नीति-निष्ठा अपनाने के सत्परिणाम

March 1990

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सुख-सुविधाओं की, समृद्धि और प्रगति की आकांक्षा सभी करते हैं। पर यह भूल जाते हैं कि बोने और खाद-पानी देने के उपरांत ही अच्छी फसल काटने और धन-धान्य से कोठे भरने का अवसर मिलता है। सत्प्रवृत्तियाँ ही समृद्धि और प्रगति के रूप में फलित होती हैं और प्रसन्नता भरे वातावरण का सृजन करती है।

दुर्बुद्धिजन्य-दुष्प्रवृत्तियों को अपनाकर कभी-कभी लुटेरे, उठाईगिरे भी जेब भारी कर लेते हैं, पर स्पष्ट है कि अनीतिजन्य उपार्जन न तो देर तक ठहरता है और न सुखद संभावनाओं का दर्शन होने देता है। गंदा पानी, सड़ी नालियों में बहते-बहते अंततः दुर्गंध और गंदगी, बीमारी का ही उद्भव करता है। अनीति की कमाई कुटेवों, कुकर्मों, बीमारी, मुकदमेबाजी, विग्रहों आदि के माध्यम से न जाने कहाँ-से कहा चली जाती है। कहीं भी जेब कटों के महल बनते नहीं देखे जाते। बन भी जायं, तो वे बालू की भीति की तरह ढह जाते हैं। उस कमाई का जो भी उपयोग, उपभोग करता है, ओलों की तरह गलता और माचिस की तरह जला हुआ आत्मप्रताड़ना और लोक-भर्त्सना का भाजन बनता है। कुमार्ग अपनाने वाले जल्दी और सरलतापूर्वक बहुत लाभ कमाने के लिए आतुर रहते हैं। जोखिम भी उठाते हैं, पर अंत में दुर्दशा जाल में फँसी चिड़ियों और मछलियों जैसी ही होती है। आँख मूँदकर चासनी के कड़ाव में घुस पड़ने वाली मक्खी बेमौत मरती है। अपनी मूर्खता पर पछताती और देखने वालों की भर्त्सना भी सहती है। जल्दी-जल्दी बहुत कमाने और उसके बलबूते गुलछर्रे उड़ाने की कल्पनाएँ करते ओर योजनाएँ बनाते रहने वाले अंततः घाटे में ही रहते है।

समझदारों को नीति-निष्ठा अपनाने के सत्परिणामों को ध्यान में रखना चाहिए। संसार में जितने भी अनुकरणीय, अभिनंदनीय व्यक्तित्व वाले सज्जन प्रकाश में आए हैं, उन सभी को अनिवार्य रूप से अपने को “सादा जीवन-उच्चविचार” की रीति-नीति अपनानी पड़ी है। प्रामाणिकता और प्रखरता की दुहरी कसौटियों पर खरा उतरना पड़ा है। सोने को तपाए जाने और काले पत्थर पर घिसे जाने के उपरांत ही मूल्यवान होने की मान्यता मिलती है। खोटे सिक्के तो जहाँ कहीं पहुँचते हैं, वहीं दुत्कारे जाते हैं।

अच्छा हो, हम औसत नागरिक स्तर का निर्वाह अपनाएँ। मिल-बाँटकर खाएँ और हँसती-हँसाती जिंदगी बिताएँ। “जियो और जीने दो” का यही राजमार्ग है। मनुष्य की मौलिक आवश्यकताएँ इतनी अधिक नहीं हैं कि उनकी पूर्ति मेहनत और ईमानदारी की कमाई से सरलतापूर्वक संभव न हो सके। इंद्र जैसा वैभव और कुबेर जितनी संपत्ति-साधन बटोरने के लिए ही उन्मत्त हुआ, व्यक्ति कुकर्मों पर उतारू होता है और

नीति-अनीति का विचार किए बिना कुछ भी करने पर उतारू होता है। यदि इस उन्माद पर अंकुश किया जा सके, तो विलासिता, तृष्णा, संचय एवं अपव्यय की वह ललक भी काबू में आ सकती है, जिसके कारण दुष्ट−चिंतन और भ्रष्ट आचरण अपनाए बिना काम नहीं चलता।

जिनका उपार्जन अधिक है, उनके लिए भलमनसाहत का एक ही मार्ग है कि बचत को लोक-मंगल के लिए, सत्प्रयोजनों के लिए नियोजित करने की योजना हाथों-हाथ बनती रहे। अपव्यय की होली जलाने की अपेक्षा उसे गिरों को उठाने और उठों को उछालने के निमित्त खर्च करते रहने की बुद्धिमता अपनाएँ। शांति से रहने और प्रगति का वातावरण बनाने के लिए यही उचित है और यही आवश्यक।


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