ज्योतिर्विज्ञान को नूतनता का चोला पहनाया जाये

October 1984

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आधुनिक वैज्ञानिकों ने यह स्वीकार कर लिया है कि पदार्थ परक सभी शक्तियाँ अथवा मूल प्रेरक बल एवं ब्रह्मांड में प्रभावी चेतन क्रियाएँ एक ही केन्द्र से उत्पादित व नियंत्रित होती हैं। यह ऋषियों की उस मान्यता से मेल खाता है जिसमें समस्त ब्रह्मांड में क्रियाशील एक ही शक्ति स्रोत के विषय में उद्घाटन करते हुए कहा गया है- “एकं सद्विप्रा बहुधा वदान्ति”- ऋग्वेद (1।264।46) अर्थात्- वह परम सत्ता एक ही है किन्तु विज्ञजन उसी ब्राह्मी सत्ता को अग्नि, यम, मातरिश्वा आदि नामों से पुकारते हैं।

पुनः कठोपनिषद् (1।2।20) का ऋषि कहता है-

अणोरणियान महतो महियान। आप्मस्य जन्तोह निहितो गोहयम्॥

अर्थात्- छोटे से बड़े आकार के सभी पदार्थ एक शक्ति से सम्बन्धित तथा नियन्त्रित होते हैं।

इन आप्त वचनों से स्पष्ट होता है कि आधुनिक विज्ञान द्वारा ज्ञात किया गया- ब्रह्मांडीय एकत्व का समस्त बलों के एकीकरण का सिद्धान्त ऋषियों को बहुत पूर्व ही मालूम हो चुका था। उसी आधार पर उनने ज्योतिर्विज्ञान का स्वरूप विकसित किया था तथा उसके माध्यम से पदार्थों व शक्तियों के बीच पारस्परिक क्रियाओं का अध्ययन करने में सफलता प्राप्त की थी। साथ ही उनने ब्रह्मांडीय सूक्ष्म रहस्यों को भी उद्घाटित किया था, जिसे ज्योतिर्विज्ञान विद्या में निहित कर दिया गया।

वस्तुतः पदार्थ विज्ञान की समस्त विधाओं का आधार स्तम्भ ज्योतिर्विज्ञान ही है। न्यूटन, गैलीलियो, कोपरनिकस व अन्यान्य श्रेष्ठ वैज्ञानिकों ने अपने कार्य इसी क्षेत्र से आरम्भ कर इसी तथ्य की पुष्टि की है तथा इसे आधुनिक विज्ञान का जन्मदाता बतलाया है। मैं कौन हूँ? मैं कहाँ से आया हूँ और कहाँ जाऊँगा? संसार की उत्पत्ति कैसे हुई तथा इसका भविष्य क्या है? इस जगत का विस्तार कितना हुआ है? जगत के समस्त घटकों के बीच पारस्परिक संबंध कैसा है तथा उसका क्या परिणाम होता है? आदि ऐसे जटिलतम वैज्ञानिक प्रश्न हैं, जो ज्योतिर्विज्ञान के माध्यम से ही हल हो सके हैं। उसी को आधार मानकर आज के वैज्ञानिक ब्रह्मांड भौतिकी पर अनुसन्धान रत हैं।

आर्ष वांग्मय में ज्योतिर्विज्ञान को ज्योतिर्विज्ञान को ज्योतिष नाम से महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। ज्योतिष का शाब्दिक अर्थ शक्ति अथवा नक्षत्रों का ज्ञान होता है। अतः यह वह विज्ञान है जो ब्रह्मांडीय शक्ति तरंगों एवं नक्षत्रों की गतिविधियों का अध्ययन करता है। स्पष्ट शब्दों में इसे शक्ति के विभिन्न घटकों की पारस्परिक क्रिया का विज्ञान कह सकते हैं। अर्थात् पंचतत्वों एवं शरीर के विभिन्न अवयवों अथवा शक्ति-बलों के बीच पारस्परिक क्रिया के परिणामों का अध्ययन ही ज्योतिर्विज्ञान है। इसका सम्बन्ध मूलतः सूर्य तथा सौर मण्डल के अन्यान्य ग्रहों एवं पृथ्वी तथा उसके निवासियों के बीच पारस्परिक क्रियाओं से है। इस परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्धों के आधार पर ही ज्योतिर्विज्ञान की समग्र पृष्ठभूमि बनती है।

सृष्टि के आरम्भ से ही ज्योतिर्विज्ञान का स्वरूप आर्ष साहित्य में प्रकट हुआ पाया जाता है। ऐसा उल्लेख शास्त्रों में मिलता है कि ऋषि गर्ग ने इस ज्योतिर्विज्ञान को विश्व सृजेता ब्रह्मा जी से सीधे प्राप्त किया था। तदुपरान्त उनने उस विद्या को अन्यान्य ऋषियों तक पहुँचाया था। मनु, कपिल, भृगु, सहदेव, अस्ति, बाराहमिहिर, वशिष्ठ, भास्कराचार्य, आर्य भट्ट आदि ज्योर्तिविद्या के प्रकाण्ड विद्वान माने जाते थे। इन्होंने सामान्य उपकरणों के माध्यम से अदृश्य जगत का अनुसंधान कर अनेकों ऐसे निष्कर्ष निकाले जिन्हें आज भी सत्यापित होते देखा जा सकता है।

सृष्टि की रहस्यमयी गुत्थियों को सुलझाने के लिए ऋषियों ने “अपरा और परा” विद्या की नींव डाली थी। सृष्टि के भौतिक स्वरूप का अध्ययन अपरा विद्या के माध्यम से किया जाता था। परन्तु ऋषियों ने परा की तुलना में अपरा विद्या को छोटे स्तर का माना था। क्योंकि इससे जगत के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं हो पाता। जगत का वास्तविक स्वरूप सूक्ष्म में अन्तर्निहित है, जिसका ज्ञान परा विद्या के माध्यम से हो सकता है। परा विद्या को ऋषियों ने “अतीन्द्रिय”- “सूक्ष्म योग शक्ति ग्राह्य” बताया था। योगीजन इसी का आश्रय लेकर परोक्ष की शोध करते थे। प्रकारान्तर से जो परा विद्या में निष्णाँत थ, तपः पूत योगी थे, वे ही ज्योतिर्विज्ञान के अनुसंधान में सक्षम होते थे।

वेदों का सम्बन्ध परा विद्या से ही है और ज्योतिष को वेदों का नेत्र कहा गया है। इस प्रकार ज्योतिष को भी परा विद्या के माध्यम से ही समझा जा सकता है। अर्थात् ज्योतिर्विज्ञान का स्पष्टीकरण स्थूल दृष्टि से कदापि नहीं, प्रत्युत अतींद्रिय सूक्ष्म योग शक्ति से ही सम्भव है। साथ ही यह भी स्मरणीय है कि चूँकि परा विद्या एक उच्चस्तरीय गणित है, अतः ज्योतिष भी उच्चस्तरीय गणित ही है। भारतीय ज्योतिर्विद् भास्कराचार्य ने तभी तो अपने प्रसिद्ध ग्रन्थों लीलावती एवं बीजगणित में आधुनिक गणित के प्रारम्भिक सूत्रों की की स्थापना की है। यथा- “योगे रवं क्षेप समम्, रव गुणः रवम्।” अर्थात्- किसी अंक में शून्य जोड़ने अथवा घटाने से उस अंक में कोई अंतर नहीं आता, किन्तु किसी अंक को शून्य से गुणा करने पर गुणनफल शून्य हो जाता है।

उक्त पुस्तक में ग्रह नक्षत्रों की पृथ्वी से दूरी, उनकी गति तथा उस गति से पृथ्वी पर पड़ने वाले सम्भावित प्रभावों से सम्बन्धित महत्वपूर्ण सूत्रों का भी वर्णन है।

ऋषि परम्परा के जीवन्त होने के कारण ही ज्ञान विज्ञान की दृष्टि से भारत कभी विश्व का शिरोमणि था। उसने अपने सिद्धान्तों व अनुभवों से समस्त विश्व को आलोकित कर रखा था। भारतीय ज्योतिष विद्या को विश्व भर में मान्यता प्राप्त थी। आर्य संस्कृति का प्रसार विस्तार करने वाले परिव्राजक ऋषिगणों ने इसे वसुधा के कोने-कोने तक पहुँचा दिया था।

ईसा से 200 वर्ष पूर्व वैज्ञानिक स्तर के प्रयास आरम्भिक स्तर पर ही चल रहे थे। तब मशीनों आदि का तो सर्वथा अभाव ही था। उस स्थिति में भी यूनान के भूगोलज्ञ क्लाडियस टालमेयस ने ब्रह्मांडीय संरचना सम्बन्धी दर्शन को प्रतिपादित करने के लिए ख्याति प्राप्त की थी उसने अपने शोध प्रयासों के लिए भारतीय गणित और तर्कशास्त्र का ही अवलम्बन लिया एवं अपने ग्रन्थों में बड़े सम्मानपूर्वक इन सूत्रों को उद्धृत भी किया। उसी आधार पर उसने पृथ्वी की कक्षा तथा अन्यान्य ग्रहों के परिभ्रमण चक्र का मानचित्र बनाया था, जिससे ग्रह नक्षत्रों की स्थिति जानने में काफी सफलता मिली, जो उन दिनों की वैज्ञानिक प्रगति को दृष्टिगत रख एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी।

टालमेयस ने स्वप्रतिपादित दर्शन तथा गणितीय गणनाओं को अपने ‘ज्योतिष महानिबन्ध’ (अलमागेस्ट) नामक ग्रन्थ में प्रकाशित करवाया। अपनी गणितीय गणना के आधार पर उसने 1028 नक्षत्रों की भी जानकारी दी। आधुनिक यन्त्रीकृत वैज्ञानिक खोजों के समक्ष टालमेयस का सिद्धान्त तो अब बौना प्रतीत होता है, फिर भी उस प्रतिभाशाली व्यक्ति का प्रयास सराहनीय है, जिसने यन्त्राभाव में भी उन दिनों इतने महत्वपूर्ण निष्कर्ष प्रस्तुत करने में सफलता प्राप्त की।

छठी शताब्दी में पुनः भारत के आचार्य ब्रह्मगुप्त ने ज्योतिर्विज्ञान पर महत्वपूर्ण काम किया। उनने ‘ ब्रह्म स्फुट सिद्धाँत’ तथा ‘खण्ड खाड्यक’ नामक दो महान ग्रन्थों की रचना की। इन ग्रंथों में सौर मण्डल के ग्रह नक्षत्रों की स्थिति, गति एवं गणना सम्बन्धी सूत्र दिए गए हैं। सातवीं और आठवीं शताब्दी में इनका अनुवाद अरबी भाषा में भी हुआ। वहीं से वह मध्य एशिया के ग्रीस आदि देशों में पहुँचा।

11 वीं सदी में भारत की यात्रा करने वाले महान अरबी विद्वान अलबरूनी बाराहमिहिर द्वारा प्रतिपादित ग्रन्थों से बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने उनके अनेकों ग्रन्थों का अनुवाद अरबी भाषा में करवाया। अरब देशों में ज्योतिर्विद्या का प्रसार इसी प्रकार सम्भव हुआ। पिरामिडों की रचना में ज्यामिती का प्रयोग यह बताता है कि उन दिनों उत्तर अफ्रीका मध्य एशिया एवं विद्या के क्षेत्र में अग्रणी भारत में पारस्परिक सघन सम्बन्ध थे। खगोल गणित पर आधारित ये अद्भुत संरचनाएं किसी भारतीय तत्वदर्शी की देख-रेख में बनवाई गई हैं, ऐसा विद्वानों का मत है। खोजियों का कहना है कि दिल्ली की कुतुबमीनार भी वस्तुतः एक वेधशाला थी जो नक्षत्रज्ञ बराहमिहिर द्वारा स्थापित की गई थी। इसका प्राचीन नाम मेरु स्तम्भ था। आक्रमणकारियों ने उसका स्वरूप बदलकर कुतुबमीनार नाम दे दिया, जो मेरु स्तम्भ का ही मुगलों द्वारा किया गया अरबी अनुवाद है। इसके माध्यम से नक्षत्रों की जानकारी प्राप्त कर प्रतिकूलताओं से बचने व अनुकूलताओं से लाभ उठाने की व्यवस्था की जाती थी।

वर्तमान में भौतिक विज्ञानियों ने भी ज्योतिष के क्षेत्र में छुई-मुई प्रयास आरम्भ किया है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक द्वय ड्यूूवी एवं एडिंग्टन ने प्राणियों के ऊपर अन्तर्ग्रहीय प्रभावों का उल्लेख करते हुए बताया कि प्रत्येक ग्रह नक्षत्रों का अपना एक वायुमण्डल है और उसका अपना एक इलेक्ट्रानिक नाद भी होता है। यह नाद ही प्राणियों के ऊपर प्रभाव छोड़ता है। गर्भान्तुक शिशु के भविष्य का निर्धारण ये ब्रह्मांड व्यापी तरंगें ही करती हैं।

लुइस डे ब्रोगली के अनुसार प्रत्येक पदार्थ में कणिकाएं तथा स्पन्दी तरंगें प्राकृतिक रूप से होती हैं। उनने इसे पदार्थ तरंग बताया। उनके अनुसार ग्रह नक्षत्रों की भी तरंगें होती हैं जो मनुष्य के ऊपर सतत् प्रभाव छोड़ती रहती हैं। पृथ्वी की तरंगों का कान्तिमान 3.6 गुना 10 पर घात 31 सेण्टीमीटर होता है। परन्तु इसका अनुभव नहीं होता। पृथ्वी के कम्पन का कान्तिमान 8.25 गुना 10 पर घात 66 नम्बर प्रति सेकेंड होता है, फिर भी उसका ज्ञान स्थूल दृष्टि से सम्भव नहीं।

ब्रह्मांड व्यापी इस प्रभावशाली नाद अथवा तरंगों के समुच्चय को समझने हेतु वैज्ञानिकों ने अनेकों दूरदर्शी यन्त्र एवं सैटेलाइट्स आकाश में छोड़ रखे हैं। कैम्ब्रिज मैसा चुसेट्स से सम्बन्धित ‘ज्योतिष विज्ञान शोध गृह’ के संचालक डा. ब्रेन मार्सडेन के अनुसार पूरे विश्व में 300 दूरबीनें- वेधशालाओं में लगी हैं। परन्तु यह अपरा विद्या का अंग है जिससे ब्रह्मांड सम्बन्धी समग्र ज्ञान सम्भव नहीं। तरंगों की लम्बाई, कम्पन गति को ज्ञात कर मात्र स्थूल आयामों तक पहुँचा जा सकता है। पर विद्या पर आधारित आत्मिकी की ज्योतिर्विज्ञान शाखा इसके विपरीत नाद-ब्रह्म, शब्द की शक्ति को विज्ञान सम्मत विधि से बेध करने की क्षमता रखती है। कब किन कम्पनों का- कणों की बौछार व अंतर्ग्रही प्रभावों को कैसे जीव जगत- वनस्पति समुदाय एवं वातावरण समुच्चय पर प्रभाव पड़ेगा, इसके लिए खगोल गणित के सूत्रों को ऋषियों ने आज से काफी पूर्व ही जान लिया था। इसी आधार पर दृश्य गणित पंचांग बनाया जाता था।

नाद से ही सृष्टि की उत्पत्ति हुई है, यह अध्यात्म विज्ञान की मान्यता है। जिस बिग बैंग से सृष्टि के जन्म होने की चर्चा एस्ट्रो फिजीसिस्ट करते हैं, वह ओंकार अथवा नाद का ही एक रूप है। आज शक्ति की शब्द ब्रह्म परक उस शक्ति सामर्थ्य का उद्घाटन बड़े विशद रूप में आर्ष ग्रन्थों में किया गया है। आज विज्ञान की उपलब्धियों के संदर्भ में, आधुनिक उपकरणों को पुरातन वेधशाला से समन्वित कर फिर उसी ज्योतिर्विज्ञान का पुनर्जीवन सम्भव है जो ब्रह्माण्डीय जगत की प्रतिकूलताओं से जीव जगत को बचाता था। यह जानकारी प्राप्त कर मानवता को लाभान्वित किया जा सकता है एवं आडम्बर पाखण्ड के चंगुल में फँसे ज्योतिष शास्त्र को पुनः विज्ञान सम्मत बनाया जा सकना सम्भव है। युग सन्धि के परिप्रेक्ष्य में यह अब और भी महत्वपूर्ण हो गया है।


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