दिग्भ्रान्त मानवता को दिशा सुझाती उपनिषदों की वाणी!

July 1988

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भारतीय विचारधारा में उपनिषद् वांग्मय का स्थान महत्वपूर्ण है। इसमें मानव के समग्र विकास के मूलभूत सूत्र निहित है। काल की दृष्टि से भले ही इसे चिर पुरातन कहा जा, पर व्यवहार की दृष्टि से इसे चिर नवीन मानना ही उपयुक्त होगा। सच तो यह है कि यह देश-काल की संकीर्ण सीमाओं में तनिक भी आबद्ध नहीं है। इसका संदेश किसी धर्म विशेष-जाति विशेष अथवा देश विशेष के लिए सीमित न होकर सम्पूर्ण मानव जाति के लिए है। हर किसी को इसमें अपने विकास पथ का समुचित पाथेय उपलब्ध होता है।

इसमें निरूपित सिद्धान्त की गई विवेचनाएँ-व्याख्याएँ मात्र बौद्धिक तर्कणा अथवा मानसिक संकल्पना की उपज नहीं है। प्राचीन भारत के ऋषि कहे जाने वाले शोधकर्ताओं ने दिव्य चेतना प्राप्त करके अतीन्द्रिय व अतिमानसिक ज्ञान द्वारा सम्पूर्ण जीव-जगत के परमार्थिक स्वरूप को प्रत्यक्ष देखा था जिनकी सम्यक् सम्बन्ध चेतना के सामने परम सत्य ने अनावृत और अविदित रूप से अपने स्वरूप प्रकट किया था, उनकी दिव्य वाणियाँ ही संकलित और संग्रहित होकर उपनिषद् वांग्मय के रूप में मानव-समाज में प्रचारित है।

पौरुषष्टि, नाक, मौट्गल्य,ऐतरेय, बुडिल, शार्कराध्य,वामदेव, शाँडिल्य, दथ्यच, आरुणी, याज्ञवल्क्य आदि इन प्राचीनतम दार्शनिक आचार्यों ने रागद्वेष शून्य, हिंसा भय-घृणा विरहित, देहिन्द्रिय मन की आधीनता से मुक्त, जात्यभिमान, सम्प्रदायाभिमान, प्रकृति संकीर्णताओं से अतीत शुद्ध बुद्धि, समाहित चित हो सभी को विकास पथ पर आरुढ़ होने को बताया है तथा मानव जीवन के परम लक्ष्य की ओर प्रेरित किया है।

सच कहा जाय तो आज का मान दिग्भ्रमित है। उसे न तो अपने स्वरूप के बोध है, नहीं संसार की वास्तविकता का पता। जीवन का क्या लक्ष्य है? इस बारे में भी उसे कुछ नहीं मालूम है। वह तो मात्र देहेन्द्रिय सुख को प्रधान माना अपनी चेतना को इन्द्रिय और मन के अनुगत कर इस भवाटवी में भटक रहा है। इस मृगतृष्णा में कभी किन्हीं विषय वस्तुओं से सुख का आभास होता है, कभी अन्य प्रकार के पदार्थ उसे आकर्षित कर सुख प्राप्ति का आभास कराने लगे है। वह भी प्यासे मृग की तरह इधर-उधर भटकता, विषयों के नशे में चूर हो अपने स्वरूप से विमुख हो कभी हँसता, कभी रोता, कलपता जीवन के दिन गुजार देता है। पर सुख और शान्ति इनका दूर-दूर तक अता-पता नहीं रहता।

मानव मन की इस भ्रमित स्थिति का निवारण करने, भटकने से निकालने का कार्य उपनिषद् करते है। कठोपनिषद् का ऋषि सम्पूर्ण मानव जाति को अपने उद्बोधन में बताया है कि इस लोक में दो मार्ग है एक श्रेयस् दूसरा प्रेयस् मार्ग। ये दोनों विभिन्न मार्ग मनुष्य को अपनी ओर खींचने का प्रयत्न करते रहते है। इनमें से हमें श्रेयस् मार्ग

का अनुसरण करना चाहिए। जो श्रेयस् मार्ग का अनुसरण करता उसे अन्त में अपनी लक्ष्य सिद्धि प्राप्त होती है, तथा जो प्रेयस् मार्ग का अनुसरण करता है वह अपने उद्दिष्ट लक्ष्य को खो देता है। श्रेय और प्रेय दोनों ही मनुष्य के सामने उपस्थित होते है। बुद्धिमान मनुष्य इनमें से श्रेयस् मार्ग को चुनता है तथा मूर्ख प्रेयस् को चुनता है।

इस तरह उपनिषद् का ऋषि स्पष्ट करता है कि इन्द्रिय विषयों में चमक -दमक व सम्मोहन तो अवश्य है। मनुष्य स्वभावतः इनकी ओर आकर्षित भी होता है। पर यदि नित्यानित्य विवेक की दृष्टि से युक्त होकर दृष्टिपात किया जाय तो सम्मोहन के सारा जाल-जंजाल छिन्न-विच्छिन्न हो जाता है। यथार्थता प्रकट हो जाती है। बृहदारण्यक उपनिषद् संसार में रहते हुए इसमें लिपायमान होने तथा जीवनोद्देश्य की प्राप्ति का रहस्योद्घाटन करता हुआ बताना है-” जो संचय का जीवन व्यतीत करता है। वही लक्ष्य प्राप्ति करता है। दुष्कर्मों को परास्त कर दिया है। पाप उसे पीड़ित नहीं करता, क्योंकि उसने पापों को भस्म कर दिया है। दोषमुक्त, पापमुक्त अषुचिमुक्त, सन्देहमुक्त होकर वह समुचित रूप से ब्राह्मणत्व का अधिकारी हो जाता है।

छान्दोग्य उपनिषद् इसी स्थिति तथा साँसारिक विषयों सुखों की स्थिति में अन्तर स्पष्ट करते हुए बताता है। इन दोनों में आनन्द तो है। पर एक मैं है यथार्थ दूसरे में प्रतिभासित जिसे उसी तरह नहीं हस्तगत का जा सकता -जिस प्रकार दर्पण में पड़ने वाली अपनी परछाई को यह अल्पानन्द या अवास्तविक आनन्द आत्मा के अतिरिक्त अन्य पदार्थों के दर्शन श्रवण और ध्यान में है। “भूमा” आनन्द शाश्वत है। अल्पानन्द क्षणिक है। अतएव वास्तविक आनन्द की प्राप्ति के लिए मनुष्य को अपने असीम आत्म स्वरूप में प्रतिष्ठित होना चाहिए।

ठस ऋषि वाणी ने भूमण्डल के हर किसी भाग में रहने वाले सत्यान्वेषियों, विचारकों, चिन्तकों को समान रूप से प्रभावित का है। पूर्वी जगत की ही भाँति पश्चिम विद्वानों में उपनिषदीय वांग्मय पर गहन चिन्तन किया है। इन चिंतकों में बेबर, रोअर, मैक्समूलर, बोइटकलिन्क, विटने, डाँयसन, अल्डेन वर्ग, ओल्ट्रामेअर, हर्टेल, हलेब्रान्त आदि प्रमुख है। डाँयसाय का उपनिषद् विषयक ग्रन्थ उसकी महान विद्वता अध्यवसाय और प्रतिभा का प्रतीक है। इसी तरह स्टोरर का “उपनिषदीय अध्ययन” नामक ग्रंथ महत्वपूर्ण है। इसमें यह उदात्त कल्पना के गयी उपनिषद् ही विश्वधर्म की भावना प्रदान कर सकता है। उसने बताया है-”यदि विश्वधर्म का स्वप्न सत्य हो और हमारे पास विश्व का एक ही विज्ञान है और ईश्वर का पितृत्व और मनुष्य का बन्धुत्व सत्य हो तो ऐसे कुटुंब के लिए केवल एक आत्मिक एकता का बन्ध नहीं सम्भव है। एस0डी0 ग्रिस वोल्ड ने “भारतीय दर्शन के इतिहास में एक अध्ययन “में उपनिषदों के ब्रह्मवाद के विस्तृत विवेचन के साथ उसके धार्मिक नैतिक और तात्विक निष्कर्षों की विस्मय विमुग्ध होकर प्रशंसा की है।

ठन विचारकों ने इसका चरम लक्ष्य आध्यात्मिक माना है तथा इसके सामने अन्य सभी अभिप्राय गौण ठहराये है। डॉ. गोल्डस्ट्कर ने कहा है कि उपनिषद् भारत के उच्च और सुसंस्कृत धर्म के आधार है। पै्रट उपनिषदों को उत्कृष्ट धार्मिक शास्त्र मानता है। गोडेन यह स्वीकार करता है कि भारत के प्रत्येक धार्मिक पुनविर्धान का उदय उपनिषदों के अध्ययन से ही आ। मीड़ ने तो निःसंकोच भाव से बिना किसी हिचकिचाहट के इन्हें विश्वधर्म का शास्त्र घोषित किया है।

उपर्युक्त कथन यह स्पष्ट करते है कि ये पश्चिमी विचारवेत्ता इनको किस आध्यात्मिक दृष्टि से देखते रहे। यह आध्यात्मिकता आज धूमिल हो गयी है। ऐसा नहीं है। यह तो नित्य और चिरंजीवी है। आज मानव समाज में जो वैषम्य छाया है उसे इसी तत्व चिंतन में निहित प्राणदायी विचार जड़-मूल से निरस्त कर सकते है। इसके अपनाने से अभिमान ममता -राग और द्वेष, शत्रु-मित्र का भेद बोध अपने-पराए का भेदभाव, हिंसा घृणामय एवं विषय विशेष के प्रति कामना प्रभृति सारे के सारे उसी तरह विनष्ट हो जाएँगे जिस तरह सूर्य के उदय होने से अंधकार।

ये तो भी तक है जब तक हम अपने को भूले इन्द्रिय मन की गुलामी कर रहे है। जिस तरह सिंह-शावक भेड़ों के झुण्ड में पड़ अपने को भेड़ ही समझने लगा था पर जैसे ही एक अन्य सिंह ने उसे आत्म बोध कराया वैसे ही उसने जोरदार गर्जना की सारी भेड़े तितर–बितर हो गई। वही भेड़े जो उसे अपन से छोटा ओर निम्न समझ काम कराया करती थी सामने आन पर भी कतराने लगी। ठीक यही दशा हमारी भी है। इन्द्रिय, मन की भेड़ों के समूह में डरे दुबके उनकी अधीनता स्वीकार कर गुलामी किए जा रही है। जो इन्द्रिय जिस विषय की इच्छा करती है। भयवश आदेश मानकर उसी की प्राप्ति हेतु दौड़ लगा देती है। इस भागदौड़ में जीवन नष्ट होता जा रहा है।

उपनिषद् हमें ऋषियों का संदेश सुना इस गुलामी से मुक्त होने को कहते है। उसका स्पष्टीकरण है इस मुक्ति का राज पौरुष और वीरता है “वीणोव करत सगता मुक्ति न वा का पुरुषाणा” इनमें निहित सूत्रों के अनुसार अपने जीवन को ढालने में पुरुषार्थ युक्त हो प्रयासरत हो जाएँ तो इन्द्रियों साँसारिक विषयों से- ‘‘निर्गच्छति जगज्जाजात पि0जरादिव केशरी।” पिंजरे से मुक्त हुए सिंह के सदृश बाहर असीम में विहार करने लगेंगे।

ऋषिवाणी श्रणवन्त विश्वा अमृतस्य पत्राँः की गुहार लगा रही है। वह हमारी मोह निद्रा के त्यागने के लिए “उतिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत” का उद्बोधन मंत्र सुना रहीं है। इस संदेश को सुने और समझे ही ही तद्नुरूप आचरण व्यवहार में भी जुट जाए। ऐसा करने से सारा भेद-विसंवाद नहीं रह जाता। यथार्थ के बोध आत्मानुभूति होने से सारा विश्व” सर्वखल्विदं ब्रह्म” का स्वरूप होकर ब्रह्मधाम, सच्चिदानन्द धाम सौंदर्य-माधुर्य सिन्ध बनर आस्वाद्य हो जाता है इस “अयमात्म् ब्रह्म” के रहस्य को समझने से सत्यं ज्ञानम् नन्तम् ब्रह्म में विभोर हो जायेगा। उस रसौ वै सः के रसामृत से परितृप्त हो स्वयं तो कृतकृत्य होते है दूसरों के लिए भी प्रेरणा पुंज प्रकाश स्तम्भ के तरह मार्ग दर्शक हो उनकी आत्मिक प्रगति का पथ प्रशस्त कर उन्हें भी धन्य बना सकेंगे।


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