एक अनसुलझा प्रश्न?

July 1988

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शारीरिक संरचना तथा उसकी कार्य विधि के बारे में विज्ञान ने अनेकानेक बाते कहीं इसकी एनाँटमी व फिजियोलॉजी की गाथा से मेडिकल साइन्सेज के ग्रन्थ के ग्रन्थ भरे पड़े है। इतनी सारी अवेषणा प्रयोग परीक्षण करने के बावजूद भी विज्ञान विशारदों के लिये बता पाना सम्भव नहीं हो सका कि शरीर के विविध संस्थानों के ठीक रहने पर भी व्यक्ति मर क्यों जाता है? चेतना के न रहने पर शरीर के विभिन्न अंग-अवयव अपना काम एकाएक क्यों बन्द कर देते है? जिसके रहने पर शरीर हलचल करता, जीवित रहकर विविध क्रियाओं में संलग्न रहता है, वह चेतना है क्या? उसकी उद्गम स्थिति-प्रगति आदि के बारे में विज्ञान की अनेकानेक शाखाएँ-प्रशाखाएँ मिलकर भी कोई समुचित समाधान पा सकने में असफल रही है।

ऐसा नहीं है कि इस बारे में वैज्ञानिकों ने कोई प्रयत्न न किए हों। पर बाह्य साधनों पर गर्व करने वाले विज्ञान-शास्त्रियों को सदैव असफलता ही हाथ लगी। ढूँढ़-खोज की इस ऊहापोह में से यह कहा जाना कि चेतना का अस्तित्व है ही नहीं, “न तो न्याय संगत है-न ही युक्ति संगत। जल्दबाजी में किए गए इस प्रतिपादन से ही अनास्था के विष वृक्ष का बीजारोपण हुआ। परिणाम स्वरूप उन आदर्शों को क्षति पहुँची जिनके सहारे मानव और मानवता की प्रगति आरम्भ हुई और लगातार अभिवर्धन होता चला आया है।

“लिमिटेशन ऑफ साइन्स” नामक सुविख्यात पुस्तक के लेखक डॉ. जे एनू सुलीवान ने एक जगह स्पष्ट किया है-मानव जीवन के बारे में डार्विन द्वारा प्रतिपादित विकासवाद और रेण्डम सिद्धान्त (“मनुष्य पूर्ण रूपेण विकसित जन्मा”) में से कौन यथार्थ है कौन नहीं? इस बारे में कुछ भी स्पष्ट रूप से कह सकने में विज्ञान असमर्थ है। मूर्धन्य कहे जाने वाले वैज्ञानिक भी यह मानने के लिए तैयार हो जाते है कि सही माने में विश्व-ब्रह्माण्ड में कोई ऐसी दिव्य सत्ता क्रियाशील है, जिससे अधिक शक्तिशाली और सामर्थ्यवान और कोई नहीं।

सच कहा जाय तो विज्ञान अभी तक मृत्यु और जीवन के अन्तर को ही नहीं स्पष्ट कर पाया है। कभी हृदय की धड़कन रुकने को मृत्यु बताता है, तो कभी श्वसन किया के रुकने को। कभी इन दोनों को छोड़कर मस्तिष्क की मृत्यु को ही यथार्थ मृत्यु घोषित करता है।

गहराई से चिन्तन करने पर करने पर यही निष्कर्ष सामने आता है कि विज्ञान ने जड़ जगत् के सम्बन्ध में भी जितनी जानकारियाँ दी है वे अल्प ही है। इनके अतिरिक्त न जाने कितनी बाते ऐसी रह जाती है जिनके बारे में जानना समझना शेष ही है। आधुनिक विज्ञान के मुख्यतः दो सिद्धान्त जिन्हें सापेक्षिकता का सिद्धान्त की तमाम बातें इसलिए नहीं समझ में आती क्योंकि उनका स्पर्श मूलतः चेतना जगत् की परिधि से है, जो सामान्य विज्ञान से बहुत परे की है। इसलिए यदि ऐसा कहा जाय कि जहाँ से विज्ञान का अन्त होता है वहीं से आध्यात्म दर्शन की शुरुआत होती है तो कोई अतिशयोक्ति अथवा अतिरंजन नहीं।

किसी समय डॉल्टन के परमाणुवाद को सर्वमान्य ठहराया गया था। डॉल्टन के विचार के अनुसार परमाणु को अविभाज्य, अविनाशी और अजन्मा के रूप में स्वीकारने को ही यथार्थ माना जाना चाहिए। 120 वर्षा तक माना भी जाता रहा।

पर क्या सही सत्य था? 120 वर्षों तक लगातार सत्य की शोध के प्रयत्न चलते रहे और उपरोक्त सिद्धांत आखिर तब ध्वस्त हो ही गया, जब सर जेå जेå थाम्पसन ने कैथोड़ रेज का आविष्कार करके यह बता दिया कि परमाणु विभाज्य है। इस प्रक्रिया से इलेक्ट्रान, प्रोटान-न्यूट्रान जैसे कणों की खोज हुई। आज तो लक्सान, भीसाँन जैसे अनेकानेक कण भी खोजे जा चुके है। फिर भी यह दावे से नहीं कहा जा सकता है कि सत्य का पता लगाया जा चुका है।

वैज्ञानिकों को तो अभी यहीं नहीं पता कि पदार्थों में निहित शक्ति कहाँ से आती है? यदि उनसे पूछा जाय कि स्वप्नाभास, पूर्वाभास वाली शक्ति कौन सी है और क्या वह परमाणु या विराट् ब्रह्माण्ड से किसी प्रकार सम्बन्धित है? मस्तिष्क में विचार कहाँ से आते है? भावनाओं का अस्तित्व क्या है? जैसे प्रश्नों के पूछे जाने पर विज्ञान के पास इन सबका कोई उत्तर नहीं।

यदि सही ढंग से “विज्ञान” शब्द के भाव पर चिन्तन किया जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उसमें पदार्थ और चेतना दोनों ही भागों का समावेश है। पर आज तो उसकी एकांगी व्याख्या को ही समग्र मान लिया गया है। यही नहीं चेतना को भी जड़ तत्वों की प्रतिक्रिया का ही परिणाम सिद्ध करने के लिए एड़ी-चोटी का भरपूर जोर लगाया जा रहा है। क्या इसे हठवादिता नहीं कहा जाएगा?

पदार्थ विज्ञान में की जाने वाली ढूँढ़-खोज की प्रक्रिया पर चिन्तन करने पर स्पष्ट होता है कि जिन यन्त्र उपकरणों के माध्यम से प्रकृतिगत हलचलों का पता लगाया जाता है, वे जड़ पदार्थों से ही विनिर्मित है। मस्तिष्क का सचेतन, इन्द्रियगम्य ज्ञान भी भौतिक ही है। जानकारियाँ जमा करना इसी का काम है। बुद्धि और अन्वेषण उपकरणों द्वारा तैयार किए गए वैज्ञानिक कहाए जाने वाले इस ढाँचे की अपनी एक सीमा है। चेतन सत्ता की सीमा मन, बुद्धि, इंद्रियों से परे है। इन्द्रियातीत तत्व को इन्द्रियों से पकड़ने की कोशिश को बालकपन ही कहा जाएगा। चेतन सत्ता जो वाणी-मन-बुद्धि से परे है, उसकी विवेचना ब्रह्म विद्या करती है। तत्वदर्शन इसी के लिए आविष्कृत हुआ है। इसके सहारे ही परम तत्व का ज्ञान कर सकना सम्भव है। इनकी उपेक्षा करने के कारण विज्ञान को अपूर्ण ही कहा जाएगा।

विज्ञान विशारद तथा प्रख्यात चिन्तक प्रो एडिंगटन ने अपनी पुस्तक “द फिलॉसफी ऑफ फिजीकल साइन्स” में बताया है कि जब अणुओं या तत्व के गुणों का विवेचन किया जाता है, तो यह माना जाना चाहिए कि यह गुण अणुओं के एक मात्र वास्तविक गुण नहीं है। अपितु ये तो वे गुण है जो हमने अपनी प्रेक्षण विधि द्वारा उन अणुओं पर आरोपित कर दिए है। इस प्रकार उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला है कि विज्ञान जिस जगत का वर्णन-विवेचन करता है, वह तो और भी अधिक-आत्म परक है। जबकि पदार्थवादी वैज्ञानिक इसी बात को प्रतिपादित-प्रमाणित करने की भरपूर कोशिश करते रहे है कि आध्यात्मिक चिन्तकों को चिन्तन पूरी तरह से आत्मपरक होता है, वस्तु परक नहीं। इस तरह के चिन्तन पर तो मात्र विज्ञान का ही एकाधिकार है।

“फ्राम द फिजीकल टू द सोशल साइन्सेज” के लेखक जाँफ रुएफ ने अपनी इसी पुस्तक में लिखा है कि “हमारे पास यह कहने का कोई आधार नहीं है कि भौतिक शास्त्र के सिद्धान्त जिन कारणों का उद्घाटन करते है वही वस्तुओं की असली प्रकृति है।” उदाहरण के लिए न्यूट्रान इलेक्ट्रान को ही लें। इनकी यथार्थ प्रकृति क्या है इसे पूरी तरह से कोई वैज्ञानिक नहीं स्पष्ट कर सकता। जिस रूप में इसे विवेचित किया गया है, वह वैज्ञानिकों के विविध प्रेक्षणों को सम्बद्ध करने के लिए आवश्यक गुण मात्र है। इनकी वास्तविक सत्ता क्या है, इसका विवरण अभी तक पूर्ण रूपेण ज्ञात नहीं है।

वस्तुतः संसार की वास्तविकता का बोध प्राप्त करने की वैज्ञानिक विधियाँ इन्द्रिय ज्ञान तक ही सीमित है। चाहे कितने ही बहुमूल्य यंत्र हो, कम्पाउण्ड लेंस युक्त माइक्रोस्कोप हो या इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप, इन सबसे अर्जित होने वाली जानकारी आती इन्द्रियों के ही माध्यम से हभ्। जबकि हमारी इन्द्रियाँ व मन भ्रम से पूरी तरह परे नहीं है। अतएव इनके आधार पर यथार्थ को जान सकना प्रत्यक्ष जगत में तो सम्भव नहीं। अदृश्य सूक्ष्म तो हमारी सीमा से ही परे है।

वास्तविकता की तह में पैठने, सत्य का साक्षात्कार करने के लिए, साक्षात्कार का आधार विस्तृत करना होगा। इन्द्रियातीत तत्व के बोध के लिए अन्तर्ज्ञान को भी सम्मिलित करना होगा। इमे आध्यात्मिक प्रयोग-परीक्षणों में संलग्न होना होगा। इसके लिए बुद्धि के दीपक को नहीं, अपितु साधनात्मक अनुशासन से प्राप्त ऋतम्भरा प्रज्ञा की सर्च लाइट को जलाना होगा। तभी उस सही मार्ग का निर्धारण होगा जिस पर चलकर परम सत्य का बोध सम्भव है।


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