तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः

July 1988

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एक बार विष्णु भगवान का मन पृथ्वी पर आकर मनुष्यों की स्थिति का पर्यवेक्षण करने और धर्म मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने का हुआ। वे चलने लगे तो लक्ष्मी जी ने रोका और कहा -”प्रभु! मनुष्य अब अपने चिन्तन, चरित्र की दृष्टि से बहुत ही गये गुजरे हो गए है। वे धर्म के बाते मा गाल बजाने की तरह करते है, पर उन्हें हृदयंगम करने को बिल्कुल भी तैयार नहीं है। ऐसी दशा में आपका उनके पास जाना व्यर्थ है।”

विष्णु जी माने नहीं। उनने हठपूर्वक जाने का इरादा बना ही लिया। लक्ष्मीजी अपनी बात की अवहेलना किये जाने पर रुष्ट हो गई। बोली- यदि धर्म शिक्षा मनुष्यों ने स्वीकार न की, आप असफल लौटे तो मैं घर में न घुसने दूँगी।”

विष्णु चले गए। जगह-जगह जाकर उनने मनुष्य को एकत्रित किया, धर्म कर्म की शिक्षा दी। लोगों ने सभी जगह एक-सा उत्तर दिया कि यह तो हम कथा–वार्ताओं में सुनते रहते है। यदि आपकी वस्तुतः कृपा है तो हम लोगों की मनोकामनाएँ पूरी कर दीजिए। कुछ उपहार वरदान दीजिए।

निराश होकर भगवान दूसरी,तीसरी,चौथी जगह गए। पर सर्वत्र एक जैसे ही उत्तर मिले। खिन्न होकर वे जहाँ-तहाँ छिपते भी फिरे पर लोगों ने उन्हें ढूँढ़ ही लिया और कसी प्रकार की शिक्षा देने की अपेक्षा मनोरथ पूर्ण करने की बात ही कही। “मनःस्थिति बदलने पर परिस्थिति बदलती है” “मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है” जैसी शिक्षाएं उन्हें बिल्कुल नहीं सुहा रही थी। उनकी तो बस एक ही रट थी कि “यदि आप सही मायने में भक्तवत्सल है तो हमें सम्पदाओं से निहाल कर दीजिए।”

ऐसी अवज्ञा देखकर भगवान बड़े दुःखी हुए। कहाँ तो वे अपने भक्तों को ढूंढ़ने चले थे। मन में उमंग थी कि धर्म परायण बनने की लोगों को शिक्षा देंगे। पर वहाँ तो सब कुछ उल्टा ही उल्टा था। खिन्न मन से पृथ्वी लोक में विचरण करते-करते “आदमी” नामक प्राणी से जान बचाते वे समुद्र के बीच एक टापू पर द्वारिका जैसी नगरी में एकान्त स्थान पर जा छिपे। उनने मनुष्यों से पुनः संपर्क कर उन्हें सत्पथ पर चलने की प्रेरणा देने का विचार ही त्याग दिया।

भगवान के परम भक्तों में नारद को सर्वश्रेष्ठ स्थान मिला हुआ है। कहा जाता है कि उन्हें अव्यवहृत गति प्राप्त है। वे तीनों लोकों में विचरण करते रहते है। नारदजी बैकुण्ठ लोक से खबर लेकर निकले कि विष्णु भगवान धरती पर गये है। अपनी विकालषता के बल पर उन्होंने भगवान को खोज ही लिया। उन्हें उदास देखकर नारदजी ने कारण पूछा-भगवान ने अपनी व्यथा कह सुनाई और करुण स्वर में बोले-” हे देवर्षि! कोई ऐसा स्थान बताइये, जहाँ मैं छिपा बैठा रह सकूँ और लोगों को पता भी न चले। कहीं पता चल गया तो मुझे कही का न छोड़ेंगे। ऐसे दुष्ट होंगे, इसकी तो मुझे कल्पना भी नहीं थी। अपने लोक में तो तब तक वापस जा नहीं सकता जब तक लक्ष्मीजी की घर में न घुसने देने की चुनौती बनी हुई है।”

नारदजी ने सारा वृत्तांत सुना, कुछ सोचा और बोल उठे- “भगवन्! मार्ग मिल गया। आप मनुष्य के हृदय में जा बैठिये। लोग तो आपको बहिर्मुखी होने के कारण जगह-जगह ढूंढ़ते फिरते है। वे आपको उनके ही अन्दर विराजमान होने की कल्पना तक न कर पायेंगे। आप निश्चिंततापूर्वक वहाँ विराजे रहें। जो आपका सच्चा भक्त होगा, वह जब भी अपने अन्दर आपको ढूँढ़ेगा, आपको पा लेगा। उसी को आ सन्मार्ग पर चलने का, त्रिविध भवबंधनों से मुक्त हो स्वर्ग प्राप्ति का मार्ग बताते रहिएगा। आप तो मायापति है प्रभु! एक से अनेक बनकर हृदय क्षेत्र में जा बैठिये। देवी लक्ष्मी कभी आप से दूर रह सकेंगी वे भी नकली भक्तों से व्यथित है? वे भी आपके साथ ही रहेंगी”

भगवान को सलाह पसंद आ गई। वे मनुष्यों के हृदय में तब से बैठे हैं। पर सभी उन्हें ढूंढ़ते बाहर, तीर्थ-देवालयों की दौड़ लगाते रहते है। समय, श्रम व पैसा गँवाते है फलतः भगदड़ से निराशा ही निराशा हाथ लगती है।


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