को मिल सकता है। प्रस्तुत पाँच दिवसीय सत्रों में, परिजनों द्वारा उठाए जा रहे उत्तरदायित्वों के अनुरूप प्राण अनुदान देकर, उन्हें समर्थ अग्रदूत के रूप में विकसित करने का सशक्त प्रयास किया जा रहा है।

उपरोक्त सातों सूत्रों को वसंतपर्व परम पूज्य गुरुदेव के आध्यात्मिक जन्मदिवस पर दिया गया विशेष उद्बोधन मानें। उनके दर्शन प्रत्यक्ष न हो पाने की स्थिति में भी, उनके सूक्ष्मशरीर तथा कारणशरीर की दिव्य चेतन-ऊर्जा से संपर्क जोड़ने का इसे प्रमुख माध्यम माने। ध्यान रखें कि अभी तक महाकाल की शक्ति से किए गए सभी संकल्पपूर्ण हो कर रहे हैं। अतः अपने को अर्जुन, हनुमान, शबरी, केवट की श्रेणी में रखते हुए, निमित्तमात्र मानकर श्रेय अर्जित करने का यह सौभाग्य हाथ-से न जाने दें।


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