सिद्धों की सहायता सदैव पुण्य प्रयोजनों के लिये

July 1988

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मादक द्रव्यों के भाँति सम्पदाओं का भी एक नशा होता है। जिन्हें असाधारण रूप से बल, वैभव, पद, गौरव आदि मिलता हे वे अहंता की मादकता से उन्मत्त जैसे हो जाते हैं। मर्यादाओं को तोड़ने, वर्जनाओं की उपेक्षा करने और अपराधी स्तर के उद्धत आचरणों में निरत होने लगते हैं। अनुकरण की छूत एक से दूसरे को लगती है। अनाचार उत्पीड़न की प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। प्रतिशोध, प्रति-प्रतिशोध का क्रम चल पड़ता है। नियति भी उद्धतों का प्रताड़ना किये बिना चैन से कब बैठती है? मन स्थिति में घुसी हुई विषाक्तता परिस्थितियों में विद्रोह के तत्व उभारती है। संघर्ष खड़े होते है। साथ ही प्रकृति भी अनेकानेक प्रतिकूलताएँ विपत्तियाँ विभीषिकाएँ बरसाने लगती हैं। अशान्ति के अनेकानेक विस्फोट फूटने लगते है। वातावरण संकटों, असंतोषों अभावों से भर जाता है।

मनुष्य चाहे तो चिन्तन, चरित्र, व्यवहार की उत्कृष्टता बनाये रहकर सुख शान्ति का माहौल बनाये रह सकता है। स्नेह सहयोग की नीति अपना कर हँसती-हँसाती जिन्दगी जी सकता है। जितने साधन उपलब्ध हैं मिल बाँटकर खाते हुए प्रगति और प्रसन्नता भरपूर मात्रा में उपलब्ध कर सकता है। पर वह ऐसा करता नहीं है। क्षुद्रता जब भी साधन सम्पन्न होती है तभी विष उगलती है। कुमार्ग अपनाने का प्रतिफल विपत्तियों और विग्रहों के रूप में ही सामने आ सकता है।

यही सब बार-बार होता रहता है। अनैतिकता की अराजकता बार-बार उभरती रहती है। समुद्र में ज्वार और पवन में तूफान आने की तरह जब मानवी क्रिया–कलापों में अनैतिकता की अराजकता उभारती है तो विश्व संतुलन बिगड़ने लगता है। यदि वह उसी रूप में चलता रहे तो महाविनाश जैसे विग्रह खड़े होते है। इनकी रोक थाम आवश्यक है। असंतुलन को संतुलन में बदलने से ही बात बनती है। उफानों को रोकने के लिए चूल्हे में जलती अग्नि बुझानी पड़ती है और उफनते झागों में पानी डालना पड़ता है। इसकी व्यवस्था भी नियन्ता ने बना रखी है। सृष्टि संतुलन की जिम्मेदारी देवात्माओं सिद्ध पुरुषों को सौंपी है। उनकी विशिष्टता का उपयोग इसी में है कि सृष्टि के बिगड़ने वाले संतुलन को समय-समय पर नियंत्रित करते रहें। प्रगति के मार्ग में आये हुए अवरोधों को हटाते रहें। यह एक प्रकार से स्रष्टा का हाथ बँटाना है। विश्व उद्यान के मालियों को यही करना पड़ता है। वे उसे समुन्नत बनाने के लिए खाद पानी की व्यवस्था करते, खरपतवारों को उखाड़ते और उजाड़ने वाले तत्वों से निपटते हैं। देवात्माओं की शक्ति सामर्थ्य इसी प्रयोजन में निरत रहती है। वे अधर्म के उन्मूलन और धर्म के संस्थापन वाली ईश्वरीय इच्छा को पूर्ण करने में अपनी सत्ता और क्षमता को होमते रहते है। गिरों को उठाते, उठने वालों को बढ़ाते, भटकों को राह दिखाते और पीड़ितों की सहायता करते हैं। आत्मा की गरिमा इसी में है कि वह अपना दुलार बिखेरे और वैभव को बाँटें। अनीति से निपटे। नीति को बनाये और बिगड़े हुए संतुलन को बनाये। देवात्माएँ यहीं करती रहती है। अपनी अपूर्णता दूर करने के लिए योग तप का आश्रय लिया जाता है। साथ ही जो कुछ उच्चस्तरीय वैभव प्राप्त होता है उसे सत्प्रवृत्ति संवर्धन में लगाया जाता है। सिद्धपुरुषों का यही एकमात्र क्रिया−कलाप रहता है। वे बादलों की तरह सुसम्पन्न बनते है और अपनी विभूतियों को आवश्यक प्रयोजनों के लिए भूखंडों पर बरसा देते हैं।

सिद्ध पुरुष इसी के लिए अवसर की तलाश में रहते हैं। जहाँ अपने सहयोग की आवश्यकता समझते हैं वहाँ उसे बिना माँगें अहेतुकी कृपा के रूप में मुक्तहस्त से बिखेर देते है। साथ ही ऐसे सुसंस्कारी व्यक्तित्वों को भी ढूंढ़ते रहते हैं जिन्हें सामान्य से असामान्य बनाकर अपने ऊपर लदे हुए दायित्वों में भागीदार बनाने के लिए सहयोगी स्तर तक विकसित किया जा सके। साधक ऐसे ही व्यक्तित्वों को कहते हे। पुण्य परमार्थ की उमंगों को उभारना ही साधना है। साधकों को सिद्धों की और सिद्धों को साधकों की आवश्यकता पड़ती हैं दोनों एक दूसरे को खोजते हैं। संयोग मिल जाने पर अंधे पंगों का संयोग बना कर अपूर्णता को पूर्णता में बदलते हैं।

सिद्धपुरुष सूक्ष्म शक्ति प्रधान होते है उनका सूक्ष्म शरीर प्रखर होता है। साधक की स्थिति स्थूल शरीर में समाहित होती है। स्थूल को वरिष्ठता सूक्ष्म के संयोग से प्राप्त होती है। काया की वरिष्ठता प्राण बाहुल्य से है। साधक को काया और सिद्ध को प्राण कहा जा सकता है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एकाकी सिद्ध मात्र सूक्ष्म होने से प्रत्यक्ष हलचलों के संयोजन में असमर्थ रहता हैं। इसी प्रकार एकाकी साधक प्राण शक्ति की न्यूनता के कारण वैसा कुछ कर नहीं पाता जिसे अलौकिक या चमत्कारी कहा जा सके। ऐसा बन पड़ना दोनों के संयोग से ही संभव होता है। इसलिए सिद्ध साधकों को और साधक को तलाशते देखे गये हैं। जब यह संयोग मिल जाता है तो दोनों पक्ष कृतकृत्य हो जाते है। दो पहियों की गाड़ी सरपट दौड़ने लगती हैं।

सिद्ध पुरुषों का प्रधान कार्य सृष्टि का संतुलन बनाये रहना है। इसके लिए उन्हें साथी सहयोगियों की आवश्यकता पड़ती है इसलिए उत्सुकता पूर्वक सत्पात्र साधकों को तलाशते रहते हैं। साधकों के लिए अपने बलबूते अधिक कुछ कर सकना संभव नहीं होता। बालक को अभिभावक का अध्यापक का सहयोग चाहिए। इसके बिना एकाकी निर्वाह या विकास बन नहीं पड़ता। साधक भी उच्चस्तरीय उत्कर्ष के लिए समर्थ सहयोगी की आवश्यकता अनुभव करता और उसे खोजता है।

साधक और सिद्ध आदर्श मार्ग के दो पथिक हैं। दोनों ही दो बैलों की तरह एक जुए में जुतते हैं जिसका ढाँचा विश्व संतुलन का परिवहन करते रहना है। एक दूसरे का सहयोग पाकर कृतार्थ भी होते है और सच्चे मन से सहयोग भी करते हैं। पहुँचना तो दोनों को एक ही गन्तव्य पर है।

इसके विपरीत एक ऐसी अड़चन भी है जो दोनों के बीच कभी सच्चा सहयोग बनने ही नहीं देती। वह है ललक लिप्सा। कामना, स्वार्थपरता। देखा गया है कि तथाकथित आध्यात्मवादियों में से अधिकाँश ऐसे होते हैं जो सम्पन्नता सफलता के भौतिक प्रयोजनों के लिए किन्हीं देवताओं अथवा देवपुरुषों का श्रम उपार्जित वर्चस्व मुफ्त में ही लूटना चाहते है। इसके लिए अपने को भक्त सिद्ध करने का मुखौटा लगाते हैं। आकुल व्याकुल फिरते हैं।

भक्त वेशधारी जो भी सोचते हो पर देवात्माओं की अंतर्दृष्टि आर पार जाने वाली होती है। उन्हें वस्तु स्थिति समझने में कभी भ्रम नहीं होता। उन्हें किसी बहाने फुसलाया नहीं जा सकता।

जिसके नाम की चिट्ठी होती है पोस्टमैन उसका घर तलाशता हुआ स्वयं पहुँच जाता है। खिले फूल की गंध पाकर भौंरे, तितलियाँ, मधु मक्खियाँ स्वयं ही दौड़ जाती हैं, इसी प्रकार जिन आत्माओं में उदात्त चिन्तन आदर्श चरित्र, स्नेह, सद्भाव का विकसित स्वरूप दीख पड़ता है उन्हें सिद्धपुरुष अपने लिए उपयोगी मान लेते हैं और उन्हें समीप लाने के लिए अर्जित विभूतियों द्वारा निहाल करने के लिए स्वयं ही उन्हें खोज लेते हैं। उनके घर पर जा पहुँचते हैं। विवेकानन्द के घर रामकृष्ण परमहंस स्वयं पहुँचे थे। शिवाजी से समर्थ गुरु रामदास ने किसी बहाने स्वयं संपर्क बनाया था। चाणक्य और चन्द्रगुप्त का सुयोग भी इसी प्रकार बना। ऐसे सुयोग घर जाकर भी बनाये जा सकते हैं और अपने आकर्षण से कहीं बाहर बुलाकर उनसे संपर्क साध जा सकता है। हर हालत में परख, चयन, आमंत्रण, आकर्षण समर्थ शक्तियों का ही होता है। अनुग्रह कर्ता तो निमित्त मात्र होते हैं।

कई कौतूहल को कसौटी मान कर उनकी तलाश में निकलते हैं और कामनाएँ पूरी कराने के लिए उनका अनुग्रह चाहते हैं। वे भूल जाते हैं कि कोई निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए किसी पर किस लिए अनुदानों की वर्षा करेगा? परमार्थ के लिए तो उदारचेता बड़े-बड़े दान दे देते हैं। हरिश्चन्द्र, दधीचि, शिवि, भामाशाह आदि ने जब उच्च प्रयोजन सामने खड़े देखे तो उनकी झोली भर दी। पर हट्टे कट्टे भिखारी जब कोई बहाना बना कर भीख माँगने निकलते है तो उन्हें दुत्कार ही मिलती है। आध्यात्म क्षेत्र में समर्थों के विशिष्ट अनुदान सत्पात्रों को मिलने की परम्परा रही है। लालची, स्वार्थी जब मतलब गाँठने के लिए भीख माँगने या जेब काटने के लिए अपने को अध्यात्मवादी लबादे में लपेटते है तो उनकी पोल तत्काल खुल जाती है। ऐसे लोगों को निराश होकर ही वापस लौटना पड़ता है।

जिन लोगों ने इस प्रकार की खोज में लम्बी दौड़ धूप की है वे निराश होने पर अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए मन गढ़ंत कहानियाँ बना लेते हैं और परिचित लोगों के आगे सिद्धों से भेंट के लम्बे चौड़े किस्से सुनाते हैं। इस कौतुक को सुनने से किन्हीं का मनोरंजन तो हो सकता हैं। आरम्भ में कुछ समय के लिए असमंजसयुक्त विश्वास भी कर लेते हैं पर वस्तुस्थिति प्रकट होने में देर नहीं लगती जब व्यक्तित्व और व्यवहार में किन्हीं उच्चस्तरीय गतिविधियों का समावेश नहीं दीखता तो वे समझ लेते हैं कथन में प्रपंच मात्र था। पारस को छूकर लोहा सोना बन जाता है। स्वाति की बूँद से संपर्क होने पर सीप मोती बन जाती है। चन्दन वृक्ष के समीप उगने वाले झाड़ झंखाड़ महकने लगते है तो कोई कारण नहीं कि सिद्धपुरुषों की अनुकम्पा पाने वाला घटिया जीवन जीता रहे और बचकानी प्रवृत्तियों के बाड़े में कैद रहे।

सिद्ध पुरुषों का उद्देश्य किन्हीं लालची अहंकारी लोगों की कामनाएँ पूरी करते फिरना नहीं है। न वे इसके लिए अपनी तपस्या को कूड़े के ढेर पर बखेरते हैं। उनकी स्वयं की सत्ता उत्कृष्टता का परिपोषण करने के लिए समर्पित हुई तो वे अपने बहुमूल्य तप का समापन किसी को कौतूहल दिखाने के लिए किन्हीं की ललक लिप्साएँ पूरी करने के लिए क्यों खर्च करेंगे? इस नग्न सत्य को ऐसे हर व्यक्ति को भली प्रकार समझ लेना चाहिए जो सिद्ध पुरुषों को खोजने और उनसे लाभ उठाने के लिए जहाँ तहाँ भटकते हैं। उन्हें वरदान अनुग्रह प्राप्त करना तो दूर दर्शन तक का लाभ नहीं मिलता।

भले ही उनकी मौजूदगी समीपवर्ती क्षेत्र में ही क्यों न हो?

कभी-कभी ऐसा होता देखा गया है एक ठग को दूसरा बड़ा ठग अपने चंगुल में फँसा लेता है ओर पकड़े हुए शिकार को झोले में डालकर अपना स्वार्थ सिद्ध करता है। प्रेत पिशाचों में से यक्ष गंधर्वों में से कुछ ऐसे मनचले होते हैं जो इन प्रपंची लोगों की मनोभूमि को ताड़ लेते हैं और उन्हें फँसाकर मनमाने कृत्य कराने के लिए वाहन जैसा उपयोग करते हैं। यह वर्ग भी सूक्ष्म शरीरधारी होता है। निकृष्ट वर्ग में गिने जाने पर भी वेष बदलकर किसी भी रूप में प्रकट होने की कला में अभ्यस्त होता है। उनके लिए सिद्धपुरुषों जैसा रूप बना लेने में भी कठिनाई नहीं होती। मूर्खों के साथ वे धूर्तों जैसे व्यवहार करते हैं। कौतुक कौतूहल दिखा कर उन्हें मंत्र मुग्ध कर लेते हैं और सम्मोहित की तरह उन्हें उँगली के इशारे पर कठपुतली की तरह नचाते हैं। इस प्रकार जकड़े पकड़े गये लोग भी अपने को सिद्धपुरुषों के साथ संपर्क होने की मान्यता में जकड़ जाते हैं और उनकी इच्छानुसार उचित अनुचित का विचार किये बिना हेय कृत्य करने लगते हैं। अघोरी, कापालिक, ताँत्रिक स्तर के लोग इसी प्रकार के कुचक्र में फँसे हुए होते हैं। संत का जीवन आदर्शवादी और परमार्थ परायण होना चाहिए।


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