मनुज द्विज बनते है संस्कार से

July 1988

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आयुर्वेदिक रसायन बनाने की प्रक्रिया में उन्हें कितनी ही क्रियाओं से गुजारा जाता है। कई प्रकार के रस मिलाये जाते है। कितनी ही बार उन्हें गजपुट प्रक्रिया द्वारा अग्नि में तपाया, संस्कारित किया जाता है, तब कही वह रसायन ठीक तरह तैयार हो पाता है और साधारण-सी दीखने वाली लोहा, ताँबा, जस्ता, अभ्रक जैसी कम महत्व की धातुएँ चमत्कारिक शक्ति सम्पन्न बन जाती है। यह वस्तुतः “संस्कार” की परिणति है। संस्कारित होने के बाद ही लोहा मजबूत इस्पात बन पाता है और मिट्टी उपजाऊ बन कर फसलें उगाती है।

कुम्हार यदि मिट्टी के कच्चे बरतनों को आवे में पकाये नहीं, तो वह किसी काम नहीं आ सकते। ठोकर बर्दाश्त करने और उपयोग लायक बनाने के लिए उसकी अपरिपक्वता मिटानी पड़ती है। ठीक इसी प्रकार मनुष्य को भी समय-समय पर विभिन्न आध्यात्मिक उपचारों द्वारा संस्कृत बनाने का महत्वपूर्ण निर्धारण भारती सुसंस्कृति में है। भारती तत्ववेत्ताओं द्वारा विकसित यह पद्धति “संस्कार-पद्धति” के नाम से जानी जाती है।

मनुष्य जब जन्म लेता है, तो जन्म जन्मान्तरों के अनेक कषाय–कल्मष अपने साथ लाता है। उनका परिमार्जन-परिष्कार आवश्यक होता है। यदि उन्हें यों ही छोड़ दिया जाय तो वे आगे चलकर चित्र-विचित्र कल्पनाएँ अपरिष्कृत चिन्तन तंत्र, विलक्षण मनोवृत्तियों का एक मिला जुला मानवी स्वरूप निर्धारित करते है। ऐसी स्थिति में चिन्तन और क्रिया में, योग्यता, बुद्धि, रुचि और लक्ष्य में एकरूपता न होने के कारण उसके जीवन की कोई एक निश्चित दिशा निर्धारित नहीं हो पाती।

डाक्टर जानते है कि रक्त में जब विजातीय द्रव्य, जीवाणु विषाणु प्रवेश करते है, तो रोगों को जन्म देते है। ओझा-माँत्रिकाकं की मान्यता है। कि शरीर में जब किसी बाहरी सत्ता का हस्तक्षेप होता है, तो व्यक्ति उन्मादग्रस्त बन कर औंधे-सीधे कार्य करने लगता है। विपरीत विचारधारा के व्यक्ति से घर में कलह उत्पन्न होता, वैमनस्य बढ़ता और उससे पूरा परिवार प्रभावित होकर अवगति की राह पर आ जाता है।

संचित कषाय-कल्मष मनुष्य की ऐसी ही गति बनाते हैं। इन्हें संवारने और आत्मिक प्रगति के पथ की ओर अग्रसर करने के लिए ऋषियों ने “संस्कार पद्धति” की व्यवस्था की थी। इसे देव संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता मानी जानी चाहिए क्योंकि इसमें जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन पर्यन्त व्यक्तित्व को सफल-सार्थक बनाने हेतु सतत् शोधन एवं आत्मसत्ता के अभिवर्धन का प्रावधान है। यह उस विद्या रूपी विभूति की विधा है, जो गुरुकुल शिक्षण प्रणाली का अंग रही है। संस्कृति के अंतर्गत जीवन क्रम में इन्हें इस प्रकार समाविष्ट कर दिया गया कि यथासमय वाँछित श्रेष्ठ संस्कार व्यक्ति को स्वयमेव मिलते रहें।

पशु यह नहीं जानते कि उनकी मर्यादाएँ क्या है? कैसे रहना, खाना, पीना और जीवन यापन करना है? उनका यह सारा क्रिया-व्यापार प्रकृति प्रेरणा से चलता है किन्तु मनुष्य को इस बात की भली भाँति जानकारी होती है कि वह अपना आत्म विकास कैसे करे? कैसी योजनाएँ बनाए और कार्यक्रम अपनाये कि अन्ततः वह उस मार्ग पर चलते-चलते परमलक्ष्य को प्राप्त करें। इस दिशा में अड़चन एक ही आती है वह है - कुसंस्कार। वही मार्ग में बाधक बन कर उद्देश्य की ओर बढ़ते व्यक्ति को च्युत करते है। इनके रहते उससे वैसा कुछ करते नहीं बन पड़ता, जो उसे सुसंस्कृत - सुविकसित बना सके। यह बात नहीं, कि सुसंस्कारिता के बीज किसी-किसी में ही होते है। यह न्यूनाधिक होते तो सभी में है, पर कुसंस्कारिता के झाड़ - झंखाड़ से इस प्रकार दबे रहते है कि उन्हें पनपने का मौका ही नहीं मिल पाता। यह उभयपक्षीय प्रयोजन संस्कार पद्धति पूरा करती है।

भारतीय संस्कृति की आदि काल से यह विशेषता रही है कि उसमें उद्देश्यपूर्ण, आदर्शयुक्त, पारमार्थिक, जीवन को ही प्रमुखता दी गई है। इस देश में उस व्यक्ति को ही सच्चा मनुष्य माना जाता रहा है, जो संस्कारवान आदर्श जीवन जीता रहा है। अज्ञान, अशक्ति, अभाव, कषाय-कल्मष से संघर्ष करने का व्रत लेने वाले ही “द्विज” कहे जाते है। जो द्विज नहीं है, अर्थात्!् जिनमें संघर्ष क्षमता क्षीण हो चुकी है, वे आजीवन शूद्र बने रहते है। ऐसे स्वार्थी, लोभी, विषयी, विकारी मनुष्य का अर्ध-सामाजिक बहिष्कार किया जाता रहा है। वस्तुतः जन्म से सभी शूद्र ही होते है, पर बाद में सूक्ष्म आध्यात्मिक उपचारों क्षरा संस्कारित होकर, अपनी चिन्तन-चेतना को परिष्कृत कर वे द्विजत्व की प्राप्ति करते है।

आज शिक्षा, भौतिक प्रगति, मानवी सूझबूझ सभी उत्कर्ष पर है, किन्तु फिर भी इनसे समृद्ध व्यक्ति को सुसंस्कृत नहीं कहा जा सकता, यह व्यक्ति को सभ्य तो बना सकती है, पर संस्कृत कहलाने का श्रेय-सम्मान इनसे प्राप्त नहीं किया जा सकता है। संस्कारवान तो वह तभी कहला सकता है, जब अपने अन्त’करण की मलीनता को धोकर गुण, कर्म, स्वभाव को समुन्नत स्तर का बना सकें। भारतीय संस्कृति में संस्कार-पद्धति के आध्यात्मिक उपचार इसी की व्यवस्था करते है।

इस प्रकार मानव जीवन को प्रखर-पवित्र बनाने की उपचार-प्रक्रिया को ही संस्कार कहा गया है। मेदिनी कोश में इसका एक अर्थ “प्रभाव” भी बताया गया है-”यन्नवे भाजने लग्नःः संस्कारों नान्यथा भवेत्”, अर्थात् जो संस्कार या प्रभाव नूतन पात्र पर पड़ जाता है, वह फिर बदलता नहीं। अतः संस्कार की श्रेणी में उन्हीं सद्गुणों को रखा जाता रहा है जो चिरस्थायी प्रभाव डालते हो।

प्रतिकूल संस्कारों को निष्ट कर अनुकूल उत्कृष्ट संस्कारों को स्थापित करने के लिए देव संस्कृति में प्रभावोत्पादक कर्मकाण्डों की व्यवस्था है, पर इनकी संख्या कितनी हो? इस सम्बन्ध में कोई निश्चित निर्धारण नहीं है। “दशकर्म पद्धति” के अनुसार संस्कार दस है। ऋषि अंगिरा ने पच्चीस संस्कार गिनाये है, जबकि गौतम सूत्र में इनकी संख्या चालीस बताई गई है-”चत्वारिशत्सं-स्कारैः संस्कृतः” अर्थात् व्यक्ति को चालीस संस्कारों से सुसंस्कृत होना चाहिए। कही-कही इनकी संख्या इड़तालीस भी बताई गई है।

इतने संस्कारों को करने-कराने का न तो आज के लोगों के पास समय रह गया है और न यह सभी आज के समयानुकूल है। अतः समय, सुविधा, परिस्थिति और अनुकूलता को देखते हुए षोडश-संस्कारों को ही प्रधानता दी गई है। भगवान वेद व्यास ने भी इनकी संख्या सोलह बताई है। इनमें भी इस अत्यन्त महत्वपूर्ण है। ये है-पुँसवन, नामकरण, अन्नप्राशन, मुण्डन, विद्यारीं, उपनयन, विवाह, वानप्रस्थ, अन्त्येष्टि और श्राद्ध। इन सभी में महत्वपूर्ण शिक्षाओं का समावेश है।

पुंसवन में माता तथा परिवार को गर्भावस्था में एवं जन्म के उपरांत शिशु को सुविकसित बनाने की आवश्यक जानकारी दी जाती है। नामकरण में किसी ऐसे महापुरुष, देवशक्ति के नाम के चयन पर बल दिया जाता है, जो उसके सद्गुणों को गरिमा का भान कराये ताकि बालक धीरे-धीरे स्वयं को उसी के अनुरूप ढालता चले। बालक के आहार-विहार संबंधी जानकारी अन्नप्राशन के अंतर्गत दी जाती है। मुण्डन में मानसिक विकास की शिक्षा निहित है। विद्यारम्भ संस्कार सभ्य - सुशिक्षित बनने की प्रेरणा देता है। उपनयन के अंतर्गत जीवन को महान बनाने वाले विभिन्न सद्गुणों का महत्व समझना, जीवन में उनका समावेश करना और आजीवन निबाहना मुख्य है। एक-एक मिलकर ग्यारह बनने, परिवार-समाज के अधिकाधिक काम आने तथा जीवन को यज्ञीय बनाने का संदेश विवाह के माध्यम से दिया जाता है। ढलती आयु का सुनियोजन साधना सेवा के क्षेत्र में हो- यह वानप्रस्थ संस्कार उद्देश्य है। अन्त्येष्टि द्वारा जीवन की नश्वरता और उसके श्रेष्ठतम सदुपयोग की शिक्षा लोगों को हृदयंगम करायी जाती है। श्राद्ध के अंतर्गत - मृतक द्वारा छोड़ी सम्पदा का परमार्थ प्रयोजनों में सदुपयोग कर मृतात्मा को सद्गति प्रदान करने का महत्वपूर्ण निर्देश है।

संस्कार एक प्रकार से मनोवैज्ञानिक उपचार है, जो मनुष्य को सत्परायण बनने की दिशा देते हैं। कर्मकाण्ड से अधिक इनमें भावना का महत्व होता है। हर वर्ण-जाति के व्यक्ति को हर संस्कार के लिए खुली छूट मिली है। कही किसी प्रकार का बंधन नहीं है। वस्तुतः संस्कारों से ही व्यक्ति ब्राह्मणत्व की प्राप्ति करता है। महर्षि गौतम ने कहा है-”स ब्रह्मणः बह्मणः सायुज्यमाप्नोति” अर्थात् ऐसा संस्कारी व्यक्ति ब्रह्मसायुज्य (साक्षात्कार) का श्रेय प्राप्त कर लेता है। यह प्रतिपादन आज के युग में भी पूर्णतः तथ्य सम्मत है। शांतिकुंज गायत्री तीर्थ में इन संस्कारों को शास्त्र सम्मत विधान से किये जाने की बड़ी उत्तम व्यवस्था बनाई गई है जिसका कोई शुल्क नहीं लिया जाता। सभी यहाँ आते व वातावरण से अनुप्राणित होकर जाते है।

हलवाई की दुकान पर चासनी की कढ़ाई भरी हुई थी। उसकी गंध पाकर मक्खियाँ चारों ओर भिनभिनाने लगी।

उनमें से कुछ समझदार थी कुछ मूर्ख। मूर्ख बेतहाशा दौड़ी और तुरंत-फुरत आगे शक्कर चासनी उदरस्थ करने के लिए लपकी उनके पंख और पैर चासनी में भीग गये। उड़ न सकी। तड़प कर मर गई।

पर कुछ समझदार थी। वे चासनी के एक कोने पर बैठी और शरीर को बचाते हुए जीभ से थोड़ा मीठा रस चखने लगी। इस नीति को अपनाने में अपना मन तो कुछ देर को मारा पर सभी सुरक्षित रूप से वापस लौट गई।

आतुर लोग बुद्धि गँवा बैठते है और जल्दबाजी में अपना सर्वनाश करते है। इसके विपरीत बुद्धिमान सावधानी बरतने, लाभ कमाते और सुरक्षित रहते है।


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