कैसा था पुरातन कालीन सतयुग?

July 1988

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मानवी उद्भव और विकास का क्रम भारत भूमि से आरंभ होता है। उसका केन्द्र बिन्दु आर्यावर्त रहा। आर्यावर्त अर्थात् गंगा यमुना का दुआबा। पौराणिक कथानकों में अवतारों का अवतरण एवं कार्य क्षेत्र यही रहा है। हिमालय को देव भूमि माना जाता है। उसका हृदय प्रदेश उत्तराखण्ड में ही है। इसी प्रयोगशाला में ऋषि-तपस्वी अपनी आत्मशक्ति को विकसित करके उसके दिव्य भण्डार बनते रहते हैं। स्वर्ग का संबंध इसी क्षेत्र से बनता है। स्वर्गवासिनी गंगा यहीं धरातल पर अवतरित हुई थी। सुमेरु शिखर पर देवताओं का वास बताया गया है। उसका प्रतीक भी हिमालय में विद्यमान है। नन्दन वन-कैलाश वाला हिमाच्छादित शिवलिंग अभी भी सर्व साधारण की पहुँच से परे है। स्वर्गारोहण के लिए पाण्डव उसी क्षेत्र में गये थे। सप्त ऋषियों की तपश्चर्या के लिए इसी भूमि को अपनाये जाने का इतिहास है। विश्व व्यापी अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र इसी को माना गया है। दिव्य वातावरण की विशेषता को देखते हुए ऋषि, तपस्वी यहीं डेरा डाले रहे हैं। ऋद्धि-सिद्धि का प्रकटीकरण यहाँ सरलता पूर्वक संभव होता रहा है। सतयुग के अवतरण का योजनाबद्ध कार्य-क्रम यहीं बना है। उसे अदृश्य से दृश्य के रूप में परिवर्तित कर सकने में समर्थ प्रतिभाओं का उद्भव परिपाक इसी क्षेत्र में होता रहा है। इसलिए सतयुग का आरण्यक केन्द्र बिन्दु तलाशने वालों को उसके साक्षी प्रमाण इसी क्षेत्र में मिलते हैं। स्वर्ग और सतयुग का मध्यवर्ती आदान-प्रदान सूत्र यहीं जुड़ता है। दशरथ का, अर्जुन का, नारद का स्वर्ग से आवागमन प्रसिद्ध है। इसका श्रेय किस भूमि को मिलना चाहिए इस हेतु हिमालय के ध्रुव केन्द्र को मान्यता देने से ही बात बनती है।

भगवान के दस अवतार आर्यावर्त में ही हुए हैं। पिछले तीन की तो स्थानीय स्मृतियाँ भवन-अवशेषों के रूप में विद्यमान हैं। अयोध्या राम की, मथुरा कृष्ण की, कपिलवस्तु बुद्ध की जन्म भूमि थी। इससे पूर्व वाले भगवान परशुराम उत्तर काशी में जन्मे। वहीं महर्षि जमदग्नि का आश्रम था। सप्तऋषियों की तपस्थली सप्त सरोवर के नाम से हरिद्वार में प्रख्यात है।

गोमुख से लेकर बद्रीनाथ तक की ऊपरी चोटियों वाला भाग स्वर्गोपम माना जाता है। इसके इर्द-गिर्द यक्ष, गंधर्व, किन्नरों के वंशज बसते हैं। नंदनवन गंगा के उद्गम गोमुख से कुछ ही ऊपर है। वास्तविक कैलाश शिवलिंग के रूप में यही दृष्टिगोचर होता है। गंगा ग्लेशियर का उद्गम वही है। इसे शिव का निवास माना जाता हे। ब्रह्म कमल और संजीवनी बूटी जैसी दिव्य वनौषधियां यहीं उगती है। सोम-बल्ली भी यहीं पाई जाती है। जिसका सोमरस पीकर देवत्व का आवेश चढ़ता था।

हिमालय का उत्तराखण्ड भाग देवताओं की लीला भूमि रहा है। ऋषियों की तपस्थली। उन्होंने इस स्थान को सूक्ष्म आध्यात्मिक शक्तियों से सराबोर देखकर चुना था। तीर्थों ने भी यहाँ अपनी प्रतिनिधि स्थलियाँ स्थापित की थीं। पंच प्रयाग, पंच काशी, पंच शक्ति पीठें, पंच ज्योतिर्लिंग यहाँ पुरातनकाल से ही अवस्थित हैं। गंगा यमुना का दुआबा, हरिश्चंद्र, वशिष्ठ, दधीचि, अर्जुन, हनुमान आदि का जन्म स्थल रहा है। चक्रवर्ती भरत शकुन्तला के गर्भ से कण्व आश्रम में जन्मे थे। राम के समकक्ष उनके दोनों पुत्र लव- कुश इसी प्रदेश में जन्मे थे। अन्यान्य अवतारों, देव पुरुषों, महामानवों, मुनि, मनस्वियों, शास्त्रकारों का उदय विकास इसी क्षेत्र में होता रहा है। अनादिकाल के अध्यात्म वर्चस्व के धनी व्यक्तियों को उसी उर्वर भूमि में जन्मने विकसित होने का सौभाग्य मिला है। इन्हीं सबने अपने-अपने ढंग से अपने-अपने हिस्से के दायित्व निबाहते हुए समस्त संसार में सतयुगी वातावरण विनिर्मित करने में असाधारण योगदान दिया।

पौधशाला में पौधे उगाये जाते हैं। जड़ पकड़ने योग्य हो जाने पर उन्हें उखाड़कर अन्यान्य उद्यानों में लगाया जाता है। वहाँ वे आरोपित होते, बढ़ते और पल्लवित विशाल वृक्ष के रूप में परिणत होते हैं। आर्यावर्त का क्षेत्रीय वातावरण ऐसा उर्वर समझा जा सकता हे कि जहाँ संसार भर से अधिक भारी भरकम दिव्यता फलती-फूलती रही है। काशी, प्रयाग, नैमिषारण्य, चित्रकूट, सारनाथ, श्रावस्ती आदि अगणित तीर्थों का दर्शन इस क्षेत्र में थोड़ी-थोड़ी दूर पर होता है। त्रिवेणी संगम को तीर्थराज कहा जाता है। जिस प्रकार इन सब पावन तीर्थों की भरमार इस प्रदेश में है उसी प्रकार महामानवों के नर रत्नों की खदान भी इस क्षेत्र को समझा जा सकता है। दक्ष, नागार्जुन, विश्वकर्मा, धन्वन्तरि आदि की यह भूमि है। कुँती ने देवपुत्र जने थे। अंजनी के हनुमान की जन्मकथा भी इसी प्रकार की है। यहाँ देवताओं और मनुष्यों के बीच सघन समागम रहा हैं।

यह चर्चा उद्गम केन्द्र की है। उसकी विशिष्टता और वरिष्ठता मानी जा सकती है। पर उनके क्रिया-कलापों को इतने ही क्षेत्र में सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता। वे समस्त विश्व में पृथ्वी के एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैले हुए देखे जा सकते हैं।

विविध विधि विकासों का विश्व इतिहास खोजा जाय तो प्रतीत होगा कि सभ्यता इसी क्षेत्र में जहाँ-तहाँ गई है और क्षेत्र तथा वातावरण के अनुरूप अपने विशिष्ट ढंग से विकसित होती रही है। फिर पुरातनकाल से विभिन्न क्षेत्रों में जो भाषायें बोली जाती थीं वे संस्कृत के शब्द भण्डार से ही क्षेत्रीय स्वरूप में विकसित हुई हैं। कला कौशल का जो विश्व इतिहास खोजा गया है उसका स्थानीय रूप कुछ भी रहा हो उद्गम एक ही है। एक ही शैली ने विभिन्न रूप धारण किये हैं। विज्ञान उद्योग का स्वरूप कहीं सामयिक आवश्यकता के अनुरूप कुछ भी क्यों न रहा हो उनकी मूल निर्धारणा एक ही है। विभिन्नता में झाँकती हुई एकता पाई जाती है। यह उद्गम की एकता पर ही निर्भर दीखती है। विज्ञान की विभिन्न धाराएँ, विभिन्न रूपों में, विभिन्न व्यक्तियों द्वारा आविष्कृत हुई दीखती है। पर वस्तुतः उसका आधार ऋग्वेद और अथर्ववेद हैं। आयुर्विज्ञान के मूलभूत सिद्धान्त आयुर्वेद से ही निकले हैं और चरक, सुश्रुत, वाणभटट् प्रभृति वैज्ञानिकों द्वारा वे क्षेत्रीय सुविधाओं, आवश्यकताओं एवं उपलब्धियों के आधार पर विभिन्न रूपों में गढ़े गये हैं।

इस प्रकार संसार भर से उपलब्ध तत्वज्ञान, धर्म, अध्यात्म, नीति, सदाचार, प्रथा प्रचलन से लेकर दैनिक जीवन में प्रयुक्त होने वाले साधनों तक की एक सुनिश्चित शृंखला है जिसका तारतम्य इस अस्त-व्यस्त स्थिति में भी उद्गम की एकता सिद्ध करता है। निश्चित रूप से यह सब पसारा भारत से ही उपजा और परिस्थितियों के अनुरूप जहाँ-तहाँ फैलता चला गया है। क्षेत्रीय रीति-रिवाजों में आज भारी भिन्नता पाई जाती है। पर उन प्रचलनों के आधारभूत कारण एक ही प्रतीत होते हैं। एक ही मान्यता का प्रयोग व्यवहार थोड़े अन्तर के साथ होने लगे तो इसे परिस्थितियों की भिन्नता ही समझा जा सकता है। किसी भी प्रसंग को लें। उसके विश्व व्यापी प्रयोगों का निरीक्षण परीक्षण करें और मूलभूत कारण आधार तलाश करें तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि यह पसारा एक ही बीज का बहुमुखी विस्तार है। बीज क्या है? उसके उत्तर में स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि भारतीय तत्व दर्शन। दैवी निर्धारणा से भरा-पूरा ज्ञान और विज्ञान। एक ही पिता के बच्चों में आकृति-प्रकृति की यत्किंचित् भिन्नता अवश्य पाई जाती है। विश्वव्यापी प्रथा, प्रचलन एवं प्रयोगों में अन्तर दीख पड़ने पर भी उनका आरंभ एक ही परम्परा से उपजा और अग्रगामी हुआ सिद्ध होता है।

प्रस्तुत भिन्नता और पृथकता मूलतः एकात्मता के साथ जुड़ी हुई क्यों है? इसे जानने के लिए यह समझना होगा कि सभ्यता की आरंभिक स्थापना जिन लोगों ने की उन्हीं ने उसे विभिन्न क्षेत्रों में उगाया, फैलाया। यह विस्तार कर्ता, उत्पादक कौन थे? इसका परिचय प्राप्त करने के लिए हमें सतयुग काल तक पहुँचना होगा और उस समय की ‘एकोऽहं बहुस्याम’ की आकाँक्षा में होता है। परब्रह्म ने एक से अनेक बनना चाहा और आकाँक्षा ने प्रेरणा और प्रवृत्ति का रूप धारण करके इसे विश्व ब्रह्मांड के स्थूल और सूक्ष्म परिकर को रच दिया है। परब्रह्म की मानवी चेतना ब्रह्मवर्चस होकर मनुष्यों में अवतरित होती है। ब्राह्मण यही वर्ग है। पुरोहित और परिव्राजक उसी के दो स्वरूप हैं। उनमें यदि धर्म धारणा और भौतिक प्रगति की महत्वाकाँक्षा उदय होती है तो यह स्वाभाविक ही है। उस उभार को यदि व्यापक बनाने की महत्वाकाँक्षा उमगी हो और विश्वव्यापी सुनियोजन के लिए मचल पड़ी हो तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है?

धरती का इतिहास तो चिर पुरातन है। उसे अनादि भी कह सकते हैं। उसका प्रारूप निश्चित करना कठिन है। उसे कल्प-कल्पान्तरों की तरह भी सोचा जा सकता है, पर निकटवर्ती सतयुग के संबंध में यह अनुमान सार्थक है कि वह ऋषि परम्परा की प्रधानता वाला समय रहा होगा। यह लम्बी अवधि रामायण, महाभारत काल पर आकर त्रेता-द्वापर के परिवर्तन पर समाप्त हुई होगी।

त्रेता शासन प्रधान था। द्वापर में अर्थ व्यवस्था का दौर रहा। कलियुग में उच्छृंखलता-आदर्शों के आदर्शों के प्रति अनास्था का बोल-बाला है। छूत की बीमारी एक से दूसरे को लगती है। ऋतु प्रभाव सभी को प्रभावित करता है। प्रचलन की चपेट में देखा-देखी अनेकों आते हैं। अमर बेल का एक टुकड़ा किसी पेड़ पर डाला जाता है तो वह फैल कर समूचे वृक्ष पर छा जाता है। युग परम्परा का विस्तार भी इसी प्रकार होता है। वह कुछेक प्रतिभाशालियों के द्वारा आविर्भूत होती है और फिर अपना कलेवर बढ़ाते हुए समूचे वातावरण को अपने शिकंजे में कस लेती है। सतयुग का विकास विस्तार भी इसी प्रकार हुआ। इस अवधि में सभी भावनाशील थे। संयमी और उदात्त। संकीर्ण स्वार्थपरता किसी को छू नहीं पाती था। सादा जीवन उच्च विचार का सब में समावेश था।

संतोषी और परिश्रमी अपनी आवश्यकताएं स्वयं पूरी कर लेते हैं। इसके उपरान्त भी उनके पास इतना कुछ बच जाता है कि दूसरों की सेवा सहायता कर सके। गिरों को उठा सकें और पिछड़ों को बढ़ा सकें। प्रतिभा वालों की उदारता और पिछड़ों की कृतज्ञता मिलकर सहज ऐसी स्थिति उत्पन्न करती है जिसे समता एवं एकता का समन्वय कहा जा सके।

सतयुग में सभी सम्पन्न थे। इसका अर्थ यह नहीं कि उनके यहाँ सोने-चाँदी के कोठार भरे पड़े थे। न्यूनतम आवश्यकता को पूरा करने के लिए सामान्य साधन जुट सकें और उतने भर से संतोष हो सके तो समझना चाहिए कि परिपूर्ण सम्पन्नता की उपलब्धि हो गई। संतोष की अनुभूति इस सार्थक सम्पन्नता की कसौटी है। अन्यथा असंतोषी कुबेर भी अपनी सम्पदा को अपर्याप्त कहता और दुर्भाग्य का रोना रोता रह सकता है।

सतयुग में सभी को जहाँ साधना के प्रति संतोष था वहाँ आकाश-पाताल वाली महत्वाकाँक्षाओं पर संयम भी। वासना तृष्णा का मदोन्मत्त हाथी संयम अपनाये बिना और किसी प्रकार काबू में नहीं आता। इन्द्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम, और विचार संयम अपनाते ही मनुष्य इतना सशक्त हो जाता था कि अपव्यय के रुकते ही वैभव का पर्वत सामने खड़ा हो सके।

हँसते-हँसाते जीना, दुःखों का बँटा लेना, सुखों को बाँट देना, हिलमिल कर रहना, उदार सहकारिता को चरितार्थ करना, ऐसा निर्धारण है जिसे अपनाते ही सतयुग सामने खड़ा हो सकता है और दूर-दूर तक उसका विस्तार हो सकता है। ऐसी ही थी पुरातनकाल की सतयुगी अवधि।


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