सुसंतति का वरदान

July 1988

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राजा दिलीप गुरु वशिष्ठ के आश्रम में पत्नी समेत पहुँचे। उनका अभिप्राय संतान के लिए वरदान प्राप्त करने का था। बड़ी आयु हो जाने पर भी उनको कोई संतान न हुई थी।

गुरु समर्थ तो थे। पर मुफ्त में वरदान देकर किसी पर ऐसा कर्ज नहीं लादना चाहते थे उसका प्रतिदान उसे आगे चलकर ब्याज समेत चुकाना पड़े और उस चुकने में अब से भी अधिक त्रास सहना पड़े। दिलीप के सम्बन्ध में तो संतान का प्रश्न भी जुड़ा था। वरदान ऐसी संतान का होना चाहिए जो बड़ा होने पर महामानवों में गिना जा सके। आदर्शवादी ही महामानव हो सकते है। इसके लिए आवश्यक है कि पिता माता भी पुण्य परमार्थ की सम्पदा से सुसज्जित हों। अन्यथा ऐसी ही सन्तानों को जन्म दिया जा सकता है जो अपयश बटोरें और कुकर्मों में निरत रहकर अपने पूर्वजों की भी प्रतिष्ठा नष्ट करें।

इन सब बातों पर विचार करते हुए आवश्यक प्रतीत हुआ कि राजा रानी की सेवा भावना और आदर्शवादिता को बढ़ाने वाला कोई काम सौंपा जाय।

वशिष्ठ जी ने एक वर्ष तक उनके आश्रम में रहकर गौएँ चराने का काम सौंपा। आश्रम की अधिकांश आवश्यकताएं गौ पालन से ही पूरी होती थीं। इसलिए गौ सेवा की प्रकारान्तर से आश्रम की सेवा-गुरुसेवा के समतुल्य ही समझी जाती थी।

दिलीप ने आदेश शिरोधार्य किया और आश्रम में निवास करने लगे। प्रातः रानी समेत आश्रम की गौएँ चराने जंगल में निकल जाते। शाम को वापस लौटते।

बहुत दिन यह क्रम साधारण रीति से चलता रहा। एक दिन विशेष घटना हुई। एक सिंह ने आश्रम की एक गाय को दबोच लिया। राजा ने सिंह को मारने के लिए धनुष-बाण संधाना पर आश्चर्य यह कि वह चल ही न सका। दिलीप दौड़कर सिंह के पास गये और उसे अन्य उपायों से भगाने का प्रयत्न करने लगे।

सिंह ने मनुष्य की बोली में कहा-कि मैं शिव परिवार का सिंह हूँ। मुझे भी तो भोजन चाहिए। पशु ही मेरा भोजन है। मैं इस गाय को नहीं छोड़ सकता। यदि इसे छुड़ाना है तो बदले में अपना माँस दो। दिलीप ने इसे स्वीकार कर लिया और सिंह के सामने जाकर बैठ गये। आश्रम की गाय को क्षति पहुँचना उसे अपने शरीर देने से भी अधिक भारी पड़ रहा था।

सिंह शिवजी द्वारा राजा की परीक्षा लेने के लिए भेजा गया था। राजा उसमें उत्तीर्ण हो गये। सिंह वापस चला गया। राजा और गौएँ आश्रम सकुशल आ गये। इतने में एक वर्ष की अवधि भी पूरी होने जा रही थी।

वशिष्ठ जी ने दिलीप को सुसंतति का आशीर्वाद देकर विदा किया। दिलीप की अनेक पीढ़ियों तक एक से एक बढ़कर प्रतापी और आदर्शवादी बालक उत्पन्न होते रहे।

सत्परिणाम उपलब्ध करने के लिए सेवा और सदाशयता का बढ़-चढ़ कर परिचय देना पड़ता है।


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