“यह अकथ कथा है, कहता कही न जाई”

October 1984

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बाल पहेलियों और कबीर की उलट बांसियों की तरह गीता में एक रहस्यों भरा श्लोक है, जिसमें कहा गया है-

या निशा सर्वभूतानां तस्या यां जागर्ति संयमी। यस्यां जागर्ति भूतानां सा निशा पश्यतो मुनेः ॥

अर्थात्- जब सब प्राणियों की रात होती है तब संयमी जागा करते हैं। जब सब प्राणी जागा करते हैं, तब मुनि सोया करते हैं।

शब्दार्थ को देखते हुए यह आश्चर्यजनक और असम्भव प्रतीत होता है। जब सब लोग जगा करें तब मनीषी गण सोया करें तो यह बात बड़े अचंभे की होगी। संयमी लोग जब रात्रि को जगेंगे तो उन्हें किसी से वार्तालाप व्यवहार करने का अवसर न मिलेगा। मुनि लोग जब जगेंगे तब सारी दुनिया सोई हुई होगी। ऐसी दशा में वे सदा एकाकी रहेंगे। अथवा यों कहें कि सर्वसाधारण के विपरीत उनका आचरण होगा। ऐसी दशा में उन्हें किसी से सामान्य व्यवहार करते न बन पड़ेगा। जब लोगों के व्यवहार का समय होगा तो वे सो जाया करेंगे। ऐसी दशा में वे सदा दुनिया के लिए सोए हुए होंगे। यह विचित्र बात सामान्य समझ से परे लगती है। ऐसे तो दुनिया का लाभ उस व्यक्ति को न मिल सकेगा और उससे दुनिया का कोई व्यक्ति न संपर्क साध सकेगा, न लाभ उठा सकेगा। ऐसी स्थिति में रहकर संयमी या मुनि एक प्रकार से मूर्च्छित या मृतक कहलाएंगे।

इस पहेली का तात्पर्य यह है कि आध्यात्मवादी और भौतिकवादी के चिन्तन, चरित्र एवं व्यवहार में ठीक उल्टी स्थिति होती है। संसारी लोग जो सोचते या करते हैं, मुनि का चिन्तन ठीक उससे उल्टा होता है। व्यवहार में भी ठीक ऐसी ही प्रतिकूलताएँ होती है। स्वयं कबीर के शब्दों में “कहत कबीर यहुँ अकथ कथा है कहता कही न जाई।” विधि की व्यवस्था पर उनका यह संकेत मात्र है।

सांसारिक मनुष्य मात्र शरीर को ही सब कुछ मानते हैं और उसी के लिए मरते-खपते हैं। शरीर सुख-सज्जा ही उनके लिये सब कुछ होती है। इसके लिये वे आत्मा को बड़ी से बड़ी क्षति पहुँचाते रहते हैं। इसके विपरीत जो आत्म पारायण व्यक्ति हैं, वे शरीर की सुख-सुविधाओं की उपेक्षा करते रहते हैं। मात्र निर्वाह ही उनके लिए पर्याप्त होता है। वे जानते हैं कि सीमित सात्विक जीवनचर्या ही निरोग बनाये रहती है और दीर्घ जीवन प्रदान करती है। सात्विक रहन-सहन सस्ता होता है। आज धन और इन्द्रिय पारायण चर्या अपनाने के लिए महँगे साधन इकट्ठे करने पड़ते हैं, जिसके लिए अनीति उपार्जन के बिना काम नहीं चलता। ऐसे साधन एकत्रित करने पर साज-सज्जा तो अवश्य बढ़ जाती है पर उसके लिए बेईमानी- अनीति अपनाये बिना काम नहीं चलता। इसके लिए आत्मा धिक्कारती रहती है। सादगी का रहन-सहन अपनाने पर ठाठ-बाट तो नहीं उनता, तरह-तरह के स्वादों के विलासों की व्यवस्था तो नहीं बनती पर आत्मा सदा संतुष्ट- प्रमुदित बनी रहती है। सादगी अपनाने पर उच्च विचार धारण किये रहने का सुयोग बना रहता है। विवेकवानों के लिए यह स्थिति हर दृष्टि से शान्तिदायक और संतोषजनक होती है।

उपरोक्त दोनों ही परिस्थितियाँ परस्पर सर्वथा प्रतिकूल हैं। दोनों में जमीन-आसमान जितना अंतर है। इसी अंतर को ध्यान में रखते हुए गीताकार ने सोने और जागने की उपमा दी है। सोने का अर्थ है विरति, उपेक्षा और अवहेलना। जागने का तात्पर्य है उत्साह, आतुरता, लालच आकाँक्षा। यह दोनों ही बातें एक दूसरे से विपरीत ही तो होती हैं।

जीवन के अनेकानेक पक्ष हैं। आहार, विहार, उपार्जन, उपभोग, संग्रह इन सबकी अपनी-अपनी अभिरुचियाँ हैं, अपने-अपने स्वाद हैं। इन्हें उपार्जित करने सम्बन्धी भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण हैं और उपभोग सम्बन्धी अलग-अलग मान्यताएँ हैं। आहार को ही लें। किसी को स्वाद रहित, सात्विक आहार रुचिकर लगता है तो किसी को मिष्ठान्न, पकवान, षट्रस व्यंजन, सो भी इतनी मात्रा में कि पेट फूलने-फटने लगे। किसी को आधा पेट आहार से भरना है, चौथाई पानी के लिए और चौथाई हवा के लिए छोड़ना है। दोनों में कितना अधिक अंतर हुआ। इन्द्रिय भोगने के लिए किसी को मर्यादाओं का ध्यान रखना होता है। यह गाँठ बाँधनी पड़ती है कि इन जंगली घोड़ों को मनमानी छूट दी गयी तो जीवनी शक्ति को खोखली करके छोड़ेंगे, इसलिए इन्हें अंकुश वाले हाथी की तरह- लगाम वाले घोड़े की तरह- नकेल वाले ऊँट की तरह काबू में ही नहीं रखना है वरन् लक्ष्य तक पहुँचाने की सही राह पर भी चलाना है। विशेषतया कामुकता का चिन्तन और व्यवहार ऐसा रखना है कि वर्जनाओं की तोड़-फोड़ न होने पाए। माता, बहिन, बेटी, पुत्री की मान्यताओं पर किंचित व्यतिरेक न होने पाए।

पशु-पक्षी तक मर्यादाएँ पालते हैं। मादा के आह्वान पर ही प्रजनन हेतु काम सेवन करते हैं। फिर मनुष्य तो अधिक विचारशील है। उसे तो जीवन शक्ति के बचाव का, नीति और मर्यादा का और भी अधिक पालन करना है। जो इस सन्मार्ग पर जागरूक है, उसे समझना चाहिए कि मुनि की तरह, योगी की तरह उस समय भी जागता है जबकि पशु-प्रवृत्ति के लोग निद्राग्रस्तों की तरह नीति और मर्यादा के सम्बन्ध में उनींदे बने रहते हैं। सोते हुए व्यक्ति को न कपड़े सम्भालने का होशो-हवास रहता है और न मुंह खोलने, बन्द करने का। विवेकवान- अविवेकी को ही यहाँ जागृत और निद्रित की संज्ञा दी गयी है।

वस्त्र विन्यास की विहार पद्धति में एक प्रकार के लोगों को “सादा जीवन उच्च विचार” के अनुरूप सादगी और सज्जनता का ध्यान रहता है। दूसरे ऐसे सजे फिरते हैं जैसे रंग-बिरंगे गुड्डे गुड़िया। दोनों में से पहले को मानवी गरिमा को, अन्तः की उत्कृष्टता को बनाये रखने का सदा ध्यान रहता है तो दूसरे को बहिर्मुखी जीवन ही रुचिकर लगता है। इसी के बलबूते वह अन्यों पर अपनी छाप पड़ने की भ्रान्तिपूर्ण अनुभूति करता रहता है।

एक पक्ष को ईमानदारी की- न्यायोपार्जित कमाई का ध्यान रहता है और न्यूनतम में निर्वाह करके जो बचता है, उसे पुण्य-परमार्थ में, सत्प्रयोजन में- लोक मंगल में लगाने का सदैव ध्यान बना रहता है। दूसरा पक्ष न्याय-अन्याय का कुछ भी ध्यान न रखकर जैसे भी बने वैसे कमाने और आवश्यक अनावश्यक संग्रह करने की ललक में मग्न रहता है। बेहिसाब खर्च करता और तंगी भुगतते हुए ऋणी बना रहता है। किसी को देना तो दूर, जैसे भी बन पड़े, हड़पने में वह भय लज्जा का विचार नहीं करता।

आध्यात्मिक जीवन जागृत जीवन है और मर्यादा रहित भौतिक जीवन सोता हुआ। दोनों का मध्यवर्ती अन्तर स्पष्ट है। दोनों के बीच चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में जमीं-आसमां जैसा अंतर होता है। एक को सज्जनता के अतिरिक्त दूसरा कुछ किसी भी मूल्य पर स्वीकार नहीं। दूसरा उद्दण्ड असुरों की तरह किसी बात का विचार किए बिना लूटते-खसोटते खाते और बिगाड़ते हैं।

वेदान्त मानवी व्यक्तित्व की मर्यादा बताता हुआ कहता है त्वचा, शरीर, सम्प्रदाय, मत, धर्म और राष्ट्रीयता कभी मनुष्य की सीमा नहीं हो सकते। जैसे-जैसे मनुष्य अपने अज्ञान पर विजय पाता है, वैसे-वैसे इन सीमाओं को भी पार कर लेता है। कहा भी है-

अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसांम्। उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥

अर्थात्- यह मेरा देशवासी है, यह परदेशी है- ऐसी दृष्टि केवल ओछे मन वालों की है। एक उदार मन के लिए तो सारा संसार कुटुम्ब है।” गीताकार ने सम्भवतः इसी तथ्य को दृष्टिगत रख मुनि और संयमी को जागृत कहा है और उद्दंडों- संकीर्णों को प्रसुप्त। दोनों अपने अन्तर के अनुरूप प्रतिफल भी प्राप्त करते हैं।


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