संगीत से होता है सद्भावनाओं का उभार

July 1988

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

संगीत का मनुष्य जीवन को सरस बनाने में बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। यह मात्र मनोरंजन नहीं है। यदि उसे भावनाओं और प्रेरणाओं से अनुप्राणित किया जा सके तो इसका परिणाम न केवल गाने सुनने वालों के लिए वरन् सुविस्तृत वातावरण को श्रेयस्कर परिस्थितियों से भरा-पूरा बनाने में सहायक हो सकता है। मानव की कोमल भावनाओं को झंकृत, तरंगित करने और उसमें देवत्व का उदय करने में गायन वादन महती भूमिका निभा सकता है। यदि संगीत का अस्तित्व मिट जाय तो दुनिया बड़ी नीरस, रूखी और कर्कश प्रतीत होने लगेगी। सामान्य पशुओं की अपेक्षा मनुष्य को जो आनन्दमयी स्थितियाँ प्राप्त हैं उनमें साहित्य, संगीत और कला का बहुत बड़ा योगदान है।

कोलाहल और समस्याओं से घनीभूत संसार में यदि ईश्वर का कोई उत्तम वरदान मनुष्य को मिला है तो वह संगीत ही है। इससे पीड़ित हृदय को शाँति और सन्तोष मिलता है। भाव प्रवण गायन से मनुष्य की सृजन शक्ति का विकास होता और आत्मिक प्रफुल्लता मिलती है- सामूहिक संगीत के महत्व पर अनुसंधानरत चिकित्साविदों का मत है कि जब कई व्यक्ति एक साथ गाते हैं तो सब लोगों का स्वर प्रवाह एवं आन्तरिक उल्लास मिलकर एक ऐसी तरंग शृंखला उत्पन्न करता है जो वातावरण में मिलकर सबको उल्लासित कर देता है। फाल्गुन के महीने में फाग की धूम होती है तब बच्चे, बूढ़ों में भी उल्लास फूट पड़ता है और वे युवकों की तरह प्रफुल्लित दिखायी देने लगते हैं। सामूहिक गायनों में सभी को अपने प्रयत्न से अधिक ही लाभ मिलता है परन्तु उन स्वर लहरियों से वातावरण में जो प्रकंपन पैदा होता है वह व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करता है जिससे प्रत्येक श्रोता चाहे वह गाने में भाग न भी ले रहा हो, उस आनन्द सरोवर में डूब जाता है। कभी वर्षा ऋतु में भारत के गाँव-गाँव में मेघ मल्हार राग गाया जाता था जो कठोरतम हृदय में भी प्रेम और उल्लास-आनन्द का झरना प्रस्फुटित-प्रवाहित करने में सफल होता था।

गाने की धुनों के साथ हाथ-पाँव अनायास ही गति करने लगते हैं, इसका तात्पर्य ही यह है कि संगीत का मनुष्य जीवन और आत्मा से सीधा संबन्ध है। आत्मा उसके बिना कुण्ठित हो जाती है। इसलिए आत्मिक प्रगति के प्रत्येक इच्छुक को गाने और संगीत सुनने का लाभ अवश्य लेना चाहिए। वैज्ञानिकों का भी ध्यान अब इस ओर आकृष्ट हुआ है। पाश्चात्य जगत में विज्ञान की तरह ही संगीत पर भी अनुसंधान चल रहा है और अब तक जो निष्कर्ष निकले हैं वह मनुष्य को इस बात की प्रेरणा देते हैं कि यदि मानवी गुणों और आत्मिक आनन्द को जीवित रखना है तो उसे अपने आपको संगीत से जोड़े रहना चाहिए। इसकी तुलना प्रेम से की गई है। दोनों पर ही इनका चमत्कारिक प्रभाव पड़ता है।

संगीत में शरीर, मन और आत्मा तीनों को बलवान बनाने वाले तत्व परिपूर्ण मात्रा में विद्यमान हैं। इसी कारण भारतीय आचार्यों और मनीषियों ने संगीत शास्त्र पर सर्वाधिक जोर दिया है। सामवेद की स्वतंत्र रचना उसका प्रमाण है। भक्ति भावनाओं के विकास में संगीत का योगदान असाधारण है। ऋग्वेद (8/33/2) में कहा गया है - “ कि तुम यदि संगीत के साथ ईश्वर को पुकारोगे तो वह तुम्हारी हृदय गुहा में प्रकट होकर अपना प्यार प्रदान करेगा”। शास्त्रों में उल्लेख है- “स्वरेण सल्लयेत योगी “ अर्थात् स्वर साधना द्वारा योगी अपने को तल्लीन करते हैं। इस प्रकार एकाग्र की हुई मनः शक्ति को विद्याध्ययन से लेकर किसी भी उच्चस्तरीय प्रयोजन में लगाकर चमत्कारिक सफलतायें प्राप्त की जा सकती हैं। ईश्वर प्राप्ति का उपयुक्त साधन बताते हुए ऋग्वेद में आगे (9/85/3) में कहा गया है कि -” अनेक मनीषीगण परमात्मा की ओर संगीतमय स्वर लगाते हैं और उसी के द्वारा उसे प्राप्त करते हैं “। कार्लाइल भी कहा करते थे - “ संगीत के पीछे-पीछे खुदा चलता है।”

योगशास्त्रों में संगीत की बड़ी चर्चा है। तत्ववेत्ताओं का कथन है कि अदृश्य जगत की सूक्ष्म प्रणाली पर जिधर भी दृष्टि डालते है, उधर ही यह प्रतीत होता है कि एक दिव्य नाद से सभी दिशाएँ और विश्व भुवन झंकृत हो रहा है। यह स्वर लहरियाँ वीणा, भ्रमर, झरना, वंशी आदि की तरह सुनाई देती हैं। जिस तरह सर्प बीन की धुन को सुनकर मस्त हो जाता है, उसी तरह चित्त उन स्वर लहरियों में आसक्त होकर सभी प्रकार की चपलताएँ भूल जाता है। नाद में संलग्न होने पर मन ज्योतिर्मय हो जाता है और जो स्थिति कठिन साधनाओं से भी कठिनाई से मिलती है, वह स्वर योग के साधक को अनायास ही मिल जाती है।

अब इस संबन्ध में पाश्चात्य विद्वानों की मान्यतायें भी भारतीय दर्शन की पुष्टि करने लगी हैं। विश्व विख्यात गायक एनरिको कारुसो लिखते हैं- जब कभी गायन की मधुर स्वर लहरियाँ मेरे कानों में गूँजती, मुझे ऐसा लगता मानों मेरी आत्म चेतना किसी अदृश्य जीवन दायिनी सत्ता से सम्बद्ध हो गयी है। मैं शरीर की पीड़ा भूल जाता, भूख-प्यास और निद्रा टूट जाती, मन को विश्राम और हल्कापन मिलता। मैं तभी से सोचा करता था कि सृष्टि में संगीत से बढ़कर मानव जाति के लिए और कोई दूसरा वरदान नहीं है। कारुसो ने जीवन भर इसकी साधना की और उसमें अभूतपूर्व सिद्धियाँ पायीं। उन्होंने स्वर मधुर न होने पर भी यह प्रमाणितकर दिखाया कि संगीत का सम्बन्ध स्वर से नहीं हृदय और भावनाओं से होता है। कोई भी मनुष्य अपने हृदय को जाग्रत कर परमात्मा के इस वरदान से विभूषित हो सकता है। इस संदर्भ में डाँ. लीक का कथन है कि यदि संगीत को एक दैनिक शारीरिक एवं मानसिक आवश्यकता के रूप में स्वीकार किया जा सके तो मनुष्य जाति का बहुत हित साधन हो सकता है।

प्रख्यात दार्शनिक पाइथागोरस की मान्यता थी कि संगीत स्वास्थ्य संरक्षण, चरित्र गठन और आत्मिक प्रगति के इन प्रयोजनों को पूरा कर सकने में समर्थ है। यह आत्मोन्नति का भाव संवेदनाओं के उन्नयन का मानसिक प्रसन्नता का सबसे अच्छा उपाय है, इसलिए हमेशा वाद्ययंत्र के साथ गाना चाहिए। इस सम्बन्ध में महर्षि रवीन्द्रनाथ टैगोर का कहना है- “ स्वर्गीय सौंदर्य का कोई साकार रूप और सजीव प्रदर्शन है तो उसे संगीत ही होना चाहिए।” वे कहा करते थे- “ संसार मुझसे चित्रों में बात करता है - मेरी आत्मा के उत्थान, चरित्र की दृढ़ता और सुरुचि के विकास का महत्वपूर्ण साधन माना है।

संगीत की प्रेरणा और प्राण शक्ति इतनी महत्वपूर्ण एवं क्षमता सम्पन्न है कि इसके उपयोग से निराश जीवन को आशा और सन्तोष तथा व्यथित ओर परिक्लान्त जीवन को शाश्वत शान्ति की ओर अग्रसर किया जा सकता है। विद्वान ए.हन्ट के अनुसार संगीत टूटे हुए हृदय की औषधि है। कहा जाता है कि विश्वविख्यात भौतिकविद् आइन्स्टीन ने जब अपने आविष्कारों का दुरुपयोग परमाणु विभीषिका के रूप में देखा तो वह अन्दर से टूट गये। निराश जीवन के अंतिम क्षणों को उन्होंने वायलिन वादन के सहारे काटा। मानसिक एकाग्रता और जागरुकता के विकास में गायन वादन महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते है।

हास्य रस, वीर रस, श्रृंगार रस, शान्त रस आदि नौ रस गायन के माने गये हैं। उनके लिए विशेष राग–रागनियां और विशेष समय का निर्देश किया गया है। समय, राग और रस - इनके संमिश्रण से एक विशेष प्रकार का ध्वनि प्रवाह उत्पन्न होता है और उससे अनेकों मानसिक रोगों की चिकित्सा हो सकती है। प्रातः काल गाये जाने वाले राग भारती और राग भैरवी आदि से भक्ति रस का प्रादुर्भाव होता है जिससे स्वास्थ्य और मानसिक शुद्धता की प्राप्ति होती है। संगीत सुनकर कई व्यक्तियों को वैराग्य हो जाता है। युद्धों में तो वीर रस युक्त संगीत का सदा से प्रयोग होता रहा है। सैनिकों में शौर्य, साहस एवं लड़ने का उत्साह पराक्रम जगाने में वाद्यों की उपयोगिता सदैव स्वीकारी जाती रही है। युद्ध वाद्यों की शृंखला में अब ऐसे वाद्य उपकरणों का भी आविष्कार कर लिया गया है जिनकी ध्वनि प्रवाह से सैनिकों को मानसिक रूप से पंगु बनाया जा सकता है। महाभारत के सूत्रधार भगवान कृष्ण ने स्वयं पाँचजन्य नामक शंख बजाकर कौरव दल का दिल दहला दिया था।

मनुष्यों तक ही संगीत का प्रभाव सीमित नहीं है वरन् उसे पशु-पक्षी भी बड़े चाव से पसन्द करते है और प्रभावित होते हैं। गायन-वादन सुनकर प्रसन्नता व्यक्त करना और उसका आनन्द लेने के लिए ठहरे रहना यही सिद्ध करता है कि तुच्छ समझे जाने वाले प्राणियों को भी वह रुचिकर एवं उपयोगी प्रतीत होता है। बीन की धुन पर सर्पों एवं हिरन-मृगों के नाचने-सम्मोहित होने की बात सर्वविदित है। नारद संहिता में कहा भी गया है -” पक्षी, भ्रमर, पतंगे, मृग आदि जीव-जन्तुओं को भी संगीत से प्रेम होता है। संगीत ब्रह्मांड व्यापी है।”

देखा गया है कि बेहिसाब उछल- कूद करने वाले चंचल प्रकृति के चूहा को भी मधुर वाद्ययंत्र मंत्र मुग्ध कर चुप कर देते हैं। मूर्धन्य चिकित्सा विज्ञानी डाँ. जार्ज केरविट्स ने पियानो की मधुर ध्वनि सुनाकर चूहों को शान्ति पूर्वक पड़े रहने के लिए बाधित करने के कितने ही प्रयोग किये हैं। सील मछली का संगीत प्रेम प्रसिद्ध है। कुछ समय पूर्व पुर्तगाल के नाविक वायलिन की धुन सुना-सुना कर इन मछलियों को आकर्षित करते थे। नाव के इर्द-गिर्द मंत्र मुग्ध एकत्र मछलियों को तब वे आसानी से पकड़ लेते थे। वन विशेषज्ञ जार्ज हृस्टे ने अफ्रीका के काँगो के जंगलों में पाये जाने वाले चिंपेंजी तथा गोरिल्ला जाति के बंदरों को वाद्ययंत्रों के साथ गायन के प्रति सहज ही आकर्षित होने वाली प्रकृति का पाया है। उनमें से कितनों को उनने इसके प्रभाव से पालतू जैसी स्थिति का अभ्यस्त बनने में सफलता पाई है। दुधारू पशुओं को दुहते समय सरस ध्वनि के प्रभाव से अधिक दूध देते देखा गया है।

संगीत का कठोर मन वालों पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है। त्रावणकोर के प्रसिद्ध वायलिन वादक कडिवेल्लु के जीवन में घटित एक घटना से इस तथ्य को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। वह प्रवास में कहीं जा रहे थे कि रास्ते में डाकुओं ने उन्हें लूट लिया। किसी तरह अनुनय विनय करके उनने डाकुओं से अपना वायलिन वापस ले लिया और वहीं बैठकर बजाने लगे। स्वर लहरी पर विमोहित डाकू भाव–विभोर हो गये और लूटा हुआ सारा सामान उन्हें लौटा दिया। कडिवेल्लु को कई दिन अपने साथ रखकर उस वादन का रसपान करते रहे और अन्त में बहुत सा पुरस्कार देकर ससम्मान उन्हें सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया। वस्तुतः संगीत से मनुष्य की किसी भी भावना को उत्तेजित किया जा सकता है और समाज में व्यवस्था स्थापित की जा सकती है। युवकों के चरित्र निर्माण में इसे एक अत्यन्त प्रभावशाली साधन के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है।

यहाँ यह स्मरण रखने योग्य है कि संगीत की उपयोगिता तभी है जब उसे उच्च उद्देश्यों के लिए प्रयुक्त किया जाय। कलाएँ दुधारी तलवार के समान है यदि उन्हें पशु प्रवृत्तियों को भड़काने के लिए काम में लिया जाय तो वे घातक भी कम सिद्ध नहीं होती। प्रायः आज यही स्थिति है। सस्ते सिनेमा संगीत ने उन महान शास्त्रीय उपलब्धियों को एक तरह से नष्ट करके रख दिया है। स्वर और लय की गति में बंधे भारतीय जीवन की समस्वरता जो तब थी, अब वह कल्पना मात्र रह गई है। संगीत के दुरुपयोग ने आज समाज में अवाँछनीय परिस्थितियाँ उत्पन्न की हैं वह कामुकता एवं कुत्साओं का पर्यायवाची बनता जा रहा है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि गायन-वादन के सनातन स्वरूप को स्थिर रखने के पूरे प्रयत्न किये जांय एवं उसे सदुद्देश्य के लिए प्रयुक्त होने दिया जाय।

संगीत की स्वर लहरियों में असाधारण शक्ति है। उसका दुरुपयोग करके जनमानस और समाज को दिग्भ्रान्त किया जा सकता है और सदुपयोग करके लोगों को कल्याण की प्रगति की दिशा में भी अग्रसर किया जा सकता है। कभी सूरदास, मीराबाई, चैतन्य महाप्रभु जैसे महान संतों ने इस सम्मोहिनी शक्ति का सदुपयोग करके जन-जन के मन में उत्कृष्टता के भक्ति भाव के बीज बोये थे। लोगों को अपने गुण कर्म स्वभाव को परिष्कृत करने को प्रेषित किया था। उनने गायन को सदाशयता से जोड़ा और उसे नीति सदाचार एवं मर्यादा पालन का पक्षधर बनाया था। सद्भावनाओं को उत्प्रेरित एवं विकसित करने वाला नृत्य एवं संगीत का सनातन तथा उज्ज्वल पक्ष ही ग्राह्य है। गायन-वादन, गीत-संगीत निश्चित रूप से प्रसन्नता की अभिवृद्धि करते हैं। इससे जहाँ शरीर को स्फूर्ति और बल की प्राप्ति होती है, वहीं हृदय, स्नायुओं, मन और भावनाओं को भी स्निग्धता से अनुप्राणित होने का अवसर मिलता है। मानसिक तनावों के निराकरण की यह अचूक औषधि भी है। सरस एवं भाव प्रधान गीत, भजन, कीर्तन, प्रार्थना आदि मानव हृदय को तरंगित कर उसमें दया, प्रेम, करुणा, उदारता, ममता, आत्मीयता, सेवा और सद्गुणों को जीवन का अनिवार्य अंग बना लेने पर तो आत्मिक कायाकल्प ही हो जाता है। संगीत आत्मा की प्यास है। इसके सुनियोजित उपयोग द्वारा जन-जन के मन को तरंगित कर सत्प्रेरणाएँ उभारी जा सकती हैं। यही नहीं मनोरोगों, मनोविकार, तनाव जैसी आधुनिक व्याधियों के लिए यह एक महत्वपूर्ण चिकित्सा पद्धति भी है। ब्रह्मवर्चस ने इस अनुसंधान को अपनी शोध प्रक्रिया का महत्वपूर्ण अंग बनाया है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118