कायसत्ता के तीन कलेवर एवं उनका अनावरण

July 1988

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मनीषियों के अनुसार आत्मा के ऊपर तीन परिधान लिपटे हुए है। जिस प्रकार बनियान कुर्ता, काट एक के बाद एक पहन कर सुसज्जा बनाई जाती है। उसी प्रकार किया के ऊपर भी तीन शरीर रूपी आवरण चढ़े है। एक स्थूल शरीर है जो प्रत्यक्ष देखा व छुआ जाता है और इच्छानुसार कार्यों में लगाया जाता है। दूसरी गहरी पर सूक्ष्म शरीर की है। यह प्राणमय है। मरने के बाद कुहासे के रूप में बिखर जाता है। हृदय स्थान से ज्योतिव् ध्यान करते हुए यह दिखाई देता है। शरीर के इर्द-गिर्द तेजोवलय के रूप में भी यही छाया रहता है। तीसरा शरीर कारण शरीर है। इसका स्थान अन्तःकरण चतुष्टय है। मन, बुद्धि,चित, अहंकार का समुच्चय इसी के साथ जुड़ा हुआ है। यों आकाँक्षा, मान्यता, प्रेरणा, उमंग इसी में उठती है। पर एक शब्द में इसकी प्रमुखता को देखते हुए इसे भावना प्रधान कहा जा सकता है। इसकी स्थिति प्रधानतया भाव संवेदनाओं से ही जानी जाती है।

जीव जन्तु, पशु-पक्षी स्थूल शरीर प्रधान होते है। वे किया की आवश्यकताएं एवं इच्छा पूरी करने में लगे रहते है। पेट भरने के लिए उनकी शारीरिक क्रियाएँ होती हैं और प्रजनन का ताना बाना बुनने में उनका मन कामुकता रहता है। इसके अतिरिक्त सुरक्षा की व्यवस्था बनाने में भी अपनी बुद्धिमता का उपयोग वे करते है। शत्रुओं से आत्म रक्षा के लिए जितना बन पड़ता है, कौशल अपनाते है। झाड़ियों में रहने से लेकर गुफाओं में छिपने और झुण्ड बनाकर रहने की प्रवृत्ति आत्मरक्षा से ही सम्बन्धित है। प्रजनन के लिए घोंसले, खोह, कोतर आदि का प्रबंध उन्हें करना पड़ता है।

मनुष्य भी प्रायः अपनी काया को अधिकांश श्रम शक्ति को इन्हीं प्रयोजनों में जुटाए रहते है। गुजारे के लिए उत्पादन का श्रम करना पड़ता है। कामुकता बेचैन करती है तो जोड़ा बनाते है। विवाह करते है और उस समागम का प्रतिफल सन्तानोत्पादन के रूप में सामने आता है। बच्चों की असमर्थता को देखते हुए अभिभावक उनकी देखभाल तब तक करते है जब तक कि वह शारीरिक मानसिक दृष्टि से स्वावलम्बी नहीं हो जाते। यह उपरोक्त दोनों ही व्यस्त रखने वाले कार्य”पेट और प्रजनन” की परिधि में आते है। स्थूल शरीर को उत्पादन जन्य लोभ अपनाना होता है। भावुकता का फलितार्थ विवाह ओर सन्तान के रूप में सम्मुख आता है। यह सभी नवागन्तुक अपने प्रभाव एवं प्रयत्न से उत्पन्न किए गए होते है। इसलिए उनके प्रति ममता जुड़ती है। ममता अपने प्रियजन की अनेकानेक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आतुरता प्रकट करती है। यही मोह है। मनुष्य का स्तर जब तक शरीर प्रधान, पशु स्तर का रहता है तब तक उसमें लोभ और मोह की ललक लगन सतत् छाई रहती है।

इसके अतिरिक्त मनुष्य बुद्धिमान होने के कारण अपने निजी व्यक्तित्व के बारे में भी विचार करने लगता है। जब तक कि पशु-पक्षियों में उस स्तर का चिन्तन स्वल्प मात्रा में ही उभरता है। मनुष्य की शरीरगत प्रवृत्तियों में एक अहंकार भी है। इसे मानसिक चेतना का उद्भव भी कह सकते है इन्द्रिय भोगों की वासना और उपभोग सामग्री करी तृष्णा इन दोनों का बाहुल्य तो रहता है। पर साथ ही मानसिक विकास के रूप में निज के व्यक्तित्व की कल्पना भी प्रखर होती है। कामनाएँ है। एक यह कि अपना स्तर दूसरों से बढ़ा चढ़ा सिद्ध करना। दूसरा सम्मान उपलब्ध करना। यह कि प्रकार संभव है, इसके लिए शरीर की परिधि में अपनी सत्ता सीमित रखने वालो के लिए स्वकत्य के रूप में ठाट-बाट बढ़ाने का उपाय उपचार समझ में आता है। वस्त्र, आभूषण, श्रृंगार, साधन ठाट-बाट अमीर जीताने वाले साधनों के एक भी कारण यह इस स्तर के कौतुक है, जनमे समय,श्रम और साधन खर्च करते हुए भी इसलिए प्रवृत्त होना पड़ता है। कि अपने से पिछड़ी स्थिति के लोग तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने के उपरान्त यह विचार करे कि अमुक व्यक्ति हमारी तुलना में अधिक वैभववान् होने के कारण बड़प्पन का अधिकारी है। यह उथले दर्जे का बड़प्पन है इसे पाने के लोग विवाह शादियों में अंधाधुन्ध अपव्यय करने, कर्मकांडों का प्रदर्शन करने सभा सोसाइटियों के अधिकारी बनने आदि के प्रपंच रचते रहते है। इस कौतुक के सहारेवे अपना साँसारिक मूल्य दूसरों के मूल्य की तुलना में अधिक सिद्ध करने में किसी कदर सफल भी हो जाते है।

शारीरिक क्षेत्र की तुलना में मानसिक ललकों की मात्रा अधिक है। शरीर तो अन्न, वस्त्र और निवास की आवश्यकताएं पूरी हो जाने पर तृप्त हो जाता है। पर मन को कामुकता की अन्याय इंद्रियों की ललक बुझानी पड़ती है और उसके लिए विवाह सन्तान, परिवार को अपने साथ जोड़कर उनकी आवश्यकताओं को भी अपनी अनिवार्य आवश्यकता मानना पड़ता है। बात ममता की पूर्ति तक ही सीमित नहीं रहती। मोह के अधिक अभीष्ट सुविधा सम्पादन का क्रम बैठ जाने पर भी मन शान्त नहीं होता। विकसित मस्तिष्क अहंकार का उन्माद ही छाया होता है और साधारण होते हुए भी असाधारण आडम्बर बनाकर अपनी वरिष्ठता का वह ढिंढोरा पीटना चाहता है। लोगों की दृष्टि में अधिक वैभववान् सिद्ध होना चाहता है।इतना ही नहीं कई बार उद्धत आचरण अपनाकर अपनी आतंकवादी प्रभुता प्रकट के लिए अनाचार तक अपनाना पड़ता है। अपहरण, आक्रमण, शोषण, उत्पीड़न जैसे नृशंस काम करने पड़ते है।चतुरता का उच्चस्तरीय परिचय देना तो कठिन है पर ठगी, प्रवंचना, शेखीखोरी जैसे प्रपंच खड़े करके व्यक्ति औरों की तुलना में अपने को अधिक चतुर सिद्ध करता है। भले ही वे चतुरताएँ कुटिलता स्तर की हेय या अनैतिक ही क्यों न हों? शरीर लोभ के पूर्ति में और मन मोह का ताना बाना बुनने में लगा रहता है इसके विपरीत विकसित मन को अहंकार का प्रदर्शन करने की ऐसी विडम्बना नहीं रचनी पड़ती।

इससे एक कदम आगे बढ़ने पर कारण शरीर में एक जाग्रति भरी हलचल उत्पन्न होती है।वह है सम्मान की स्नेह सद्भाव की आकाँक्षाएँ भी क्रमशः अधिक समय साध्य, श्रम साध्य एवं बुद्धि साध्य है स्थूल शरीर की आवश्यकताएं सामान्य प्रयास से ही पूरी हो जाती है। पेट और प्रजनन की व्यवस्था पशु-पक्षी, कीड़े मकोड़े तक आसानी से बना लेते है। थोड़ा सा ही चिन्तन और परिश्रम करने से उनके साधन बन जाते है अहंता के नाम पर अन्य प्राणी तो अपनी बलिष्ठता दिखाने के लिए आक्रमण भर करते है। आतंक भर मचाते है। पर मनुष्य को इसके लिए आकुलता भी रहती है और आतुरता भी। जिसे स्नेह नहीं मिला, समझना चाहिए कि उसका जीवन नीरस, निर्जीव, रूखा, कर्कश रह गया। इसी प्रकार जिसे सम्मान ही मिला उसे ऊंचा उठने के लिए जो आधार अवसर मिलना चाहिए था, वहीं छिन गया। इन दोनों के न मिलने या छिन जाने के कारण शरीर की उर्वरता एवं गरिमा की पलायन कर जाती है। पेट-प्रजनन से भी बड़ी भूख अन्तरात्मा के स्नेह सम्मान की रहती है। पर उसे प्राप्त करने के लिए स्तर के अनुरूप पुरुषार्थ करना पड़ता है। पेट भरने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। कामुकता की बेल को समेटने के लिए सुविस्तृत ताना बाना बुनना पड़ता है। जब स्थूल और सूक्ष्म शरीर अपनी इच्छाएँ पूरी करने के लिए समुचित श्रमशीलता एवं तन्मयता, तत्परता चाहते है, सतत् व्यस्त बनाये रहते है तो कोई कारण नहीं कि काया का सर्वोच्च स्तर जो माँगता है वह बिना कुछ किए अनायास ही मिल जाय। उसके लिए और भी बढ़ा चढ़ा वैभव अर्जित करना होता है।

कारण शरीर की बलिष्ठता भाव-संवेदना है। ठीक उसी तरह जैसे शरीर में बल और मन में बुद्धि का होना आवश्यक है। पशु भाव रहित होते है। उनमें मैत्री, करुणा, मुदिता, सेवा, सहानुभूति, उदारता जैसी गरिमामयी भाव संवेदनाएँ कदाचित ही नगण्य मात्रा में होती है। उन्हें स्वार्थ ही सूझता है। कष्ट होता है तो अपने ऊपर संकट आने पर ही पीड़ा होती है। किन्तु मनुष्य का दर्जा कही ऊँचा है। वह “आत्मवत् सर्वभूतेषु” व “वसुधैव कुटुम्बकम्’ स्तर की भाव संवेदना संजोए रहता है। यही कारण है कि उसके अन्तराल में करुणा और उदारता का उद्गम उभरता रहता है। दूसरों का दुःख बंटा लेने की और अपना सुख बाँटने के उमंग उठती रहती है। इसी परमार्थ परायणता के मूल्य पद दूसरों का सहयोग एवं श्रद्धा सम्मान खरीदा जाता है।उदारता भरी सेवा साधना ही विचारशील लोगों के अन्तराल में शालीनता प्रदर्शित करने वालों के प्रति श्रद्धा उमगाती है और साथ ही सम्मान भरे सहयोग के वर्षा करती है। उसमें स्थायित्व भी होता है। आदर्शवादियों के चरित्र एवं व्यवहार का अनुकरण- अभिनंदन किया जाता है। भाव संवेदना की आत्मीयता, ममता, मित्रता की जड़ें मजबूत करती है। जिनका अन्तःकरण ऊसर बंजर की तरह भावनात्मक उर्वरता से रहित है, उस पर न तो सहयोग सम्मान के मेघ बरस सकते है और सेवा, उदारता के उपवन उगते, सुरभित फूल खिलते है। निष्ठुर स्वार्थ परायण, सहानुभूति-संवेदना रहित व्यक्ति के संबंध में यही कहा जा सकता है कि उसका अन्तःकरण भाव-संवेदनाओं की उस उर्वरता से सम्पन्न नहीं हो पाया, जिसके कारण व्यक्तिगत स्नेह और समूहगत सम्मान की अमृत वर्षा होती है। व्यक्तित्व को देवी अनुकम्पा और अन्तरंग को सन्तोष एवं उल्लास से निरन्तर भरे रहती है। इसी कारण उपनिषद् बार-बार कहते है,-” हे मानव! तू अपने सच्चे स्वरूप को पहचान और उसी के अनुसार तू अपनी देह को कार्य में लगाकर आगे बढ़े।”

ऋषि -मनीषियों के अनुसार दो प्रकार के मन होते है। एक लघु चेतस् तथा दूसरा उदारचरित्। - जिनका आत्मभाव विश्ववसुधा के स्तर तक विकसित रहा।- वे उदारचरीत् कहलाते रहे उपनिषदों के ऋषि, राम, कृष्ण, बुद्ध, शंकर, चैतन्य, नानक, कबीर, रामकृष्णपरमहंस, विवेकानंद, गाँधी, जैसे व्यक्ति सी श्रेणी में आते है। मनुष्य का अहंभाव व्यक्तित्व भी विराट एवं गरिमामय हो जाता है। इसी बात को मनोविज्ञानी मैक्डूगल अपने शब्दों में व्यक्त करते हुए कहा है” ईश्वर की मानव को धरती पर भेजने की सार्थकता उससे विकसित रूप, महामानवों के, विकसित पुरुषों के जीवन चरित्रों को देखकर भली−भांति समझी जा सकती है। यही वह लक्ष्य है जिसे प्राप्त कर मनुष्य पूर्णता तक पहुँचता है, देवत्व को प्राप्त होता है।”

शरीरगत आवश्यकताएं तो पशु भी पूरी करते है। मानसिक तृष्णाओं को चतुर लोग पूरा कर लेते हैं। पर मानवी गरिमा इसमें है कि उसके अन्तःकरण में भावनाएँ उमँगे। स्वयं में वह विनम्र, निष्काम एवं संयमी, अपरिग्रही रहे। अपनी क्षमताओं के संवर्धन में समर्पित संलग्न करे। देव मानवों का कारण शरीर इसी आधार पर विकसित होता है। इसी उपलब्ध विशेषता के कारण वे महामानव,नर -नारायण एवं पुरुषोत्तम बनते है। जीवन साधना के अध्यात्म उपचार इसी उद्देश्य से अपनाये जाते है। जिन्हें अध्यात्म क्षेत्र में आगे कदम रखना हो उन्हें यह प्राथमिक पाठ पहले ही समझ लेना चाहिए।


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