इक्कीसवीं सदी के आधार स्तंभ !

March 1990

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

ऊँचे टीले और गहरे खाई-खड्ड अपने घेरे में आने वाली भूमि को निरर्थक बनाकर रख देते हैं। घिरा हुआ क्षेत्र देखने में डरावना और पार करने में दुस्तर बन जाता है। इसलिए उनमें न कृषि हो पाती है, न उद्यान लग पाते है। प्राणी निवास की असुविधा देखकर वहाँ बसने का कोई साहस भी नहीं करता। इस निरुपयोगी भूमि को समतल बनाने में भारी श्रम और साधन लगाने पड़ते है। तब कहीं ऐसी स्थिति बन पाती है कि वहाँ घर बनाना या उद्योग चलाना संभव हो सके, इसलिए विषमता को सदा से अभिशाप माना  और उसे घटाने-मिटाने के लिए समय-समय पर यथा संभव प्रयास होता रहा है। अब यह समस्या अधिक विषम हो जाने के कारण उसके उन्मूलन की आवश्यकता भी अधिक बढ़ गई है।

एक जगह ऊँची दीवाल उठाने पर उसके लिए कहीं-न-कहीं से अतिरिक्त मिट्टी लगानी पड़ेगी। जहाँ से भी वह उठेगी, वहाँ गड्ढा बने बिना रहेगा क्यों? विषमता एक प्रकार की कुरूपता भी है और अवांछनीयता भी। उसके कारण निश्चय ही संतुलन बिगड़ता है। सतयुगी स्वर्णिमकाल की विशेषता यही थी कि हर कोई औसत नागरिक स्तर जीकर संतोष करने लगा और प्रसन्न रहने का अभ्यस्त था। मिल बाँटकर खाने की नीति अपनाने से ही हिल-मिलकर रहने और हँसते-हँसाते जीने की स्थिति बनती थी। अब जहाँ कहीं भी अमीरी के सरंजाम जुटेंगे, उनके कारण खाली स्थिति में गरीबी के प्रतीक चमगादड़ और अबाबील ही आ बसेंगे।

सतयुग निर्धारण और विधिव्यवस्था में दो तत्त्व प्रधान हैं— एक समता, दूसरा एकता। विषमताओं में आर्थिक-क्षेत्र बुरी तरह उलझा है। गरीबी और गरीबी की अतिशयता ने ऐसा वातावरण बना रखा है; जिसमें कोई भी पक्ष चैन से नहीं बैठ सकेगा। गरीबी की दरिद्रता और दुर्बलता उन्हें कष्ट सहन के लिए बाधित करती है और साथ ही यह भी किसी से छिपा नहीं है कि अमीरों का ठाट-बाट अपव्यय और उन्माद किस प्रकार विद्वेष की आग भड़काता और उस आक्रोश से बचने के लिए अमीरों को कितने सुरक्षा के साधन जुटाने और नेकनीयती जताने के लिए पाखंडप्रपंच खड़े करने पड़ते हैं। देखा जा सकता है कि अमीरी और गरीबी के बीच किस प्रकार संघर्ष चल रहा हैं, उसकी अंतिम परिणति उसी बिंदु पर आकर रुकेगी; जिसमें विषमता का निराकरण और आर्थिक समता का निर्णय स्वीकार कर लिया जाएगा।

विषमता आर्थिक संपन्नता से आरंभ हुई या बलिष्ठों की शस्त्रसज्जा से, यह सोचना इतिहासकारों का विषय है, पर यह निश्चय है कि उस के कारण जंगल का कानून, मत्स्य न्याय और जिसकी लाठी तिसकी भैंस वाले सिद्धांत को असाधारण प्रोत्साहन मिला है। उसने अन्य अनेक क्षेत्रों को अपनी पकड़-जकड़ में कस लिया है। नर और नारी के बीच बरती जाने वाली विषमता में समर्थों द्वारा दुर्बल पक्ष पर अधिकार जमाने और शोषण में कमी न रहने देने की नीति लंबे समय से बरती जाने के कारण अब वह प्रथा-परंपरा बन गई है। उसे सही सिद्ध करने वाले शास्त्रों और कथानकों के गढ़ने में भी देरी नहीं हुई है। पत्नीव्रत को दुत्कारते हुए एकाकी पतिव्रत का समर्थन इसी व्यापक विषमता का एक पक्ष है। जाति–पाँति के आधार पर बरती जाने वाली ऊँच-नीच वाली मान्यता के पीछे भी संभवतः यही मनोविज्ञान काम करता रहा है, अन्यथा वंश और वेश के आधार पर किसी को ऊँचा-नीचा, माने-जाने के पीछे कोई तुक नहीं है। सभी पृथ्वीपुत्रों को मनुष्यमात्र को एक स्तर का गिने जाने में ही औचित्य है। उन्हें जाति, लिंग, भाषा क्षेत्रसंप्रदाय के आधार पर वरिष्ठ या कनिष्ठ नहीं ठहराया जा सकता। पतन और उत्थान तो व्यक्ति की विशेषता के आधार पर आंका जाना चाहिए। उत्कृष्टता और निकृष्टता का स्तर ही श्रेष्ठता-वरिष्ठता की कसौटी बनना चाहिए।

अगले दिनों न्याय एवं औचित्य की ही प्रतिष्ठा एवं प्रतिष्ठापना होने जा रही है। उसके विपरीत प्रतिपक्ष बनी खड़ी विषमता टिक नहीं सकेगी। मनुष्यमात्र को आर्थिक और सामाजिक-क्षेत्र में समानता के अधिकार मिलेंगे। मानवी भौतिक अधिकारों में सर्वतोमुखी समानता की भी एक धारा जुड़ेगी। अपराध ही प्रताड़ना के एक मात्र कारण बने रहेंगे गंगा-यमुना की तरह औचित्य की दूसरी धारा है, एकता। सहयोग और सहकार के आधार पर ही मानवी प्रगति की संभावना सार्थक हुई और व्यवस्था बनी है। सामूहिकता और सहकारिता ही वे प्रधानतत्त्व है; जिनने मानवी प्रगति में चार चाँद लगाए है। यहाँ तक कि जिस बुद्धिमता को मानवी विशेषताओं में प्रमुख समझा जाता है, उसके उद्गम एवं उद्भव में एकता एकजुटता ही अपनी महत्ता प्रमाणित करती रही है। अभ्युदय की सभी दिशाधाराओं में उसी की प्रमुख भूमिका रही है।

विलासिता का बिखराव हर कहीं अनर्थ से लेकर सर्वनाश जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करता रहा है। बुहारी की सींकें बिखर जाने, पर उनमें से एक की भी उपयोगिता शेष नहीं रह जाती। धागे यदि परस्पर जुड़ने से इंकार ही करते रहे तो, उनकी क्या हस्ती शेष रहेगी। वे उपयोगी कपड़े की स्थिति में कैसे पहुँच सकेंगे। पृथक-पृथक रहने का मन ईंटें बना लें तो फिर इमारत बनाने की सँभावना साकार हो ही नहीं सकती। बिखरे कबीले अभी भी यायावरों की तरह विचरते और वन्य प्रदेशों में किसी प्रकार लुक छिपकर गुजारा करता हैं। आचार-संहिता न बना पाने और संगठन का तंत्र खड़ा न कर पाने के कारण ही वे इस प्रगतिशीलता के युग में भी जहाँ-तहाँ आदिमकाल जैसी विकट परिस्थितियों से होते हुए धीरे-धीरे घटते और मिटते जा रहे हैं। इसे बिसंगइन की विसंगति के अतिरिक्त और क्या कुछ कहा, समझा जा सकता है।

अगले दिनों सर्वतोमुखी एकता और समता का प्रचलन क्रियांवित होने जा रहा है। यत्किंचित भिन्नता रही हो तो, उससे टकराने की विसंगतियों का समय रहते समाधान कर लिया जाएगा। यों अभिनव विश्व में एक ही धर्म, एक ही भाषा, एक ही विश्वव्यवस्था और एक आचारसंहिता को अपनाते हुए, एक इंसान और एक भगवान का ढाँचा खड़ा करके ही युग-मनीषा चैन लेगी। इससे कम से नवसृजन के अंतिम लक्ष्य तक पहुँच सकना बन ही नहीं पड़ेगा। एक शासन के अंतर्गत समूचा मनुष्य समाज निर्वाह करे और एक समाज संरचना के अंतर्गत ही सभी अपने क्रियाकलापों का निर्धारण करें, इसी में चिरस्थायी सुख-शांति के तत्त्वों का समावेश है। वही होना चाहिए और वही होकर भी रहेगा।

एकता और समता का व्यवहार प्रचलन के रूप में बन पड़ने योग्य है। इसके अतिरिक्त दो तत्त्व इनसे मिले-जुले और रह जाते है; जिन्हें मानवी मान्यताओं और भावनाओं में समुचित स्थान मिलना चाहिए। इनमें एक है आत्मीयता। दूसरी है— "पारिवारिकता, सब को अपना समझने पर उसके साथ मात्र सद्व्यवहार ही बन पड़ता है।" अपनों के साथ हिल-मिलकर रहने में किसी को काई व्यवधान अनुभव नहीं होता, न अपनों के साथ अनीति बरतने का भाव उठता है। अभी आत्मीयतामात्र अपने शरीर-परिवार तक सीमित होकर रह रही है, इसलिए लोग इतनी छोटी परिधि में ही प्रगति और सुख-शांति की बात सोचते , पर अगले ही दिनों जब आत्मीयता का क्षेत्र विस्तृत होगा तो, आत्मवत सर्वभूतेषु की मान्यता बन पड़ेगी और अपनापन समूचे संसार को अपने में बटोरकर उसकी सर्वतोमुखी सुख-शांति के लिए भरपूर प्रयत्न करेगा।

दूसरा तथ्य है— पारिवारिकता। सभ्य और सुसंस्कारी परिवार के परिकर में जिस स्नेह, सहकार का परिवार के परिकर में जिस स्नेह सहकार का बाहुल्य देखा जाता है,  उसी उदारता भरे दुलार के आधार पर भी समूची व्यवस्था का संचालन होता है। इसी प्रकार जब विश्व परिवार का निर्धारण प्रत्यक्षरूप से बन पड़ेगास तो छीन-झपट का नहीं; वरन देने और दिलाने का सिद्धांत ही कार्यांवित होते बन पड़ेगा। एकता-समता का आत्मीयता पारिवारिकता का, "वसुधैव कुटुंबकम" का सिद्धांत, जब भावना क्षेत्र में प्रवेश करेगा तो उन विग्रहों और संकटों का कोई आधार ही शेष न रह जाएगा, जो हर किसी को आज हैरान किए हुए है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118