यश भी और सम्मान भी (Kahani)

July 1988

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देव दानवों में विवाद छिड़ा कि दोनों समुदायों में श्रेष्ठ कौन है? फैसला कराने के लिए प्रजापति के पास पहुंचे। उन्होंने दोनों वर्गों को सान्त्वना दी और सम्मान पूर्वक ठहरा दिया।

दूसरे दिन दोनों बुलाये गये। अलग-अलग स्थानों पर दोनों को भोजन के लिए बुलाया गया। थालियाँ व्यंजनों से सजी थी।

ब्रह्मा जी ने एक कौतूहल किया। मंत्र शक्ति से दोनो वर्गों को कोहनियों पर से हाथ मुड़ने में अवरोध उत्पन्न कर दिया। भोजन किया जाय तो कैसे?

दैत्य वर्ग के लोग हाथ ऊपर ले जाते। ऊपर से ग्रास पटकते। कोई मुँह में जाता कोई इधर-उधर गिरता। पूरा चेहरा गन्दा हो गया। पानी पर से गिराया तो उसने सारे वस्त्र भिगो दिये। इस स्थिति में उन्हें भूखे रहकर दुखी मन से उठना पड़ा।

यही प्रयोग देव वर्ग के साथ भी हुआ। उनने अपने सहज स्वभाव के अनुसार हल निकाल लिया। एक ने अपने हाथ से तोड़ा उसे दूसरे में मुँह में दिया। दूसरे ने तीसरे के मुँह में। इस प्रकार पूरी मंडली ने उसी कार्यवाई से भोजन कर लिया। पानी इसी प्रकार एक ने दूसरे को पिला दिया। सभी प्रसन्न थे और पूरा भोजन खाकर उठे।

ब्रह्मा जी ने दोनों को बुलाया। कहा- “तुम लोगों के प्रश्न का उत्तर मिल गया। जो अपने लिए ही सोचता और करता है वह असंतुष्ट रहता अपमानित होता है। पर जिसे दूसरों के हित का ध्यान है उसे संतोष भी मिलता है यश भी और सम्मान भी। इस कसौटी पर देव खरे उतरे है।”


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