प्राण ऊर्जा से उपचार का विज्ञान सम्मत आधार

July 1988

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अणु में विभु, लघु में महान की व्याख्या करने वाले उपनिषद्कार मानवी सामर्थ्य की संभावना का वर्णन करते कभी नहीं थकते। वे कहते हैं मनुष्य की शारीरिक संरचना रसायन शास्त्र, दृश्य तंतु जाल आदि सभी स्थूल परिकर हैं। इस सारे संयंत्र को चलाने के लिए जिस ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है, उसे अध्यात्म की भाषा में प्राण शक्ति कहा जा सकता हैं। यह न्यूनाधिक मात्रा में सभी में विद्यमान होती है। सर जूलियन हक्ले ने अपनी पुस्तक “ द यूनिकनेस आँव मैन” में लिखा है शारीरिक स्नायुतंत्र एक-सा होते हुए भी एक ऐसी परोक्ष सामर्थ्य किसी मनुष्य के अन्दर होती है कि वह अपने चारों ओर के वातावरण को ही नहीं, एक व्यापक परिकर को प्रभावित करता हैं।

इसे गीताकार ने सात्विक संकल्प शक्ति नाम देते हुए कहा है-

धृत्या यया घारयते मनः प्राणेन्द्रिय क्रियाः। योगेना व्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्विकी॥

अर्थात् वह संकल्प शक्ति जो मन, प्राण व इन्द्रियों की क्रियाओं पर नियन्त्रण करती है ओर उनकी शक्तियों को अंतः स्थिति दिव्य आत्मा की ओर मोड़ देती है, हे पार्थ। वह सात्विक इच्छा शक्ति या धृति है।

यह इच्छा शक्ति किस रूप में होती है? इसका उत्तर देते हुए गुह्य विज्ञानी कहते हैं कि काया की विद्युत व्यवस्था में मूलाधार को ऋण और सहस्रार को धन विद्युत का केन्द्र माना गया है। मेरुदण्ड के माध्यम से उनके मध्यवर्ती प्रवाह गतिशील रहते हैं इसके उपरान्त ज्ञान तन्तुओं के माध्यम से समस्त शरीर में उस प्राण ऊर्जा का वितरण होता रहता है। इसके आधार पर काया की चेतन और अचेतन गतिविधियाँ तो चलती ही हैं, साथ ही स्फूर्ति, प्रतिभा, मेधा, जीवट जैसी रहस्यमयी विभूतियाँ भी उसी आधार पर जगती और बढ़ती रहती है। पंचतत्वों से बने शरीर को चलाने में पंच प्राणों की सामर्थ्य ही काम करती हैं। इस ऊर्जा की उपयुक्त मात्रा होने से ही मनुष्य प्राणवान बनता है अन्यथा स्वल्प प्राण वाला मात्र सामान्य प्राणी बनकर रह जाता है। इच्छा शक्ति का प्रभाव इसी रूप में देखा जा सकता हैं।

प्राण शक्ति की उपयोगिता जीवनचर्या को गतिशील रखने तथा विभिन्न प्रकार के पुरुषार्थ करने में तो है ही। उसका अब नया उपयोग चिकित्सा प्रयोजन में भी होने लगा है। समर्थ व्यक्ति की प्राणशक्ति दुर्बल को उसी प्रकार दी जा सकती है जैसे कि सम्पन्न लोग अपने वैभव से निर्धनों, अभाव ग्रस्तों की सहायता करते हैं।

प्राचीनकाल में प्राणदान, शक्तिपात आदि अनेक अनुदानों का वर्णन मिलता है। गुरुजन अपने शिष्यों को उत्तराधिकार में बहुत कुछ देते रहते हैं। दुर्बलों और पीड़ितों की सहायता के लिए भी अपनी इस पूँजी का भी आदान-प्रदान संभव होता था।

इन दिनों उस प्रक्रिया का उपयोग हलके रूप में होने लगा हैं। मैस्मेरिज्म सिद्धान्तों के आधार पर की जाने वाली प्राण चिकित्सा को इसी स्तर का माना जा सकता है। उसमें मात्र शरीरगत विद्युत प्रवाह का आदान-प्रदान होता है। उसमें ग्रहणकर्ता को अधिक लाभ होता है पर प्रदाता को कोई अधिक घाटा भी नहीं सहना पड़ता, क्योंकि दैनिक जीवन के विभिन्न कार्यों में इस विद्युत का निरन्तर व्यय होता ही रहता है। चिकित्सा प्रयोजन में इतना ही करना पड़ता है कि प्राण विद्युत का कुछ समय तक बिखराव रोकना पड़ता है और एकाग्रता तथा संकल्प शक्ति के सहारे उसे दुर्बल व्यक्ति को देना पड़ता है। इसे शारीरिक स्तर पर मोटा अनुदान कह सकते है।

सम्मोहन विद्या का वशीकरण, मूर्च्छा प्रयोग आदि के रूप में प्रचलन तो पहले भी था। योग एवं तंत्र ग्रंथों में इसका विशद् वर्णन भी मिलता है। पर उसे व्यवस्थित चिकित्सा के रूप में प्रचलित करने का श्रेय आस्ट्रिया निवासी डॉक्टर फ्रासिस्कम् एण्टोनियर्स मेस्मर को है। उन्होंने मानवी विद्युत का अस्तित्व, स्वरूप और उपयोग सिद्ध करने में घोर परिश्रम किया और उसके आधार पर कठिन रोगों के उपचार में बहुत ख्याति कमाई। वे अपने शरीर की प्राण ऊर्जा का रोगियों पर आघात करते साथ ही लौह चुम्बक भी आवश्यकतानुसार प्रयोग में लाते। इस दुहरे प्रयोग से न केवल शारीरिक वरन् मानसिक रोगों के उपचार में भी उनने आशातीत सफलता प्राप्त की। इसे उन्होंने “ मैस्मेरिज्म” नाम दिया। आगे चलकर मि. कान्स्टेट युसिगर ने उसमें सम्मोहन विज्ञान की नई कड़ी जोड़ी और कृत्रिम निद्रा लाने की विधि को “ हिप्नोटिज्म “ नाम दिया। फ्राँस के अन्य विद्वान भी इस दिशा में नई खोजें करते रहे। चिकित्सा ला फान्टेन एवं डाँ. ब्रेड ने इन अन्वेषणों को और आगे बढ़ाकर इस योग्य बनाया कि चिकित्सा उपचार में उसका प्रामाणिक उपयोग संभव हो सके।

पिछले दिनों अमेरिका में न्यू आरलीयन्स तो ऐसे प्रयोगों का केन्द्र ही बना रहा हे जहाँ इस विज्ञान को अमेरिकी वैज्ञानिक डारलिग और फ्राँसीसी वैज्ञानिक डाँ. दुराण्ड डे ग्रास की खोजों ने विज्ञान जगत को यह विश्वास दिलाया कि प्राणशक्ति का उपयोग अन्य महत्वपूर्ण उपचारों से किसी भी प्रकार कम लाभदायक नहीं है। इस प्रक्रिया को “ इलैक्ट्रो बायोलाँजिकल साइंस “ नाम दिया गया है। “ दि स्कूल ऑफ नेन्सी “, “दि स्कूल ऑफ चारकोट”, “ दि स्कूल ऑफ मेस्मेरिस्ट “ नामक संस्थाओं ने इस संदर्भ में महत्वपूर्ण शोध संस्थान सम्मोहन चिकित्सा पर अनुसंधानरत रहे हैं।

मूर्धन्य वैज्ञानिक डाँ. एम.ओ.माल तथा जे.एम.वैम्ब्रेल ने अपनी पुस्तक “ हिप्नोटिज्म “ में सम्मोहन चिकित्सा की अनेकों प्रामाणिक घटनाओं का वर्णन किया है। इमोशन्स एण्ड बाँडिली चेन्जेज नामक अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में लेखिका एच.एफ.डनवार ने कहा है कि इस विद्या द्वारा हर प्रकार की हिस्टीरिया, फोबिया, स्नायुविक बीमारियाँ, वाणी का असन्तुलन-हकलाना आदि का सफल उपचार संभव है। डाँ. विन के अनुसार मानसिक रोगों के उपचार में वैज्ञानिक हिप्नोटिज्म का सफल स्तर पर प्रयोग हुआ है।

अमेरिका के सुप्रसिद्ध चिकित्सक डाँ. आर्नोल्ड फ्राँस्ट ने सम्मोहन विधि से निद्रित करके कई रोगियों के छोटे ऑपरेशन किये थे। पीछे डैन्टल सर्जनों ने यह विधि अपनाई और उन्होंने दाँत उखाड़ने में सुन्न करके प्रयोग बंद करके सम्मोहन विधि प्रयोग को सुविधाजनक पाया। दक्षिण अफ्रीका-जोहन्सवर्ग के टारा अस्पताल में डाँ. वर्नर्ड लेविन्सन ने बिना एनेस्थीसिया के इसी विधि से कितने ही कष्ट रहित ऑपरेशन करके यह सिद्ध किया कि यह विधि कोई जादू मंतर नहीं वरन् विशुद्धतः वैज्ञानिक है। वैज्ञानिक जेम्स ब्राइड ने भी नाड़ी संस्थान में पाई जाने वाली विद्युत शक्ति की क्षमता को मात्र शरीर निर्वाह तक सीमित न रहने देकर उससे अन्य उपयोगी कार्य संभव हो सकने का प्रतिपादन किया है।

प्रसूति में भी हिप्नोटिज्म का प्रयोग सफल रहा है। इस दिशा में अनेक मेडिकल अधिकारियों का नाम उल्लेखनीय है। इसमें डाँ. वान ओटिजर, डाँ. जे. रेफ्लर, शूल्ज तथा डाँ. मार अति प्रसिद्ध है। इन चिकित्सा विशेषज्ञों ने बिना वेदना के प्रसव कराने में आशातीत सफलता पाई। कई महिलाएँ जिनकी प्रसूति पहले आपरेशन से हुई थी, इस विधि द्वारा सहज रूप से सम्पन्न हो गई। डाँ. विन के अनुसार जिस परिमाण में सम्मोहन कर्ता के प्रति सम्मान तथा विश्वास रोगी का होगा, उसी मात्रा में वह लाभान्वित हो पायेगा।

प्रख्यात वैज्ञानिक मोडाट्रियूज तथा काउण्ट पुलीगर ने अपने अनुसंधानों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि प्राण शक्ति द्वारा रोग उपचार तो एक हल्का सा प्रयोग मात्र है। वस्तुतः उसके उपयोग बहुत ही उच्चस्तर के हो सकते हैं। उसके आधार पर मनुष्य अपने निज के व्यक्तित्व में बहुमुखी प्रखरता उत्पन्न कर सकता है। प्रतिभाशाली बन सकता है। आत्म विकास की अनेक मंजिलें पार कर सकता है, पदार्थों को प्रभावित करके अधिक उपयोगी बनाने तथा इस प्रभाव से जीवित प्राणियों की प्रकृति बदलने के लिए भी प्रयोग किया जा सकता है। जर्मन विद्युत विज्ञानी रीकन बेक इसे एक विशेष प्रकार की “ अग्नि “ मानते है। उसका बाहुल्य वे वे चेहरे के इर्द-गिर्द मानते हैं और “ हीलिंगआँरा “ ना देते हैं। प्रजनन अंगों में उन्होंने इस अग्नि की मात्रा चेहरे से भी अधिक परिमाण में पाई है। दूसरे शोधकर्ताओं ने नेत्रों तथा उँगलियों के पोरुवों में उसका अधिक प्रवाह माना है।

प्राणशक्ति के वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में अभी प्राथमिक जानकारियां ही उपलब्ध हो सकी हैं। उसके थोड़े से सूत्र निर्धारित किये गये हैं ओर यत्किंचित् उपयोग उपचार जाने गये हैं। आत्मविज्ञानी मानवी सम्मोहन रूपी इस अद्भुत सामर्थ्य की गरिमा आरम्भ से ही गाते रहे हैं और कहते हैं कि जो प्राण विद्या को जान लेता है, उसके लिए इस संसार में ऐसा कुछ भी अनुपलब्ध नहीं रह जाता जो समृद्धि, प्रगति और सुख शान्ति के लिए आवश्यक है।


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