गंगा की महिमा से धर्म शास्त्र भरे पड़े है। उसके स्नान, आचमन यहाँ तक कि दर्शन तक का असाधारण पुण्य फल बताया गया है। उसे नदी होते हुए भी प्रत्यक्ष देव स्तर का सम्मान दिया गया हे। पर्वों पर असंख्य धर्म परायण उसकी तीर्थ यात्रा करते है और अनेक श्रद्धा, भावना मनोकामना लेकर उसके सान्निध्य में पहुँचते है। मान्यता यह भी है कि गंगा जल में स्नान से कुष्ठ जैसे रोगों से निवृत्ति होती है। इस आशा से अभी भी इस रोग से पीड़ित गंगा के तट पर कुथ्अया बनाकर निवास करते हे। पापों के प्रायश्चित में गंगा स्नान को एक प्रमुख माध्यम माना जाता है। पितरों की मुक्ति के लिए उनकी अस्थियों को गंगा में विसर्जित किया जाता है। पिण्ड दान, श्राद्ध, तर्पण आदि भी गंगा तट पर अधिक श्रेयष्कर माने जाते हे। प्रमुख तीर्थ गंगा तट पर ही बसे हुए है। गंगा की गोद और हिमालय की छाया में तपस्वियों की तप साधना सम्पन्न होती रही है। किसी से सत्य कहलवाने के लिए गंगा की शपथ दिलाई जाती है। इन सब बातों से स्पष्ट है कि गंगा का भारत भूमि में कितना महत्व है। घरों में गंगा जली सुरक्षित रखी जाती है। उसकी पूजा आरती होती है। मृतक के मुँह में गंगा जल डाला जाता है। पंचामृत वितरण में गंगा जल का भी एक अंश रहता है। मान्यता हैं कि गंगाजल कितना ही पुराना हो जाने पर खराब नहीं होता, उसमें कीटाणु नहीं पैदा होते।
कितने ही व्यक्ति सदा गंगा जल पीते, गंगा स्नान का व्रत लेकर गंगा के समीप ही अपना निवास बना लेते हे। इतिहास में ऐसे उल्लेख मिलते है कि कई समर्थ सत्ताधीश मात्र गंगाजल ही पीते थे और उनके लिए गंगाजल नियमित रूप से पहुँचाने के प्रमुख प्रसाधन रहते थे। इन तथ्यों को देखते हुए समझा जा सकता है कि इस देश में गंगा को कितनी मान्यता मिलती रही है। अभी भी गंगा, गीता, गाय, गायत्री और गोविन्द की पाँच प्रमुख देव प्रतीकों में गणना होती है।
इतने पर भी समय का दुर्विपाक ही समझना चाहिए कि ख्याति अब बुरी तरह उलट गई जिस पुनीत जल के कारण गंगा के महत्व इस स्तर के बने थे उसमें लगभग आमूल–चूल परिवर्तन हो गया है। श्रद्धा की दृष्टि से उसका महत्व कुछ भी क्यों न हो वस्तु स्थिति की दृष्टि से उस महिमा का बुरी तरह पलायन या लोप हो गया है।
कभी भागीरथ ने तप करके गंगा को स्वर्ग से धरती पर उतारा था। एक दैवी वरदान पर भूलोकवासियों के लिए उपलब्ध कराया था। उनके महान कार्य को देखते हुए साक्षात् शिवजी ने अपनी जटाएं खोलकर उस अवतरण को सुलभ बनाया था। गंगा का ही प्रसाद था कि समूचा आर्यावर्त क्षेत्र धन तत्व से परिपूर्ण और मानवी गरिमा से ओत−प्रोत बना था। अब उस स्थिति को वापस लौटाने की भी कोई नहीं सोचता। इतना भी नहीं बन पड़ता है। कि जिन कारणों से गंगा की गरिमा गिरी है, उन्हें फिर से परिमार्जित करने के लिए कोई कारगर कदम उठाया जाय।
नदी जल की स्थिति के संबंध में विश्व के मान्य संस्थान “यूनाइटेड नेशन्स पापुलेशन फण्ड” ने अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट इसी साल में प्रकाशित की है। उसमें गंगा की वर्तमान स्थिति को संसार की सभी बड़ी नदियों की तुलना में अधिक गई बीती बताया है।
फण्ड का कहना है कि 2525 किलोमीटर लम्बी गंगा का 600 किलोमीटर भाग तो ऐसा है जिसे सबसे अधिक खराब कहा जा सकता है। इस प्रदूषण भरे भाग में ही हरिद्वार, कानपुर, प्रयाग, वाराणसी जैसे प्रमुख तीर्थ बसे हुए है। गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक की लम्बाई में प्रमुख पंद्रह सौ बड़े शहर और मंझोले कस्बे बसे हुए है। वे सभी अपना औद्योगिक कचरा तथा मनुष्यों और पशुओं से उत्पन्न होने वाली गंदगी प्रायः गंगा में ही बहाते है। इसी के तट पर प्रायः’ 132 बड़े औद्योगिक कारखाने बने है। उसमें से मात्र 12 ही अपने निस्सृत गंदे जल की सफाई (प्रासेसिंग) करते है। शेष सभी का रासायनिक प्रदूषण अपने मूल रूप में ही गंगा में मिला दिया जाता है एवं यह प्रक्रिया ऋषिकेश (वीरभद्र) स्थित आय.डी.पी.एल कारखाने से ही आरंभ हो जाती है।
अन्यान्य नगरों की गंदगी बहाने का भी प्रधान आधार यह गंगा जल ही है, चाहे वह मानवी मल हो अथवा शहरी गंदगी लेकर बहने वाला नाला। इसके अतिरिक्त अध जले मुर्दे भी तटवर्ती श्मशान से उसी घारा में बहा दिये जाते है। लकड़ी की महंगाई और अधजले शरीर को गंगा में डालने से मृतात्मा को पारलौकिक लाभ मिलने की भ्रान्तिपूर्ण मान्यता भी इसका एक बड़ा कारण है। साधु-संन्यासियों को जल समाधि देने का प्रचलन है इसका प्रभाव भी नदी जल में प्रदूषण बढ़ने का ही एक कारण बनता है।
पिछले दिनों गंगा में अथाह जल रहता था। धारा तेज रहती थी इसलिए आए दिन की गंदगी का उस पर कोई भी प्रभाव नहीं पड़ सकता था। बड़े कारखाने भी इतनी विषैली रसायनों का उपयोग नहीं करते थे। छोटे कारखाने अपना कचरा इर्द-गिर्द ही खपा लेते थे। पर अब तो सिंचाई के लिए बड़ी नहरें बन गई है। नगरों को पय जल की पूर्ति भी बड़ी नदियोँ से ही होती है। ऐसी दशा में उसका जल स्तर घटता ही जाता हे। कम पानी में गंदगी का अधिक अंश मिल जाने में उसके प्रदूषण का भाग अधिक मात्रा में रहने लगना स्वाभाविक है। ऐसे-ऐसे अन्य कारण भी है जो गंगा जल का प्रदूषण बढ़ाते है। उसमें प्रवाह धीमा और उथला करते चले जाते है। यह आज की स्थिति हैं जिसमें विश्व सर्वेक्षण ने उसे संसार की सबसे अधिक “गंदी नदी” का नाम दिया है। यदि क्रम यही चलता रहा तो बढ़ती आबादी की आवश्यकता और भी अधिक बढ़ेगी और तदनुसार कचरा अधिक प्रवाहित होने का सिलसिला घटने के स्थान पर बढ़ता ही जायेगा। ऐसी दशा में स्थिति को सुधारने की आशा तो कैसे की जाय? गंदगी की और भी अधिक बढ़ने की आशंका ही बनी रहेगी। यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि ऐसे जल का प्रयाग करने वालों की स्वास्थ्य रक्षा समस्या भी जटिल होती जायेगी। पुण्य परमार्थ का लाभ मिलने की बात तो आगे ही खिसकती जायेगी।
खतरा बड़ा है और वास्तविक भी। इसे मात्र गंगा तक ही सीमित नहीं मानना चाहिए। यह प्रश्न उन सभी नदियों के संबंध में उत्पन्न होता है जो बड़े नगरों के तट पर बसे हुए हो, या पानी खींच कर अन्यत्र उपयोग के लिए भेजा जाता है। जल तल घटने से नाविकों का जल पर्यटन का उद्योग तो नाम मात्र का ही रह जाता है उन्हें कुछ ही महीने काम मिलता हैं। नदियों की बालू में नमी बनी रहने में जो कृषि होती रहती थी उसमें भी कटौती होती चली जा रही है। आगे उसमें और भी कमी आने की आशंका है। जब पानी न रहेगा और दूषित होता चला जाएगा तो उसमें मछली जैसे जलचर भी कहा रह पायेंगे जो गंदगी खाते और सफाई करते रहते थे।
सरकारी प्रयत्न अपने ढंग से चल रहे है। उनमें बड़े शहरों में सीवर लाइन डालने, कचरा गंगा में न गिरे इसी व्यवस्था करने, गहराई बढ़ाने के लिए खुदाई करने तथा जमी गंदगी को हटाने के प्रयत्न भी शामिल है। इनसे तात्कालिक कुछ प्रयोजन तो सधता है, पर स्थायी समाधान निकल सकना तब तक संभव नहीं, जब तक कि उस मनोवृत्ति को न मिटाया जाय जिसके कारण गंदगी बढ़ती ही चली जाती हो और जल प्रदूषण की विपन्नता बढ़ती हो। सीर लाइनें व कचरे को, गंदे नालों को मोड़ कर उन्हें खेती के प्रयोजनों में लगाने का प्रयास कितना सफल रहा, कितना खोखला है व कितने दिन तक साँस ले पाएगा, कह पाना मुश्किल है, पर जितना दायित्व सरकार का है, उतना ही जनता का भी। जो काम शासन के करने योग्य है, वह करने के लिए उस पर दबाव डाला जाना चाहिए साथ ही जनता को भी सहमत किया जाना चाहिए कि वह इस संबंध में अपना कर्त्तव्य समझे और पवित्र गंगाजल को अपवित्र न बनाने में कम से कम अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह तो करे ही। इसके लिए आए दिन गंगा तट पर बड़े मेले लगाने की परम्परा में कटौती की जा सकती है। कुंभ व अन्यान्य पर्वों पर सीमित संख्या में ही यात्रीगण वहाँ पहुंचा करे, ऐसा अंकुश समय की माँग और परिस्थितियों को देखते हुए स्वयं ही लगाया जा सकता है। स्पष्ट है कि मेलों से अपेक्षाकृत अधिक गंदगी उत्पन्न होती है और उसका प्रभाव जल प्रदूषण पर पड़े बिना नहीं रहेगा।
अधजले या बिना जले मुर्दे नदी में न डाले जाय इसके लिए प्रचलनों में परिवर्तन रखना चाहिए। अन्य किसी प्रकार की गंदगी नदियों में न पड़ने देने के लिए भरसक प्रयत्न करें।
गंगा पूजा के निमित्त अब तक बहुत श्रम, समय और धन खर्च किया जाता हैं। अतः इस वर्तमान आपत्तिकाल में गंगा को नदियों को प्रदूषण से बचाने के लिए उस अनुदान को स्वच्छता प्रयोजन के लिए मोड़ दिया जाना चाहिए। सफाई के लिए धारा को घाटों के निकट लाने के लिए श्रम दान का अभियान चलाया जाय और जो दान देना हो उसे निठल्ले भिखारियों के हाथों न सौंपकर गंगा शुद्धता तंत्र के हाथों सौंपा जाना चाहिए ताकि वह भगवती भागीरथी की वास्तविक सेवा में लग सके। ऐसा तंत्र सार्वजनिक क्षेत्र में गठित किया जा सके और उसका स्वरूप धार्मिक स्तर जैसा हो तो और भी अच्छा रहेगा क्योंकि वह जनश्रद्धा व भावनाओं पर आधारित होगा।
गंगा में गिरने वाले कचरे का खाद बना कर खेतों तक पहुँचाया जाना चाहिए। उसे सौर ऊर्जा के माध्यम से सुखाकर सूखी खाद के रूप में परिणत किया जाना चाहिए। इस कार्य को जनता और सरकार के सहयोग से सफलता पूर्वक किया जा सकता है। नदियों का पानी सूखने लगे तो उन्हीं के किनारे बड़े कुएँ खोदे जा सकता है और उनकी कमी मोटरों द्वारा ऊपर लाया जाकर गंगा को लुप्त होने से बचाया जा सकता है। प्रवाह बनी रहने से गन्दगी पैदा न होगी।
पानी के साथ मिट्टी ऊपर से नीचे आती है उससे सतह उथली होती रहती है। इस कारण बाढ़ आने, धार बदलने, नदी का पाट चौड़ा होने जैसे अनेकों संकट खड़े होते है। गहराई को यथावत् बनाये रहने के लिए उसकी सफाई समय-समय पर होती रहनी चाहिए।
नदी के तेज प्रवाह में प्रायः बरसाती जल सीधा समुद्र में जा पहुँचता हे। एक आकलन के अनुसार इसकी मात्रा लगभग बत्तीस करोड़ हेक्टेयर मीटर के लगभग है जो व्यर्थ ही थल व शहरी संपत्ति को नष्ट करते हुए सागर में विलीन हो जाता है। इसे रोका और सुरक्षित रखा जाना चाहिए। अच्छा हो बड़ी नदियों के आस-पास बाँध और छोटे-छोटे जल क्षेत्र बनाये जांय। इन सरोवरों में संचित जल कृषि क्षेत्र में आवश्यकतानुसार उपयोग होता रह सकता है एवं नदियोँ में भी कमी न पड़ने पायेगी।
कारखानों का जहरीला पानी किसी भी स्थिति में नदियोँ में न मिलने दिया जाय। कारखानों वालों पर यह कड़ा प्रतिबंध रहे कि दूषित जल को शुद्ध करने के उपरान्त ही किसी नदी में मिलने दिया जाएगा। इस प्रक्रिया में पूरी-पूरी कड़ाई बरती जाय। दोषी कोई भी हो उसे ढूँढ़ने पर ऐसे और भी उपाय मिल सकते है कि जिससे नदी जल प्रदूषित न होने पाये और पानी की कमी भी न पड़ने पाये।
शुद्धता इसी प्रकार सुरक्षित रखी जा सकती है। नदियाँ हमारे जीवन-प्राण वनस्पति जगत की जीवन धाराएँ है। गंगा जैसी पुण्यतोया नदियों का तो धार्मिक महत्व भी है। उन्हें सही और सुरक्षित रखने के लिए जनता को और सरकार को इस प्रयोजन के लिए अपने-अपने ढंग से समुचित प्रयत्न करने चाहिए। यदि वर्तमान प्रचलन चलता रहा तो वह समय दूर नहीं, जब गंगा अपने उद्गम स्थल से ही सिकुड़ते-सिकुड़ते लुप्त होने लगेगी। तब कौन भागीरथ उसे वापस लाने का दुस्साहस कर सकेगा? अभी भी समय है एवं काफी कुछ किया जा सकता है।