विज्ञान व अध्यात्म में विभेद नहीं, अभेद है

July 1988

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ज्ञान सम्पदा कस खजाना दो तिजोरियों में भरा हुआ समझा जा सकता है। एक दर्शन की है, दूसरी विज्ञान की। दर्शन की तिजोरी में ज्ञान के वह तत्व निहित है, जिनसे चेतना को प्रभावित करने वाली, भावनागत संवेदनाओं का विवेचन, विश्लेषण किया जाता है। नीति, धर्म, सदाचार, अध्यात्म के खजाना यही है। विज्ञान की तिजोरी में पंचभूतों से विनिर्मित चीजों की गतिविधियों की जानकारी तथा उसके उपयोग की विधियाँ सन्निहित है। आज इसकी अनेकानेक धाराएँ है शरीर विज्ञान, पदार्थ विज्ञान, रसायन, याँत्रिकी आदि।

सामान्यजनों ने इनके बाह्य कलेवर को देख इन्हें परस्पर पृथक और असम्बद्ध माना है। यही नहीं इन्हें परस्पर विरोधी भी ठहराया है। पर यदि इस विषय पर गहन चिन्तन मनन किया जाये तो पृथकता व असंबद्धता का आवरण हट जाता है यथार्थ प्रकट होने से य समझ में आ जाता है कि ये परस्पर विरोधी नहीं, एक दूसरे के पूरक है।

अध्यात्मिकता की अवमानना तथा विज्ञान को विरोधी ठहराये जाने का प्रधान कारण है कि अध्यात्म तत्वदर्शन रूपी सूर्य पर प्रथा-परम्पराओं-लोक प्रचलनों का कुहासा छा गया है। लोग इस कुहासे को ही आत्मिकी समझ बैठे हैं। पर यदि विवेक की हवा इस कुहासे को हटा दे तो तत्वदर्शन के सूर्य की यथार्थता प्रकट हो जाती है। तत्वदर्शन व विज्ञान दोनों ही एक बिन्दु पर आने लगते है। कारण कि रास्ते की भिन्नता के बावजूद दोनों ही सत्यान्वेषी है। इस सत्य शोधन की प्रक्रिया में दोनों में विभेद होने विरोध जैसी स्थिति पनपने की कोई गुंजाइश नहीं है।

विज्ञान और अध्यात्म के पारस्परिक सम्बन्धों पर मेधावी वैज्ञानिक हैराल्ड केषेलिग ने सुविस्तीर्ण गम्भीर अध्ययन किया और प्राप्त निष्कर्षों को शोध प्रबन्ध के रूप में साइन्स एण्ड रिलीज के नाम से पेन्सिलवानियाँ यूनिवर्सिटी को प्रस्तुत किया। इस शोध प्रबन्ध में उन्होंने दोनों के साम्य और एक्य को बताते हुए जोरदार शब्दों में कहा है कि मानव की सर्वांग पूर्ण प्रगति के लिए दोनों ही आवश्यक और अनिवार्य है। अध्यात्म की कई बातें ऐसी है जिनसे विज्ञान दिशा ले सका है और आपने को विध्वंसात्मक नहीं सृजनात्मक क्षेत्र में नियोजित कर सकता है। वहीं अध्यात्म भी तर्क, तथ्य पूर्ण वैज्ञानिक विधि को अपनाकर लोक मान्यताओं, अंध-विश्वासों, चित्र-विचित्र प्रचलनों का कोहरा मिटाकर अपनी यथार्थता प्रखरता-तेजस्विता को प्रकट कर सकता है। उन्होंने आगे बताते हुए लिखा है पिछले दिनों आध्यात्म विज्ञान का संघर्ष इन्हीं मुद्दों पर असहयोग के कारण होता था, जो अब समाप्त हो रहा है।

विज्ञान की हठवादिता भी अब छूटती जा रही है। कारण कि पदार्थ जिसे उसने अपना आधार मान रखा था, सारे के सारे शोध प्रयास उसी में केन्द्रित थे, अब अपना अस्तित्व खोता जा रहा है डेनमार्क के नील्सबोर, फ्राँस के लुइसदे ब्रोगली, आट्या के इरविन स्क्रोड़िंर तथा बुल्फ गैंग पाली, जर्मनी के वारनर हाइजोन वर्ग व इंग्लैंड के पाल डिरैक आदि ने अपने मिले–जुले शोध प्रयत्नों से यह सिद्ध का दिया हैं कि पदार्थ अनित्य है। उसका रूपांतर ऊर्जा में होना अवश्यंभावी है। वैज्ञानिकों की यह भी मान्यता है कि ऊर्जा जड़ चेतन सभी में समाई हुई है। इसे सर्वव्याप्त कहना किसी भी तरह अत्युक्तिपूर्ण नहीं हैं। इनकी यह मान्यता प्रकारान्तर वेदान्त का ही समर्थन करती है।

पदार्थ की अनित्यता का भाव होपे के साथ यह भी समझ में आता जा रहा है कि मानसिक और भावनात्मक सत्य का भी अस्तित्व है। इनका महत्त्व भी कम नहीं है। अपने को जड़वादी कहने में गर्व अनुभव करने वाले विज्ञानवेत्ता पुनर्जन्म परलोक, परमात्मा के अस्तित्व तथा मानव-मानव के बीच के सम्बन्धों को ठुकरा नहीं सकते। उनको सुलझाने के लिए जिस भावनात्मक आधार की आवश्यकता है उसे आध्यात्म ही पूरा कर सकता है।

वैज्ञानिकों द्वारा की जाने वाली नित्य नवीन शोधें महत्वपूर्ण है। इनके महत्व से कोई इन्कार भी नहीं कर सकता है। इस प्रकार के प्रयासों से मानव का दैनंदिन जीवन कितना सहज व सुगम हो गया है। इसे सभी जानते है। इस सहजता व सुगमता में विज्ञान के साथ आध्यात्म का भी हाथ है। उदाहरणार्थ डायनामाइट को ही ले। इसे किसी समय विज्ञान जगत की महत्वपूर्ण उपलब्धि माना जाता था। पर इसका उपयोग सुन्दर और भव्य भवनों का विनाश करके श्मशान बनाने में भी हो सकता है। ऊबड़-खाबड़ ऊँचे-बीहड़ पहाड़ों-चट्टानों को तोड़कर सड़कें बनाने के काम में भी। इन दोनों में समुचित कौन सा है? और किसे अपनाया जाना उचित है? इस प्रकार की औचित्यपूर्ण दिशा-दर्शन करना विज्ञान के बस की बात नहीं। कल्याणदायी इस दायित्व को निभा सकना आध्यात्मिकता से ही सम्भव है।

विज्ञान किसी वस्तु का वैज्ञानिक निर्णय और तार्किक चिन्तन सही रूप में दे सकता है। जैसे यह मौसम की जानकारी दे सकता है, परमाणु विस्फोट से कितनी ऊर्जा पैदा होगी, यह बता सकता है। पर उसके सुनियोजन के बारे में नहीं बता सकता। देखा जा सकता है कि मानवीय व्यवहार और भावनाओं का भी एक क्षेत्र है। उसे भी यदि विज्ञान अपने तार्किक चिन्तन से बताने लगे तो यह निर्णय गलत ही होगा। यह एक शक्तिशाली साधन है। इससे साध्य के प्राप्ति कैसे होगी, इसे धर्म द्वारा ही निर्धारित किया जा सकना सम्भव है। इसके द्वारा की गई शोधों का मूल्याँकन एवं उन्हें मानवीय जीवन में व्यावहारिक धरातल पर लाना एक महत्वपूर्ण कार्य है, जिसे आत्मिकी ही पूरा कर सकती है।

अध्यात्म-अन्तर्ज्ञान भावसंवेदना व विवेक पर अवलम्बित है। विज्ञान का अवलम्बन बौद्धिक शक्ति पर है। प्रयोग की आवश्यकता दोनों में है। आध्यात्मिक सिद्धान्तों उपनिषदों के श्लोकों को यदि रहते रहा जाय-तो कुछ भी बात नहीं बनेगी। बस एक होने की भूमिका निभाई जा सकेगी। प्रयोग में जुटे पड़ने, इसके लिए समर्पित होने से सत्य का बोध पाकर सामान्य मानव से अतिमानव हुआ जा सकता है। विज्ञान का काम भी मात्र परिकल्पनाओं के आधार पर नहीं चलता। यथार्थता की शोध के लिए जाने वाले प्रयोगों में यह अन्तर अवश्य है कि एक के प्रयोग का क्षेत्र पदार्थ है, दूसरे का चेतना। एक के प्रयोग में बहिरंग जगत की प्रधानता होती है। दूसरे में अन्तरंग की। फिर एक साम्य भी है। प्रयोग के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले उपादानों में दोनों को ही इन दोनों क्षेत्रों का सहारा लेना पड़ता है। वैज्ञानिक बहिरंग जगत में कितनी ही बढ़ी प्रयोगशाला क्यों न बना लें। कितने ही उपकरण क्यों जुटा लें। पर बुद्धि, मन, मस्तिष्क जो अंतरंग क्षेत्र के है इनका समुचित उपयोग किए बिना किसी तरह के प्रयोग परीक्षण संभव नहीं। इसी तरह आध्यात्मिक प्रयोगों में चेतना अर्थात् अंतरंग की प्रधानता रहती है, फिर भी बहिरंग साधन शरीर का पड़ना है। इसी कारण आत्मविदों ने शरीर माद्यं खलु धर्म साधन भी कहा है, शरीर को स्वस्थ-सबल, सक्षम बनाने में वैज्ञानिक साधन भी प्रयुक्त होते है। इस तरह यह स्पष्ट होता है कि पारस्परिक विग्रह जैसी कोई बात नहीं है। इन दोनों का अस्तित्व परस्पर पूरक सहयोगी बने रहने में ही है।

ब्रिटिश विज्ञानविद् सर जेक्सजीन्स ने अपनी पुस्तक फिजिक्स एण्ड फिलासॉफी’ में लिखा है कि विज्ञान व अध्यात्म दर्शन के परस्पर विरोध का काल अब समाप्त हो चुका। दोनों ही क्षेत्र यह अनुभव करने लगे हैं कि पारस्परिक सहायता के बिना किसी का प्रयोजन पूरा न हो सकेगा। दर्शनशास्त्री बिल डुरण्ड ने अपने ग्रन्थ ‘‘दि स्टोरी ऑफ फिलासॉफी” में ऐसे ही विचार व्यक्त किए हैं। वे कहते हैं “विज्ञान का आरम्भ दर्शन में होता है और अन्तकला में। यदि इसमें मानवी चेतना की सुसंवेदना उत्पन्न करने की क्षमता न होती तो इसके पीछे मानवी सुख शान्ति का जो उत्साह भरा लक्ष्य है उसी ने विज्ञान की उन्नति का पथ प्रशस्त किया है।” विख्यात चिन्तक केसरलिंगने अपनी पुस्तक “क्रिएटिव अण्डर स्टैण्डिग” में कहा है कि ज्ञान की दो धाराएँ विज्ञान एवं आध्यात्म दर्शन अविच्छिन्न है। इन दोनों को मिलाकर एक शब्द “दार्शनिक विज्ञान या वैज्ञानिक


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