मन की अपरिग्रहता को जीतें (कहानी)

March 1990

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श्रावस्ती के समीप एक ब्राह्मण रहता था— अपरिग्रही। धर्मधारणा और लोकसेवा के लिए व्यक्तित्व को संयम के तप से तपाना पड़ता है। सो उसने एक-वस्त्र-धारण का व्रत लिया। उसी को वह ओढ़ता, बिछाता और पहनता। जब धोता, तो घर में नंगा बैठा रहता।

एक दिन तथागत का विशेष उद्बोध होने वाला था। उसमें सम्मिलित होने सारा नगर पहुँचा; अपरिग्रही ब्राह्मण भी। सभी उपस्थितजनों ने धर्मचक्र-प्रवर्तन के लिए दान दिया। ब्राह्मण का मन रह-रहकर कचोट रहा था कि वह गरीब है तो क्या? अपने वस्त्र तो दे ही सकता है। इसमें लज्जा और लज्जित होने का संकोच क्या? यह संकोच ही उसे कदम बढ़ाने से रोक रहा था।

बहुत तरह विचार करने के उपरांत उनने वस्त्र दे डालने का निश्चय कर ही डाला। लज्जा को पत्तों से ढक लिया और आनंदविभोर होकर चिल्लाया— जीत गया, जीत गया।

लोगों ने पूछा। उसने मन जीत लिया है। राजा ने नए वस्त्र दिए, वे उसने लेने से इनकार कर दिए और कहा—  यह अपरिग्रह ही मनुष्य को कृपण और विलासी बनाता है, उसे जीत लेने पर आत्मजयी बना मनुष्य त्रैलोक्यजयी जैसा हो जाता है। इसी उपलब्धि से मनुष्य का अजस्र तेज चमकता है, फिर इस लाभ को मैं क्यों छोड़ूँ।


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