आवश्यकता है, इस युग की सुप्रिया की

March 1990

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बिंबलेडन स्थिति एक घर का ड्रॉइंग रूम। आठ-दस लोग जमा थे। इन्हें एक नजर देखकर कोई भी कह सकता था कि सभी विचारशील हैं। ये सभी शांत-भाव से एक पुस्तक के एक अंश को ध्यानपूर्वक सुन रहे थे। अध्याय की समाप्ति पर एक ने प्रश्नवाचक ड़ड़ड़ड़ पढ़ने वाली युवती से कहा— ’मिस नोबुल ड़ड़ड़ड़ एडविन अर्नाल्ड का  'लाइट ऑफ एशिया' में किया गया वर्णन निःसंदेह उत्तम है। समय-समय पर पूर्व ने संसार को बहुत कुछ दिया है। पर पूर्व ने संसार को बहुत कुछ दिया है। पर क्या भारत एक बार फिर बुद्ध के इस कथानक को दुहरा सकेगा? क्या भारत से फिर कोई नया प्रकाश उठकर धरती को आलोकित कर सकेगा? अंधकार की भटकनों में क्या कोई नई राहें निकलेंगी?”

प्रश्नावली औचित्यपूर्ण थी। पढ़ने वाली महिला ने सांत्वना भरे स्वर में कहा— हाँ एक आश जगी है। पिछले दिनों अमेरिका में हुई  'पार्लियामेण्ट ऑफ रिलीजन' में एक मनीषी ने कहने की हिम्मत की है—  "मेरे पास सन्देह है" उस धरती का जहाँ मानवीय सभ्यता की प्रथम फसल लहराई थी। यह संदेश नया नहीं है। एक बार बुद्ध ने भी यही संदेश धरती को सुनाया था। अब पुनः उसी धरती से बुद्ध की ही भांति मैं पुनः संदेश लेकर आया हूँ। महिला ने बात जारी रखी— "इन वाक्यों की श्रोताओं पर प्रतिक्रिया, वक्ता का प्रभाव देखकर यह कहा जा सकता है कि भारत ने एक नया बुद्ध पैदा किया है। सुनने वालों के चेहरों में संतोष की आभा उभरी। वे सभी एक-एक करके चले गए।"

वह पुनः 'लाइट ऑफ एशिया' पढ़ने लगीं। दैवी चेतना द्वारा सोए हुए बुद्ध को जगाने का बड़ा ही मार्मिक प्रसंग था। जीते तो पशु पक्षी और कीड़े-मकोड़े भी हैं, पर जीवन उनका धन्य है जो अपने को सत्य के लिए पूर्णरूपेण समर्पित कर देते हैं। यही बोधिसत्व है। अगले चरण में यही बुद्ध होते हैं और दूसरों को जीवन का बोध कराते हैं। यों इस पुस्तक ने अनेकों दिलों में कर्मठता, सत्यपरायणता के प्रति आग जलाई है। पर नोबुल के अंतराल में इन दिनों बेचैनी का बवंडर मचा हुआ था। पर क्या करे? कैसे करे? आवश्यकता मार्गदर्शक की थी।

इन्हीं दिनों स्वामी विवेकानंद इंग्लैंड आए। वेस्ट एण्ड स्थिति भवन पर उनकी गोष्ठी का आयोजन हुआ। वह उनसे मिली, अपने मनोभावों से अवगत कराया। स्वामी जी से अपने द्वारा चलाए जा रहे रस्किन स्कूल का निरीक्षण करने की प्रार्थना की। स्वामी जी गए । वहाँ के बच्चों को देखकर उन्हें भारतीय निर्धन परिवारों के बालक बालिकाओं की याद आ गईं। शिक्षा सुसंस्कारिता जिनके लिए आकाश कुसुम बनी हुई थी। उनकी आँखें गीली हो गईं। उनका दुःख नोबुल से छुपा न रह सका।

उन्होंने आश्वासन दिया कि वह भारत के दीन- दुःखियों की सेवा में अपना पूरा सहयोग करेंगी। उनके इस आश्वासन पर स्वामी जी ने कहा— ”भारत में कार्य की दृष्टि से तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल है। वहाँ मनुष्य की नहीं; वरन संवेदनशील महिला की आवश्यकता है, जो सिंहनी की तरह वहाँ संव्याप्त दासता, निर्धनता और अंधविश्वास जैसी कठिनाइयों से लड़ सके। इन्हें पराजित कर सके। वहाँ तुम्हें ऐसे अर्धनग्न स्त्री-पुरुष के बीच रहना होगा। जिनकी जातिवाद के संबंध में विचित्र धारणाएँ हैं। वहाँ की जलवायु भयानक रूप से गर्म है। इन परिस्थितियों के बाद भी यदि तुममें काम करने का साहस जगे तो तुम्हारा स्वागत है।”

वस्तुतः इस तरह के साहस की अवरोधक बाहरी परिस्थितियाँ नहीं, हमारी अपनी मनःस्थिति है। स्वार्थ-मोह की वे बेड़ियाँ हैं; जिन्हें तोड़ने की हम हिम्मत नहीं जुटा पाते। नोबुल ने ये बेड़ियाँ तोड़ी। सारी बाधाओं को ठोकर मारकर राह से अलग किया और आ पहुँचा 28 जनवरी 1898 का दिन जब वे भारत पधारीं। स्वामी जी ने पुष्पहारों से स्वागत किया। इतिहास ने पुनः अपने को दुहराया युग के बुद्ध को सहयोग देने पुनः एक सुप्रिया पुनः एक सुजाता आगे आई।

17 मार्च 1898 को जब श्री माँ शारदा से मिलीं तो उन्होंने अपनी भुजाओं में समेटकर कहा— "बेटी तुम्हें पाकर भारत धन्य हुआ।" बाद में भी उनकी चर्चा करतीं। नरेन की बिटिया आई थी, वह बहुत बड़ा काम करेगी। माँ के हाथों से भोजन कर, प्रेम भरा स्पर्श पा नोबुल ने भी अपने को धन्य माना। एक सप्ताह बाद नीलांबर बाबू के बागान में नोबुल ने ब्रह्मचर्य व्रत के साथ ‘शिव भावे जीव सेवा' का मंत्र ग्रहण किया और सब कुछ समाज को निवेदित कर निवेदिता हो गईं।

कलकत्ता में प्लेग का प्रकोप हुआ। लोग जान बचा कर शहर छोड़कर भाग रहे थे। मेहतर मिलते नहीं थे और बात तो दूर लोग साफ-सफाई की बात भी न स्वीकारते थे। इस पर स्वामी जी ने कहा— मानव जैसा भी है, उसी स्थिति में तुम्हें उससे प्यार करना सीखना होगा। इस विकट स्थिति में उन्होंने प्राण का मोह छोड़कर फावड़ा हाथ में लिया और गंदी नालियों को साफ करने लगी। उनके इस कार्य से कितने ही युवक लज्जित हुए और अपनी सेवाएँ देने लगे। निवेदिता ने स्वामी जी के साथ अल्मोड़ा कश्मीर, बड़ौदा, और मद्रास आदि का भ्रमण किया। इस भ्रमण के पश्चात उनका यह विचार दृढ़ हुआ कि किसी देश का कल्याण करना है तो महिलाओं और जनमानस को जगाना होगा। जहाँ की मातृशक्ति अपमानित रहती हो उस देश से कोई आशा नहीं रखी जा सकती।

इसी उद्देश्य से 13 नवंबर 1898 को कलकत्ता में महिला विद्यालय की स्थापना की। विदेशी महिला के संपर्क में कोई अपनी लड़की देने को तैयार न था। हर शुभ कार्य का प्रथम चरण उपहास होता है, द्वितीय चरण सहयोग एवं परिणति सफलता होती है। यही बात यहाँ रही। उनके व्यवहार से प्रभावित होकर, रवीन्द्र नाथ टैगोर, जगदीश बसु जैसे प्रतिष्ठित लोगों ने अपनी अपने परिचितों की कन्याओं को भेजना शुरू किया।

वे युवा पीढ़ी को त्याग व सेवा का पाठ-पढ़ाना चाहती थी। इसके लिए उन्होंने विवेकानंद समिति, क्रांतिकारी समिति, जनसमिति, अनुशीला समिति की स्थापना की। युगांतर वंदेमातरम् के संपादन में सहायता की। यद्यपि 13 मार्च 1904 से उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा था, पर इसकी चिंता न कर किसानों और मजदूरों की आर्थिक स्थिति सुधारने में जुट गई। सहकारी समितियों की स्थापना की। काँग्रेस के वाराणसी अधिवेशन में गर्म दल और नर्म दल के बीच की खाई को पाटने की भरपूर कोशिश की। स्वतंत्रता संग्राम में भी सक्रिय सहयोग दिया।

क्षमता से अधिक कार्य करने के कारण शरीर दुर्बल होता जा रहा था। फिर भी रोग शय्या पर लेटे-लेटे 'मास्टर एज आई सा हिम', 'क्रेडम टेल्स ऑफ हिन्दूइज्म' आदि ग्रन्थों की रचना की। इसके अलावा अन्य ग्रंथ भी रचे। जो आज भी 'कम्पलीट वर्क्स ऑफ सिस्टर निवेदिता' के 5 खंडों में प्राप्त हैं। अनेक प्रयत्नों के बाद भी स्वास्थ्य न सुधरा, दार्जिलिंग गई। रास्ते में हालत बिगड़ गई और अपनी प्रिय रुद्राक्ष की माला पर जप करते-करते गुरु से एक हो गईं।

सागर पार से आकर उन्होंने भारत पर अपना सर्वस्य न्योछावर कर दिया। हम तो इसी देश के वासी हैं। श्रम से जी चुराते हैं, व भजन के नाम पर अकर्मण्यता अपनाते हैं। यदि भगिनी निवेदिता द्वारा लिए गए कार्यों में से किसी एक को भी भावनाशील महिलाएँ पूरा करने का संकल्प ले लें तो इस देश की कायापलट हो सकती है।


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