अग्निहोत्र से समूह चिकित्सा

July 1988

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औषधियों को वाष्पीभूत बनाकर उन्हें अधिक सूक्ष्म एवं प्रभावशाली बनाने की प्रक्रिया आयुर्वेद के विज्ञानी चिरकाल से अपनाते रहे है। उसके द्वारा उन्हें रोग निवारण एवं स्वास्थ्य संवर्धन में अपेक्षाकृत अधिक सफलता भी मिलती रही है। कारण, जिन रासायनिक पदार्थों का उपयोग औषधि एवं आहार के रूप में किया जाता है, प्रायः उन्हें हजम करना पड़ता है। यदि पाचन तंत्र दुर्बल हो, या उन पदार्थों को शरीर अस्वीकृत करे तो फिर वह सभी प्रस्तुतीकरण बेकार बन जाता है जो उपयोगी रासायनिक पदार्थों के रूप में रक्त संस्थान तक पहुँचाया जाना है। वाष्पीकृत औषधियों के संबन्ध में ऐसी कोई समस्या नहीं है। कृमि कीटनाशक जड़ी-बूटियों को अग्नि में डालने पर वह वायुभूत बनकर व्यापक क्षेत्र में फैल जाती है और रोग-कृमियों को विनष्ट कर रोगोत्पत्ति के कारणों को ही समाप्त कर देती हे। साथ ही उस परिशोधित प्राणवायु में सभी को साँस लेने का अवसर मिलता है जिससे अंतरंग एवं बहिरंग दोनों क्षेत्रों को स्वस्थ एवं परिपुष्ट रखने में महत्वपूर्ण सहायता मिलती है।

अग्निहोत्र की व्यापक वातावरण पर उपयोगी प्रतिक्रिया होती है। पर्जन्य के रूप में प्राणवर्षा, प्राणियों की समर्थता का संवर्धन-ऋतुओं की अनुकूलता, वनस्पतियों का परिपोषण, रोगाणुओं का शमन जैसे कितने ही भौतिक लाभ प्राचीन काल में अग्निहोत्र से मिलते रहे हैं और यदि उस ज्ञान को फिर से खोज निकाला जाय तो पुनः मिल सकते हैं।

यज्ञ में रोग निरोधक शक्ति है। उससे प्रभावित शरीरों पर सहज रोगों के आक्रमण नहीं होते। यज्ञाग्नि में जो जड़ी-बूटी, शाकल्य, आदि होमे जाते हैं। वे अदृश्य तो हो जाते है पर नष्ट नहीं होते। सूक्ष्म बन कर वह वायु में मिल जाते हैं और व्यापक क्षेत्र में फैलकर रोगकारक कीटाणुओं का संहार करने लगते हैं। यज्ञ धूम्र की इस शक्ति को प्राचीन काल में भली प्रकार परखा गया था। इसके उल्लेख शास्त्रों में स्था-स्थान पर उपलब्ध होते हैं। जैसे यजुर्वेद 2-25 में कहा गया है - “ अग्नि में प्रक्षिप्त जो रोगनाशक, पुष्टि प्रदायक और जलादि संशोधक हवन सामग्री है, वह भस्म होकर वायु द्वारा बहुत दूर तक पहुँचती है और वहाँ पहुँचकर रोगादिजनक घटकों को नष्ट कर देती हैं।” इसी तरह अथर्व वेद 1/8 में कहा गया है - “ अग्नि में डाली हुई यह हवि रोग कृमियों को उसी प्रकार दूर बहा ले जाती है, जिस प्रकार नदी पानी के झागों को। यह गुप्त से गुप्त स्थानों में छिपे हुए घातक रोग कारक जीवाणुओं को नष्ट कर देती है। “ तपेदिक “ जैसी जानलेवा बीमारियों की चिकित्सा यज्ञोपचार से किये जाने का भी उल्लेख है। चरक चि. स्थान अ. 8 श्लोक 12 में कहा गया है -

प्रयुक्तता यथ चेष्ट्या राजयक्ष्मा पुरोजितः। ताँ वेद विहिता मिष्टभारोग्यार्थी प्रयोजयेत्॥

अर्थात् “ तपेदिक सीखे रोगों को प्राचीन काल में यज्ञ प्रयोग से नष्ट किया जाता था। रोग मुक्ति की इच्छा रखने वालों को चाहिए कि वे इस यज्ञ का आश्रय लें।”

सर्वविदित है कि पदार्थ के तीन स्वरूप होते हैं - ठोस, द्रव और गैस। कोई पदार्थ नष्ट नहीं होता, वरन् परिस्थितियों के अनुरूप इन्हीं तीन स्थितियों में अदलता–बदलता रहता है। वायुभूत हुआ पदार्थ साँस के माध्यम से सरलतापूर्वक काया के कण-कण में अतिशीघ्र पहुँचाया जा सकता है जबकि चूर्ण, गोली, सीरप आदि के रूप में उसे उदरस्थ करने और पचाने के बाद प्रभावी बनाने में विलम्ब ही नहीं लगता है वरन् अंश भी बहुत थोड़ा ही हाथ लगता है। नसों द्वारा इंजेक्शन में सरलता मानी जाती है और उस माध्यम से उपचार सामग्री भीतर पहुँचाने का उपाय खोजा गया है। फिर भी सफलता का पूरी तरह पथ प्रशस्त हुआ नहीं। क्योंकि रक्त के श्वेतकण चोर दरवाजे से घुसने वालों से सदा संघर्ष करते हैं। कई बार तो विद्रोह तक खड़ा कर देते हैं। इंजेक्शन पद्धति आँशिक रूप से ही सफल हुई है, किन्तु पदार्थ को वायुभूत बनाकर उसे शरीर में प्रवेश कराने की पद्धति ऐसी है जिसे निरापद, सरल और सफल होने का अपेक्षाकृत अधिक अवसर है। अग्निहोत्र की उपचार प्रक्रिया ऐसी ही है जिसमें रासायनिक पदार्थों को अधिक सरल और सशक्त बनाने का नया मार्ग प्रशस्त होता है।

अग्निहोत्र द्वारा रोग निवारक और परिपोषक पदार्थ वायुभूत होकर जब भीतर पहुँचते हैं तो अपनी सूक्ष्मता के कारण स्वभावतः अधिक प्रभावी होते हैं। अन्यान्य चिकित्सा उपचारों की अपेक्षा यज्ञोपचार के माध्यम से औषधियों एवं पोषक तत्वों से शरीर को लाभान्वित कर सकना अधिक सरल है इस प्रक्रिया की एक और विशेषता है कि साँस नाक द्वारा ली जाती है और वह मस्तिष्क मार्ग से फेफड़ों में होती हुई समस्त शरीर में वितरित होती है। अस्तु यज्ञ द्वारा विस्तृत “गैस” का प्रमुख लाभ मस्तिष्क को मिलता है। इस प्रकार एक तीर से दो निशाने सधते हैं और शारीरिक ही नहीं मानसिक उपचार भी बन पड़ता है।

अमेरिका के रेन्डेल टाउन, मेरीलैण्ड स्थित लेडी लिण्डका का “ अग्निहोत्र संस्थान” हवन चिकित्सा के लिए ख्याति प्राप्त कर रहा है। वहाँ नित्य नियमित रूप से यज्ञ होता है और रोगियों पर उसके प्रभाव-प्रतिफल की वैज्ञानिक जाँच पड़ताल की जाती है। अनुसंधान कर्ताओं का कहना है के यज्ञीय धुम-ऊर्जा का लाभदायक परिणाम तो होता ही है, यज्ञ भस्म भी चमत्कारिक सत्परिणाम प्रस्तुत करता है। इसके प्रयोग से हर कोई लाभान्वित हो सकता है।

यज्ञ भस्म-हवन में शेष बची हुई राख है। यों इसे अधिक से अधिक कोई माँगलिक पदार्थ माना जा सकता है, पर कई बार उसके उपयोग से बहुमूल्य औषधियों से भी अधिक प्रभाव परिणाम निकलता देखा गया है। उसे पौष्टिक खाद्य पदार्थ के रूप में स्वास्थ्य संवर्धन के लिए भी प्रयुक्त किया जा सकता है। सूक्ष्म सामर्थ्य से सम्पन्न यज्ञ भस्म-चरु अथवा कोई भी पदार्थ इतने अधिक स्वास्थ्य-वर्धक-बलवर्धक हो सकते है जिनकी तुलना महंगी औषधियाँ एवं फल-मेवे भी नहीं कर सकते। पश्चिम जर्मनी के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक बर्ट होल्ड जैहल ने हवन की भस्म पर गहन अनुसंधान किया है। वे स राख का विभिन्न बीमारियाँ पर नये-नये परीक्षण करने में निरत हैं। उनका कथन है कि हवन से बची अवशिष्ट राख रोगों के उपचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हे। होम्योपैथी दवाओं की विधि द्वारा उसका परिणाम जाँचने परखने के बाद उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि सामान्य सी लगने वाली इस भस्म में असामान्य रोग निरोधक क्षमता विद्यमान होती है। होम्योपैथी एवं एलोपैथी दवाओं के उपयोग से होने वाले साइड इफेक्ट का शमन करने की क्षमता इसमें विद्यमान है। अपने अनुसंधान कार्य को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने अब तक हवन-भस्म से खाने, मलहम लगाने, अग्निहोत्र आईड्राप, अग्निहोत्र-शलाका, अग्निहोत्र क्रीम इत्यादि के निर्माण में सफलता पाई है।

शारीरिक रोगों से अधिक इन दिनों मानसिक रोग फैले हैं। व्यक्तित्व को विकृत बनाने वाली सनकें तथा आदतें ऐसी मानसिक बीमारियाँ हैं जो मनुष्य को अर्ध विक्षिप्त बनाये रखती हैं। ऐसे व्यक्ति स्वयं दुख भोगते और साथियों को दुख देते हैं। उनका कारगर उपचार अन्य चिकित्सा पद्धतियाँ तो प्रस्तुत नहीं कर सकीं पर विश्वास है कि यज्ञोपचार से शारीरिक और मानसिक रोगों से उससे कहीं अधिक छुटकारा दिला सकेगा जितना कि अन्य सभी चिकित्सा पद्धतियाँ मिल-जुलकर दिलाती हैं।

अग्निहोत्र से न केवल मनुष्य लाभान्वित होता है, वरन् अन्यान्य प्राणी स्वास्थ्य संरक्षण एवं संवर्धन प्रक्रिया के अतिरिक्त अग्निहोत्र के अनेकानेक लाभ हैं। उनमें से एक यह भी है कि वायुमंडल में संव्याप्त-विषाक्तता का अनुपात कम करने -उसे निरस्त करने की उसमें अपूर्व क्षमता है। हवन की गैस में कार्बनमोनोऑक्साइड का अत्यल्प अंश रहने पर भी औषधियों, घृत आदि दृव्य पदार्थों का वाष्पीय प्रभाव उसे नष्ट करके लाभकारी बना देता है। इसमें स्थित उड़नशील सुरभित पदार्थ निर्विघ्न रूप से लाभदायक परिणाम प्रस्तुत करते हैं। इसके अतिरिक्त हवन-गैस से स्थान, जल, मिट्टी आदि अनेक तत्वों की शुद्धि हो जाती है। मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ जाती है और पोषक अणुओं को बढ़ाने वाले आव-तत्व उसमें बढ़ जाते हैं। इसी कारण अग्निहोत्र धूम्र से पूरित पर्जन्य से युक्त मेघ अणु और औषधियों को निर्मलता और पुष्टि प्रदान करते हैं।

यज्ञोपचार प्रक्रिया में किस रोग में विधान से किस मंत्र एवं औषधि का उपयोग किया जाय, इसकी रहस्यमयी विद्या का मन्थन आज फिर से किया जाना जरूरी है। शाँतिकुँज के ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान में यज्ञ विद्या को विशेषतया अग्निहोत्र को अपनी शोध में सम्मिलित किया गया है। जब उसके सत्परिणाम सामने आयेंगे तो निश्चय ही यह चिकित्सा पद्धति संसार की सर्वश्रेष्ठ समूह चिकित्सा का स्थान लेगी।


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