मरने पर व्यर्थ का बवाल क्यों?

July 1988

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मृत्यु का क्षण बड़ा मार्मिक एवं डरावना होता है। ऐसे क्षणों में वातावरण में अचानक परिवर्तन आ जाता है।मृतक के विषय में अनेक तरह की चिन्ताएँ उभरती है। क्या उसे वह सब सुख-सुविधाएँ मिलेगी जो यहाँ मिलती थी? मरणोपरान्त मनुष्य कहाँ चला जाता है? वहाँ की क्या-क्या विशेषताएं होती है? आदि। किन्तु इसका उत्तर कोई नहीं दे सकता क्योंकि मरने के पश्चात् किसी का पुनः उसी स्थिति में लौटना हुआ नहीं है। वहाँ सबको खाली हाथ ही जाना पड़ता हैं। वस्तुओं का उपयोग यही तक सीमित है, सीमा के उस पार उन्हें नहीं ले जाया जा सकता।

मृत्यु का नाम सुनते ही प्रायः लोग घबरा जाते है। किसी का मरण देखकर, किसी दुर्घटना का समाचार सुनकर भी अपनी मृत्यु की शंका से आक्राँत हो उठते है। यहाँ तक कि कभी-कभी स्वयं भी अकेले में संसार की नश्वरता का विचार आते अथवा अपनी आयु के बीच गये वर्षों पर विचार करने से मृत्यु भय से मनुष्य उद्विग्न हो उठता है। अन्धेरे अथवा अपरिचित स्थानों में निर्भयता पूर्वक पदार्पण करने से भी उसे अपने मरण की शंका निरुत्साहित कर देती है। निःसन्देह मृत्यु का भय बड़ा ही व्यापक तथा चिर स्थायी होता है।

किन्तु यदि इस पर गंभीरता पूर्वक विचार किया जाय तो यह बडा ही क्षुद्र तथा उपहासास्पद प्रतीत होगा। पहले तो जो अनिवार्य है, अवश्यंभावी है उसके विषय में डरना क्या? जब मृत्यु अटल है और एक दिन सभी को मरना है तब उसके विषय में शंका का क्या प्रयोजन हो सकता है? यह बात किसी प्रकार भी समझ में आने लायक नहीं है। हमारे काल पूर्वजों की सृष्टि के अन्य प्राणियों की एक लम्बी परम्परा काल के मुख में समा चुकी है और आगे भी आने वाली प्रजा उनका अनुसरण करती ही जायेगी। तब बीच में हमें क्या अधिकार रह जाता है कि उस निश्चित नियति के प्रति भयाकुल अथवा शंकाकुल होते रहे। वास्तव में मनुष्य शरीर नहीं अजर-अमर अविनाशी आत्मा है। यदि इस सत्य को जाना, समझा और हृदयंगम किया जा सके तो मनुष्य न केवल मृत्यु को प्रस्तुत जीवन का अंतिम एवं अपरिहार्य अतिथि मानकर उसकी ओर से निश्चित हो जायेगा वरन् न जाने अन्य कितने भयों से वह अनायास ही मुक्ति पालेगा।

मरने के बाद मनुष्य का अस्तित्व बना रहता है या मृत्यु सब कुछ समाप्त कर देती है?यह प्रश्न मनुष्य को आदि काल से ही उद्वेलित करता है। कठोपनिषद् में यमराज से नचिकेता ने यही प्रश्न किया था और आत्मदाह का प्रकाश पाकर साँसारिक संतापों से छुटकारा पाया था। वैज्ञानिक मनीषियों ने भी इस संदर्भ में बहुत खोजें की है और पाया है कि इस जीवन के बाद भी जीवन बना रहता है। मरने के पश्चात् फिर से मनुष्य को नवजीवन मिलता है। इस संबंध में अब पुनर्जन्म सहित अनेक उपलब्ध तथ्यों का इतना बाहुल्य है कि संदेश और अविश्वास की कोई गुंजाइश ही नहीं रही। मर कर पुनर्जीवित होने अथवा किसी कारणवश अचेतन अवस्था में चले जाने के बाद पुनः चेतन अवस्था में लौट आने वाले व्यक्तियों के अनुभवों का तथ्यपूर्ण अन्वेषण करने के पश्चात भी वैज्ञानिकों ने उक्त निष्कर्ष निकाला है।

मैसाचुसेट्स मेडिकल सोसायटी के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. मूर रसेल फ्लेचर ने लगातार 24 वर्षों तक इस तथ्य का अन्वेषण किया कि मरने के उपरान्त मनुष्य को किस प्रकार की अनुभूति होती है। इस संदर्भ में उन्हें ऐसे लोगों से भी वास्ता पड़ा जो कुछ समय तक मृत रहने के उपरान्त पुनः जीवित हो उठे थे। ऐसे लोगों को खोज-खोज कर उन्होंने उनके बयान लिए और अपनी पुस्तक “ट्रिटाइज आन संस्पेंडेड ऐनीमेषन में प्रकाशित किये। इनमें से एक घटना गानर्निर नगर निवासी श्रीमती जान डी0 ब्लेक की है जिनके मृत शरीर को तीन दिन तक दफनाया न जा सका, कुछ लक्षण ऐसे थे जिनके कारण घर वालो ने उन्हें दफनाया नहीं और पुनर्जीवन की प्रतीक्षा में लास को सम्भाले रहे। तीन दिन बाद वे जी उठी। पूछने पर उसने बताया कि वे एक ऐसे लोक में गई जिसे परियों का देश कह सकते हैं। वहाँ बहुत आत्माएँ थी। वे बिना परों के आसमान में उड़ती थी। और सभी प्रसन्न  थी।

फ्राँस के प्रख्यात वैज्ञानिक डॉ. डेलीकोर ने उक्त विषय में गहन अनुसंधान किया है। मरणकाल की मूर्च्छा छोड़कर आंखें खोलने वाले व्यक्तियों की मनःस्थिति और अनुभूतियों को उनने न केवल निरखा-परखा है वरन् वैज्ञानिक अनुसंधान भी किया है  प्रसिद्ध अभिनेता डेनियल जीनल के मरणोत्तर जीवन संबंधित अनुभवों को गहन जाँच पड़ताल के पश्चात् सत्य पाया गया  है। उनके अनुसार डेनियल को हृदय रोग विशेषज्ञों ने मृत घोषित कर दिया जिसका स्पष्ट संकेत उपस्थित लोगों ने भी दिल की धड़कन रिकार्ड करने वाली मशीन पर देखा था। पर कुछ देर पश्चात् चिकित्सकों ने देखा कि अचानक ही मशीन की सुई फिर से हिलने–डुलने लगी है। इस पर उनके आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहा। डेनियल की आँख खुली तो उससे दिल का दौरा पड़ने से लेकर आँख खुलने तक की समयावधि में क्या अनुभूति हुई? यह पूछने पर उसने यत्किंचित् भय लगने, हवा में तैरने तथा आपने दिवंगत माता-पिता तथा पुत्र से मिलने और सुन्दर रंग बिरंगे फूलों से सुगन्धित बाग में घूमने के बात बताई। इतना ही नहीं उसने बताया कि माँ ने धीरज बंधाते हुए उससे कहा-”डेनियल अभी तुम यथावत् लौटे जाओ क्योंकि जिन्दगी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है।”

अमेरिका के सुप्रसिद्ध चिकित्सा विज्ञानी डॉ. वेन राबर्ट्स ने भी इस विषय की खोज में अपना अधिकांश समय व्यतीत किया है। उनके अनुसार अचेतन संसार से वापस चेतन अवस्था में आने वाले व्यक्तियों ने जो अनुभव बताये है उनमें प्रायः बहुत कुछ साम्यता है। जैसे शरीर से बाहर निकलने पर हलकापन अनुभव करना, शरीर की थकावट का विश्राम में बदल जाना एक ऐसी दुनिया में विचरण करना जहाँ न प्रकाश है। और न अंधकार है वरन् धूमिल प्रकाश है जहाँ मृत्यु के उपरान्त का यह अल्पकालीन समय शांति एवं सुखमय व्यतीत होता है। वहाँ कभी स्थिति इसके विपरीत भी दिखने लगती है। दृश्य इतने भयावह एवं कष्टकारक दिखते है कि जिन्हें देखकर दर्शकों के ही नहीं श्रोताओं के भी रोंगटे खड़े हो जाते है। वस्तुतः ऐसे दृश्य जीवन का जटिल एवं अनैतिक बना लेने के परिणाम स्वरूप ही दृष्टिगोचर होते होंगे।

इस तरह की घटनाओं को, अनेकों विख्यात व्यक्तियों की अनुभूतियों को विभिन्न भूतियो को विभिन्न मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने रिकार्ड किया है, जिन्हें अप्रामाणिक नहीं ठहराया जा सकता। इस तरह के सैकड़ों उदाहरण एडरबीन विश्वविद्यालय के प्रख्यात मनोविज्ञानी डॉ. राबर्ट कूकल के पुस्तक-”टेक्नीक्सआफ एस्टल प्रोजेक्षन” एन्थोनी वोर्गिया की पुस्तक-”मोर एबाउट लाइफ इन दी वर्ल्ड अनसीन” डॉ. जेम्सपाइक की पुस्तक “दि अदर साइड” डब्ल्यू टी0 स्टेड की ‘आफ्टर तथा सुप्रीमऐडवंचर आदि में संकलित है। इनमें से हैस नामक एक दस वर्षीय बालक की अनुभूतियां बहुत ही रोचक एवं लोमहर्षक है। हैंस एक दुर्घटना में दीवाल के नीचे दब गया जिसे चिकित्सकों ने परीक्षण करने के पश्चात् मृत घोषित कर दिया था। दैवयोग से लाश चौबीस घंटे तक पड़ी रही और उसकी चेतना पुनः वापस लौट आयी। होश में आने पर उसने उपस्थित आत्मीयजनों एवं डाक्टरों को अपने अनुभवों से अवगत कराते हुए बताया मैं एक ऐसी दुनिया में चला गया जहाँ अत्यधिक आनन्द की अनुभूति होने लगी थी। वहाँ के बच्चों को खेलते कूदते देखकर मेरा मन उनके क्रिया-कलापों में भाग लेने का हुआ और मैंने उनसे अनुमति माँगी। इस पर उन्होंने मेरे प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए कहा-कि तुम्हारा अभी यहाँ आने का समय नहीं हुआ है। साँसारिक कर्तव्यों के निर्वाह हेतु पुनः वापस चले जाओ। इस प्रकार वह फिर से अपनी चेतनावस्था में आ गया और स्वस्थ होने पर पूर्व की भाँति अपनी दिनचर्या बिताने लगा।

प्रख्यात परामनोविज्ञान हेलेनवेम्बेक को सम्मोहन विद्या का विशेषज्ञ माना जाता है।

अनुभूतियों का सविस्तार वर्णन उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “लाइफ बिफोर लाइफ” में किया है उन्होंने अचेतन के स्मृति भण्डार का पता लगाने के लिए कई व्यक्तियों को सम्मोहित किया। मृत्यु के बाद और चेतन अवस्था में आने तक के अनुभवों के बारे में पूछा तो प्रत्युत्तर में यही सुनने को मिला कि वहाँ के लोग अर्थात् दिवंगत आत्माएं छाया की भाँति सहायक और मार्गदर्शक का काम करत और अपने स्थान पर पुनः वापस लौट जाने का सत्परामर्श देती है।

अज्ञान  जनित माया मोह और आसक्ति ही मनुष्य को भ्रमाते डराते है और मृत्यु न तो कोई अचम्भे की वस्तु है। और न डरने की। वह जीवन-क्रम में अविच्छिन्न रूप से जुड़ी, एक सरल और स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसमें पुरातन के नवीनीकरण का सुखद परिवर्तन जुड़ा हुआ है। मृत्यु वस्तुतः अनायास होने वाली एक सुनिश्चित घटना है। जीन अनवरत बहने वाला एक अनन्त चेतना प्रवाह है। यह तथ्य स्मरण रखा जाये तो मनुष्य व्यर्थ में मौत के नाम से भयभीत क्यों हो?


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