अम्बपाली अपने समय की प्रख्यात सुन्दरी थी। उसके रूप लावण्य पर अनेकों मुग्ध रहते थे। उसका नृत्य गायन स्वर्ग की अप्सराओं जैसा था।
एक बार वह भगवान बुद्ध के उपदेश सुनने गई। जीवन की गरिमा और उसके सदुपयोग की आवश्यकता पर उसने बहुत कुछ सुना। आत्म चिन्तन किया। अपनी गतिविधियों के लिए मन ने धिक्कारा। वह शेष जीवन को सुधारने का विश्वास करके लौटी।
भगवान की शरण में वह दुबारा गई। उन्होंने साँत्वना दी और कहा-कि जो बीत चुका सो लौटने वाला नहीं। अब जो शेष रहा है उसी को सुधारना चाहिए। निर्णय यह हुआ कि उसे बौद्ध समुदाय में शिष्य होकर साधना करनी चाहिए और धर्म प्रचार में लग कर अनेकों को कल्याणकारक मार्ग दर्शन कराना चाहिए। बात समझदारी की थी सो अम्बपाली ने अपना ली और भिक्षु समुदाय में सम्मिलित हो गई।
अब दूसरा प्रश्न उभरा कि पिछले दिनों जो पाप कमाया है वह तो कुसंस्कार बना ही रहेगा। साधना को सफल न होने देगा। इसलिए पूर्व अनाचारों का प्रायश्चित भी आवश्यक है। प्रायश्चित का एक ही उपाय है कि जो गड्ढा खोदा गया है उसे भरा जाय। अनाचार का समापन पुण्य परमार्थ द्वारा किया जाय।
अब दूसरा प्रश्न उभरा कि पिछले दिनों जो पाप कमाया है वह तो कुसंस्कार बना ही रहेगा। साधना को सफल न होने देगा। इसलिए पूर्व अनाचारों का प्रायश्चित भी आवश्यक है। प्रायश्चित का एक ही उपाय है कि जो गड्ढा खोदा गया है उसे भरा जाय। अनाचार का समापन पुण्य परमार्थ द्वारा किया जाय।
अम्बपाली ने नर्तकी जीवन में प्रचुर सम्पदा कमाई थी। उसे धर्म प्रचार जैसे पुण्य कार्य में लगाया जाना आवश्यक था। उसने अपना समूचा संचय बौद्ध विहार के धर्म प्रचार के लिए दान कर दिया। स्वयं साधना रत होकर परिमार्जित हुई। और धर्म प्रचार के परमार्थ हेतु देश-विदेश में आजीवन प्रयत्न करती रही। नर्तकी अम्बपाली परम साध्वी कहलाई।