मृत्यु पर विजय (Kahani)

July 1988

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सावित्री के पिता अपनी गुणवती पुत्री के लिए वैसा ही सुयोग्य वर ढूँढ़ना चाहते थे। उपयुक्त जोड़ा न मिल सका तो पिता ने स्वयंवर वरण की आज्ञा दे दी। सेना के समेत राजकुमारी चल पड़ी उसने इस प्रयोजन के लिए अनेक देश देशांतर छान डाले। राजाओं के रनिवास का घुटन मरा वातावरण उन्हें तनिक भी पसन्द नहीं आया।

वे उभयपक्षीय व्यक्ति विकास के लिए कोई योग्य सहयोगी चाहती थी। इसके लिए वैभव नहीं आदर्श अपेक्षित था। आदर्शवादी युवक ही उन्हें अपेक्षित था।

प्रवास में गहरी खोजबीन करने के उपरांत सावित्री को एक लकड़हारा युवक मिला जो अपने वृद्ध माता-पिता की वानप्रस्थ अवधि में उनके साथ सेवा करने आया था। जंगल से लकड़ी काट कर गुजारा करता। साथ ही अभिभावकों की सेवा में भी लगा रहता। विद्वान पिता के पास बैट अपनी सद्ज्ञान साधना को भी जारी रखता।

सावित्री ने उसी जंगल में डेरा डाला। युवक से संपर्क बढ़ाया और उसके व्यक्तित्व को परखा। उसने उसी से विवाह करने का निश्चय लिया। पति के साथ रहकर वह भी श्रम करेगी और सेवा साधना में लगी रहेगी।

वर वधू की सहमति देखकर उनके अभिभावकों ने भी स्वीकृति दे दी।सावित्री भी अपने पति सत्यवान के साथ उसी वन प्रदेश में रहने लगी और उन्हीं के क्रियाकलाप में पूरी तरह सहयोग करने लगी। वह भी पितृ सेवा से निवृत्त होकर लोक कल्याण के कार्यों में निरन्तर होने लगी।

इसी बीच अचानक सत्यवान पर मृत्यु ने आक्रमण किया। किसी विषैले सर्प ने काट लिया। किंतु सावित्री का मनोबल चरित्र यहाँ काम आया। पिता ने उपचार बताया आश्चर्य यह हुआ कि मृतक जैसी स्थिति में पहुँचे हुए सत्यवान के प्राण फिर लौट आये। इसे कहते- पतिव्रत धर्म की मृत्यु पर विजय।


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