मानवी काया- एक उच्चस्तरीय विद्युत्भाण्डागार

July 1988

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विद्युत ऊर्जा के सहारे यंत्र-उपकरणों के-संचालन की बात सर्वविदित है, पर प्रायः यह कम लोग ही जानते हैं कि मानवी शरीर एक शक्तिशाली यंत्र है और उसके सुसंचालन में जिस ऊर्जा की आवश्यकता होती है वह एक प्रकार की विशिष्ट विद्युत ही है। अध्यात्म की भाषा में इसे “प्राण” कहते हैं! यह एक अग्नि है जिसे ज्वलन्त रखने के लिए ईंधन की आवश्यकता पड़ती है। प्राण रूपी शरीराग्नि आहार से ज्वलन्त बनी रहती है। प्राणियों में संव्याप्त इस ऊर्जा को वैज्ञानिकों ने “जैव विद्युत” नाम दिया है। शरीर संचार की समस्त गतिविधियाँ तथा मस्तिष्कीय हलचलें रक्त माँस जैसे साधनों से नहीं, शरीर में संव्याप्त विद्युत प्रवाह द्वारा परिचालित होती हैं। यही जीवन तत्व बनकर रोम-रोम में व्याप्त है। उसमें चेतना और संवेदना के दोनों तत्व विद्यमान हैं। विचारशीलता उसका विशेष गुण है। मानवी विद्युत की यह मात्रा जिसमें जितनी अधिक होगी वह उतना ही ओजस्वी, तेजस्वी और मनस्वी होगा। प्रतिभाशाली, प्रगतिशील, शूरवीर, साहसी लोगों में इसी क्षमता की बहुलता होती है। काय कलेवर में इसकी न्यूनता होने पर विभिन्न प्रकार के रोग शीघ्र ही आ दबोचते हैं। मनः परिलक्षित होने लगते हैं।

‘जैव विद्युत’ उस भौतिक बिजली से सर्वथा भिन्न है जो विद्युत यंत्रों को चालित करने के लिए प्रयुक्त होती है। मानवी प्राण विद्युत का सामान्य उपयोग शरीर को गतिशील तथा मन, मस्तिष्क को सक्रिय रखने में होता है। असामान्य पक्ष मनोबल, संकल्पबल, आत्मबल के रूप में परिलक्षित होता है जिसके सहारे असंभव प्रतीत होने वाले काम भी पूरे होते देखे जाते हैं। “ट्राँसफाँर्मेंशन ऑफ एनर्जी” सिद्धान्त के अनुसार मानवी विद्युत सूक्ष्मीभूत होकर प्राण ऊर्जा और आत्मिक ऊर्जा के रूप में संग्रहित और एरिषोधित-परिवर्तित हो सकती है। इस ट्राँसफाँर्मेंशन के लिए ही प्राणानुसंधान करना और प्राण साधना का अवलम्बन लेना पड़ता है।

जैव भौतिकी के नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक हाजकिन हक्सले और एक्लीस ने मानवी ज्ञान तंतुओं में काम करने वाले विद्युत आवेगों की खोज की है। इनके प्रतिपादनों के अनुसार ज्ञान तंतु एक प्रकार के विद्युत संवाही तार हैं जिनमें निरंतर बिजली दौड़ती रहती है। पूरे शरीर में इन धागों को समेटकर एक लाइन में रखा जाय तो उनकी लम्बाई एक लाख मील से भी अधिक बैठेगी। इस प्रकार इतने बड़े तंत्र को विभिन्न दिशाओं में गतिशील रखने वाले यंत्र को कितनी अधिक बिजली की आवश्यकता पड़ेगी, यह विचारणीय है।

मूर्धन्य वैज्ञानिक डाँ मेटुची वैनबर्ग ने अपने अनुसंधान निष्कर्ष में कहा है कि मानवी काया के आन्तरिक संस्थानों में विद्युत शक्ति रूपी खजाने छिपे हैं। इनकी प्रकट क्षमता की जानकारी मांसपेशियों के सिकुड़ने-फैलने से उत्पन्न विद्युत धाराओं से होती है। इस संदर्भ में अँग्रेज वैज्ञानिक वाल्टर ने भी बहुत खोजें कीं और उन खोजों का लाभ चिकित्सा जगत को प्रदान किया है।

तंत्रिका विशेषज्ञों के अनुसार प्रत्येक न्यूरान एक छोटा डायनेमो है। कार्य विद्युत का उत्पादन मुख्यतया यही वर्ग करता है। इसका केन्द्र संस्थान मस्तिष्क है। एक सामान्य स्वस्थ युवा व्यक्ति का मस्तिष्क 2 वाट विद्युत उत्पन्न करता है जिससे उसके शरीर की समस्त गतिविधियाँ संचालित होती हैं। सामान्य जाँच प्रक्रिया में हृदय कोशिकाओं में विद्यमान इस बिजली का प्रयोग ईँसीँजीँ में, मांसपेशियों की विद्युत का ईँएमाँजीँ में तथा ब्रेन सेल्स की विद्युत का ईँईँजीँ में प्रयोग किया जाता है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि मानवी काया एक उच्चस्तरीय परमाणु बिजली घर है। इससे प्राण विद्युत तरंगों का निरन्तर कम या अधिक मात्रा में विकिरण होता रहता है। येल विश्वविद्यालय के सुप्रसिद्ध चिकित्सा शास्त्री हेराल्ड बर्र ने अपने शोध निष्कर्ष में बताया है कि प्रत्येक जीवधारी अपने-अपने स्तर के अनुरूप कम या अधिक विभव वाली विद्युत उत्पन्न करता है। मनुष्यों में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में इसकी मात्रा अधिक होती है। इस मानवीय विद्युत शक्ति को उन्होंने “लाइफ फील्ड” के नाम से सम्बोधित किया है। उनके अनुसार व्यक्तित्व के आधार पर प्रत्येक व्यक्ति का अलग-अलग लाइफ फील्ड होता है। जैव क्रियाओं से संबंधित होने के कारण उसमें परिवर्तन होता रहता है। आवेशग्रस्त होने अथवा घृणा, ईर्ष्या की स्थिति में मनुष्य शरीर से बिजली की सर्वाधिक क्षति होती है।

मूर्धन्य परामनोविज्ञानियों ने भी अपने विभिन्न अनुसंधानों के आधार पर पाया है कि सामान्य मनुष्य के सूक्ष्म शरीर से निस्सृत होने वाली विद्युतीय तरंगें उसके स्थूल शरीर से छः इंच बाहर तक फैली रहती है। पूर्ण स्वस्थ एवं पवित्र अंतःकरण वाले व्यक्ति के शरीर से निकलने वाली इन तरंगों का विकिरण तीन फुट दूर तक फैला रहता है। इसे इन्होंने मानवी तेजोवलय की संज्ञा दी है और कहा है कि मनुष्य जिस स्थान पर निवास करता या साधना-उपासना करता है, काया से निस्सृत प्राण विद्युत का अदृश्य कंपन वहाँ स्थित जड़ पदार्थों के परमाणुओं में तीव्र प्रकंपन पैदा कर देता है। मनुष्य शरीर से निकली विद्युत तरंगें आस-पास के वातावरण में छा जाती हैं और जड़ चेतन दोनों को प्रभावित आकर्षित करती हैं।

प्रख्यात वैज्ञानिक डाँ ब्राउन के मतानुसार एक स्वस्थ नवयुवक के शरीर और मस्तिष्क में व्याप्त विद्युत शक्ति से एक बड़ी मिल को संचालित किया जा सकता है जबकि छोटे बच्चे के शरीर में सन्निहित विद्युत ऊर्जा से एक रेलगाड़ी का इंजन चल सकता है। इस विद्युत शक्ति को उन्होंने “बायोलॉजिकल इलेक्ट्रिसिटी” कहा है। उनके अनुसार यह जैव विद्युत मनुष्य के सूक्ष्म शरीर से उत्पन्न होती है और स्थूल काया समेत समस्त गतिविधियों का नियंत्रण नियमन करती है। मस्तिष्क से लेकर अंगुलियों पर्यन्त इसी का आधिपत्य होता है। नेत्र सहित सभी इन्द्रियाँ इस शक्ति के प्रमुख विकिरण केन्द्र हैं। सर जान वुडरफ ने भी अपनी “पुस्तक सर्पेण्टाइन पावर” में बताया है कि नेत्र और हाथ पैरों की अँगुलियों के पोरों पर प्राण विद्युत का विकिरण विशेष अनुपात में पाया जा सकता है।

शरीर में काम करने वाली जैव विद्युत में कभी-कभी व्यतिरेक होने से गंभीर संकटों का सामना करना पड़ता है। भौतिक बिजली का जैव विद्युत में परिवर्तन असंभव है, पर जैव विद्युत के साथ भौतिक बिजली का सम्मिश्रण बन सकता है। कई बार ऐसी विचित्र घटनाएँ देखने में आयी हैं जिनमें मानवी शरीरों को एक जनरेटर डायनेमो के रूप में काम करते पाया गया।

सन् 2934 में इटली के पिरानी अस्पताल में एक ऐसी ही घटना घटित हुई। अन्ना मोनारी नामक एक महिला के शारीरिक कोशिकाओं से बिजली रिसने लगी। शरीर को छूते ही बिजली के नंगे तारों की भाँति तेज झटका लगता था। बिजली का यह उत्पादन सीने के एक वृताकार भाग में विशेष रूप से अधिक होता था। गहन निद्रा के समय सीने पर एक वृत्ताकार गैलेक्सी भी कुछ समय तक छायी रहती थी। यह प्रकाश पुँज कुछ सप्ताह तक बना रहा। इस घटना की जाँच पड़ताल विभिन्न वैज्ञानिकों, चिकित्सा शास्त्रियों एवं भौतिक-विदों द्वारा की गई, पर रहस्य पर से पर्दा नहीं उठ सका। अन्नामोनारी की जाँच कर रहे मूर्धन्य वैज्ञानिक डाँ कोँ सेग के कथनानुसार इस प्रकार की घटनाएँ शरीर में इलेक्ट्रोमैग्नेटिक इन्डक्षनके कारण होती हैं। अन्य वैज्ञानिकों का अभिमत था कि त्वचा में कुछ रासायनिक प्रक्रियाएँ इसके लिए जिम्मेवार हैं। किसी ने इसे “हाईवोल्टेज सिण्ड्रोम” कहा तो किसी ने इसे “साइकोकाइनेटिक शक्ति” के नाम से सम्बोधित किया।

“सोसायटी ऑफ सायकिकल रिसर्च” द्वारा प्रस्तुत एक विवरण के अनुसार केवल अमेरिका में ही 2 से अधिक ऐसे व्यक्ति पाये गये हैं जिनके शरीर से सतत् विद्युत धाराएँ निकलती थीं। तलाश करने पर वे संसार के अन्य भागों में भी मिल सकते हैं। फ्राँसीसी भौतिक विद् फ्रैन्क्वाइसएरैंगों ने अपने देश के “ला पेरियर” शहर की एन्जोलिककोटिन नामक विद्युत महिला का, तथा डाँएफाँकाफ्टने आयरलैण्ड की जोँ स्मिथ का अध्ययन किया था और घटना को प्रामाणिक बताया था। कोलोरेडो के मूर्धन्य वैज्ञानिक डब्लूँ पीजोन्स एवं उनके सहयोगी नार्मन लाँग ने भी इस संदर्भ में गहन अनुसंधान किया है और इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि वस्तुतः यह घटनाएँ शारीरिक व्यतिरेक के परिणाम स्वरूप घटित होती हैं। कोशिकाओं में अधिक विद्युत उत्पादन होने पर वह शरीर से बाहर निकलने लगती हैं। यदि इस बढ़ी हुई विद्युत शक्ति के सुनियोजन की कला ज्ञात हो सके तो मनुष्य अतीन्द्रिय क्षमताओं का धनी बन सकता है।

विभिन्न प्रयोग-परीक्षणों के आधार पर यह प्रमाणित किया जा चुका है कि काया के सूक्ष्म केंद्रों के इर्द-गिर्द प्रवाहमान विद्युतधारा ही सुखानुभूति का निमित्त कारण है। वैज्ञानिकों का कहना है कि विद्युतीय प्रकंपनों के बिना किसी प्रकार की सुख संवेदना का अनुभव नहीं किया जा सकता। पदार्थों के संयोग से उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रियाएँ एवं अनुभूतियाँ उनके अभाव में विद्युत कंपनों से भी पैदा की जा सकती हैं। परामनोविज्ञानियों की भी यही मान्यता है कि सुख-दुःख की अनुभूतियाँ जैव विद्युत तरंगों पर निर्भर करती हैं। शारीरिक परिपुष्टता और मानसिक उत्कृष्टता का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। एक के पूर्ण स्वस्थ होने पर दूसरे का स्वस्थ होना सुनिश्चित है। गुण,कर्म, स्वभाव में उच्चस्तरीय उत्कृष्टता जीवन में समस्वरता पैदा करती है, फलतः प्राण विद्युत की सशक्तता बढ़ती है, जिससे मनुष्य को असीम सुख शांति की अनुभूति होती है।

मानवी विद्युत प्रवाह ही एक दूसरे को आकर्षित प्रभावित करता है। शिर और नेत्रों में यह विशेष रूप से सक्रिय पाया जाता है। वाणी की मिठास, कड़ा होना अथवा प्रामाणिकता में उसका अनुभव किया जा सकता है। तेजस्वी मनुष्य के विचार ही प्रखर नहीं होते, उनकी आँखें भी चमकती हैं और उनकी वाणी अन्तर की गहराई तक घुस जाने वाला विद्युत प्रवाह उत्पन्न करती है। उभरती आयु में यही प्राण विद्युत काय आकर्षण की भूमिका निभाती है। सदुपयोग होने पर प्रतिभा, प्रखरता, प्रभावशीलता के रूप में विकसित होकर कितने ही महत्वपूर्ण कार्य करती है और दुरुपयोग होने पर मनुष्य निस्तेज, छूँछ एवं अवसादग्रस्त रहने लगता है। ऊर्ध्वरेता संयमी, विद्वान, वैज्ञानिक, दार्शनिक, योगी, तपस्वी, जैसी विशेषताओं से सम्पन्न व्यक्तियों के बारे में यहीं कहा जा सकता है कि उन्होंने अपनी प्राण विद्युत का अभिवर्धन नियंत्रण एवं सदुपयोग किया है।

किस व्यक्ति में कितनी मानवी विद्युत शक्ति विद्यमान है, इसका परिचय उसके चेहरे के इर्द-गिर्द और शरीर के चारों ओर बिखरे हुए तेजोवलय को देखकर प्राप्त किया जा सकता है। यह आभा मण्डल खुली आँखों से नहीं देखा जा सकता वरन् सूक्ष्म दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति ही इसे अनुभव कर पाते हैं। अब ऐसे यंत्र भी विकसित कर लिए गये हैं जो मानव शरीर में पायी जाने वाली विद्युत शक्ति और उसके विकिरण का विवरण प्रस्तुत करते हैं। किर्लियन फोटोग्राफी तथा आर्गान एनर्जी के मापन को इस संदर्भ में महत्वपूर्ण माना जा सकता है।

निःसन्देह मनुष्य एक जीता जागता बिजलीघर है, किन्तु झटका मारने वाली बत्ती जलाने वाली सामान्य बिजली की तुलना उससे नहीं की जा सकती। जड़ की तुलना में चेतन की जितनी श्रेष्ठता है उतना ही भौतिक और जीवन विद्युत में अंतर है। प्राण विद्युत असंख्यगुनी परिष्कृत और संवेदनशील है। उसके सदुपयोग एवं दुरुपयोग के भले-बुरे परिणामों को ध्यान में रखते हुए यदि प्राण विद्युत पर नियंत्रण, परिशोधन, उसका संचय-अभिवर्धन किया जा सके तो मनुष्य असामान्य शक्ति का स्वामी बन सकता है। अभी तो वैज्ञानिक स्थूल विद्युत के चमत्कार जानकर ही हतप्रभ हैं। यदि कायपिण्ड में विद्यमान इस जखीरे को विस्तार से जाना-समझाया जा सके तो अविज्ञात के रहस्योद्घाटन के क्षेत्र में एक नया आयाम खुलता है।


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