गुजरात के रविशंकर महाराज को पुरोहित कृत्य वंश परम्परा से मिला। उनके यजमानों में अधिकाँश पाटन काडिया वर्ग के थे। उनका मुख्य व्यवसाय चोरी डकैती करना था। जो न करता उसे उस बिरादरी के लोग कायर समझते। यहाँ तक कि स्त्रियाँ तक रूठ कर तलाक दे जाती, दूसरी ओर पुलिस तंग करती। इस जाति के सभी वयस्क नर नारियों को हर दिन दो बार पुलिस थाने में हाजिरी देनी पड़ती।
पुरोहित रविशंकर ने निश्चय किया कि वे इस यजमान वर्ग को अभ्यस्त अपराधी प्रवृत्ति से छुड़ाकर रहेंगे। वे उन्हीं में घुले रहते। समझा बुझाकर सही रास्ते पर लाते। प्रायश्चित कराते। शपथ दिलाते और अपराध स्वीकार करके दण्ड पाने के लिए सहमत करते। इस प्रकार उस समुदाय के हजारों व्यक्तियों को उन्होंने अपराधी आदतों से विरत करके परिश्रम पूर्वक आजीविका कमाने में लगाया।
एक बार रात में रास्ता चलते डाकुओं के गिरोह से उनका मुकाबला हो गया। उनने बंदूक तान ली। महाराज ने कहा-हम भी चाकू है। पूछा गया किस गिरोह के? इस पर उन्होंने उत्तर दिया गान्धी गिरोह के। वही बिठा कर वे रात भर डाकुओं से बातें करते रहे और सवेरा होते-होते उन्हें यह कुकृत्य छोड़ने के लिए सहमत करके रहे। बन्दूक पुलिस थाने में जमा कर दी गई।
लोग उनसे पूछते आप वृद्ध हो चले फिर भी चैन से कही नहीं बैठते? तो वे हँसकर उत्तर देते-जब तक यजमान लोग मुझे निश्चित नहीं कर देते तब तक विश्राम कैसे कर पाऊं?
रविशंकर महाराज को स्थानीय भाषा में सन्त कहा जा सकता है। वे गुजरात में सरदार पटेल के दाहिने हाथ रहे। बारदौली सत्याग्रह में उन्हीं भूमिका ने सभी को चकित कर दिया। विश्व शांति परिषद के एक बार वे अध्यक्ष भी चुने गये। विद्वता, ज्ञान और सेवा का उन्हें ‘त्रिवेणी संगम कहा जाता है।