स्फूर्तिदायिनी योगनिद्रा अभ्यास का अंग बने।

July 1988

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अध्यात्म साधना में जीवन शोधन के प्रयोग से आगे बढ़कर जिस अभ्यास को आरंभ करना पड़ता है। उसका नाम है “शरीराध्या से निवृत्ति।” चेतना शरीर में रहती है यह भी ठीक है। उसका उपयोग वाहन या उपकरण के रूप में होता चला आता है यह भी ठीक है। सभी जानते है कि चेतना की इच्छा आकाँक्षाओं को पूरा करने के लिए शरीर को ही विविध क्रिया कलाप करने पड़ते है। इसलिए वह स्वामिभक्त सेवक भी है। इतने पर भी यह भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि दोनों की सत्ता स्वतंत्र है। चेतना का अस्तित्व अनादिकाल से है और अनंत काल तक रहेगा। किन्तु शरीर के संबंध में ऐसी बात नहीं है। वह माता पिता के संयोग से बनता है और नियम अवधि पूरी करके काल चक्र द्वारा ग्रस लिया जाता है। शरीर के मन जाने पर भी चेतना बनी रहती है और वह अपने कर्म विपाक के अनुसार नया चोला पहन लेती है। नये घोंसले में रहने लगती है।

शरीर आत्मा का आज्ञानुवर्ती सेवक है। किन्तु है वह जड़। उसे अपना निज का ज्ञान प्राप्त नहीं है। जड़ पंच तत्वों के सम्मिश्रण से गति ही उत्पन्न हो सकती है। ज्ञान के लिए एक पृथक् उपकरण है जो चेतना और शरीर का सम्मिश्रण है। यह है-मन। मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय कहा गया है क्योंकि उसमें शरीर की ज्ञानेन्द्रियों के प्रति प्रमुख आकर्षण रहता है। इन्द्रियों के स्वाद उसे लुभाते है। फलतः चेतना का यह स्थूल भाग उन्हीं का अनुकरण करने लगता है। इन्द्रिय भोगों का बाहुल्य संचित करने और उनके उपभोग में सहायक संयोगों की प्राप्ति उसकी सहज लिप्सा बनी रहती है। इन्हें को लोभ, मोह और अहंकार कहते है। यह मन के भौतिकवादी विशेषण है। इन्द्रिय जन्य विलासित शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श के आधार पर चली है निमित्त काया में कान, नेत्र, जिव्हा, नासिका एवं त्वचा का निर्माण हुआ है। कामुकता त्वचा क्षेत्र के अंतर्गत आती हैं पाँच ज्ञानेन्द्रिय और छठा मन इन्हें का मंत्रिमंडल जीवन तंत्र के ऊपर प्रायः’ पूरी तरह हावी बना रहता है और जैसा चाहता है वैसे कर्म कराता है।

चेतना का स्वरूप, आनन्द एवं लक्ष्य भिन्न है। जाग्रत अवस्था में वह उनकी आवश्यकता भी अनुभव करती है। अपूर्णताओं को पूर्ण करने कुसंस्कारों से मुक्ति पाने और अपने अन्तःकरण को देवोपम बनाने की प्रथम आकाँक्षा चेतना की है। दूसरी इच्छा है नियन्ता के इस विश्व उद्यान को अधिकाधिक समुन्नत, सुसंस्कृत बनाने में अधिकाधिक योगदान करने की। यह दोनों आकांक्षायें प्रायः दबी रह जाती है। इन्हें जगाने हेतु वस्तु स्थिति को समझना शरीर और आत्मा के स्वार्थों को पृथक् करना जरूरी है। व्यामोह में न फँसना, सेवक को स्वामी न बनने देना, अपने को दासानुदास की स्थिति में पड़कर जीवन का अपव्यय न होने देना, यह सब तभी संभव है जब शरीरगत मन और आत्म चेतना के पृथकीकरण का अभ्यास कर लिया जाय। इतना बन पड़ने पर ही भौतिक आकर्षणों का दबाव घटता है और आत्मा अपने स्वरूप और लक्ष्य को समझते हुये स्रष्टा की इस अनुपम धरोहर का उचित उपयोग कर सकने में समर्थ होती है।

यह पृथक्ता मरण के समय अनुभव होती है। जब शरीर चला जाता है। उसकी बाल क्रीड़ाओं में निरत रहने का स्मरण आता है और भविष्य को अँधेरे में धकेल देने वाला बोझ ऊपर लदा होने से भारी त्रास देता है। तब पश्चाताप और प्रायश्चित का समय भी निकल चुका होता है।

इस स्थित में दुर्गति से बचने के लिए प्रथम उपाय है कि शरीर की और आत्मा की भिन्नता का अनुभव करना। मृत्यु के उपरांत की लम्बी अवधि में आने वाली परिस्थितियों के संबंध में गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय।

प्रज्ञा योग की दैनिक साधना में प्रायः’ बिस्तर से उठते ही नये जन्म की और सोते समय मरण की उपमा निद्रा के साथ देने की विधा समझाई जाती है। पर वह भी थोड़े दिन में एक ढर्रा बन जाती हैं। चिन्तन होता रहता है पर अन्तराल की गहराई तक वह प्रकाश नहीं पहुँचता।

इस अभ्यास को गंभीर एवं अधिक प्रभावोत्पादक बनाने के लिए शिथिलीकरण मुद्रा का अभ्यास करना पड़ता है। इसे शवासन भी कहते है। दिन में एक बार इसे जरूर कर लेना चाहिए, मन जब भी हल्का हों। व्यस्तता और उत्तेजना जिस समय कम हो उसी को इस निमित्त निर्धारित कर लेना चाहिए और फिर उस समय को इस प्रयोजन के लिए नित्य ही नियमित बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।

जमीन या समतल तख्त पर चित्त लेटना चाहिए। तीन बार लम्बी साँस खींचनी-छोड़नी चाहिए और भावना करनी चाहिए कि चंचलता व्यग्रता हलकी हो गयी। अतः शरीर और मन को इस स्थिति में पहुंचने के लिए संकल्प बल का प्रयोग करना चाहिए माना निद्रा आ गयी। शरीर के एक-एक अवयव को शिथिल हो जाने की भावना करनी चाहिए। हाथ पैर गरदन आदि भारी हो गये वे उठाये नहीं उठते। चलाये नहीं चलते। मन भी योग निद्रा की स्थिति में चला गया उसमें भी कोई संकल्प विकल्प नहीं उठ रहे। नींद जैसी गहरी खुमारी आ रही है।

इसके उपरान्त चेतना को शरीर में से उस प्रकार निकालकर ऊँचा उठा देना चाहिए, मानो पक्षी घोंसला खाली छोड़ कर ऊपर उड़ गया है। अनुभव करना चाहिए कि शरीर मृतक पड़ा है। आत्मा जीवन्त है और आकाश में उड़ते हुये अथवा किसी ऊंचे वृक्ष पर बैठकर उस बिछोह का अनुभव कर रही है। शरीर अलग है और आत्मा अलग। वह पुराने कपड़े या जूते की तरह था, जिसे छोड़ दिया गया। अब अपना सूक्ष्म अस्तित्व जो रह गया। वही वास्तविक “स्व” है-जीवात्मा।

जीवात्मा स्वामी हैं शरीर सेवक था। जीवन आत्मा को सौंपा गया है और उसी के कंधे पर यह दायित्व था कि शरीर और मन को उन ऊँचे उद्देश्यों के लिए लगाये जिसे लिए यह बहुमूल्य धरोहर मिली थी। शरीर रूपी वाहन पर लगाम रखी जाय। उसे किसी भी दिशा में स्वच्छंद विचरने का अवसर न दिया जाय। न शरीर को न मन को। चेतना को ही यह निश्चय करना है कि इस उपकरण समुच्चय का कहाँ उपयोग करे और किसी गलत कदम उठने पर तुरंत रो दे। इस मनःस्थिति में न्यूनतम पन्द्रह मिनट अपने को पड़ा रहने देना चाहिए और सुविधानुसार इसे बढ़ाते हुये आधे घंटे तक पहुँचा देना चाहिए। बायोफीडबैक रूपी यंत्रों के बजाय यदि स्वतः स्वं संकेतों से स्वयं को तनाव रहित किया जा सके तो इससे बढ़कर क्या हो सकता है?

शवासन शरीर और मन की थकान और तनाव को दूर करने का प्रयोजन पूरा करता है। धीरे-धीरे चेतना को लौटाते हुए शरीर को सजग करता है। शवासन के बाद धीमी गति से ही शरीर को उठाने का प्रयत्न करना चाहिए। इससे शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तीनों ही स्तर पर एक नई चेतना, नई स्फुरणा प्राप्त होती है।


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