एकान्त साधना में विक्षेप न किया जाय

October 1984

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जिन फलों के भीतर अधिक कोमल और महत्वपूर्ण फल मज्जा, गूदा होता है, उनके ऊपर छिलका अधिक कड़ा होता है। अनार, कटहल, नारियल कुछ इसी प्रकार के फल हैं। इनके छिलके ही अन्दर के रसीले भाग की रक्षा करते हैं। जिनके छिलके पतले-कमजोर होते हैं, उन्हें पक्षियों से बचाना कठिन हो जाता है। अमरूद, पपीता, आम ऐसे फल हैं जिनके ऊपर पतला छिलका होने से उनकी रखवाली करनी पड़ती है। पेट में पलने वाले जानवर एक मजबूत झिल्ली के भीतर पलते हैं ताकि पेट की हलचलें उन्हें नुकसान न पहुँचा पाएँ। जिन पक्षियों के पेट में सुरक्षा का प्रबन्ध नहीं होता वे अण्डे देते हैं। अण्डे का छिलका बच्चे की वृद्धि और सुरक्षा के हिसाब से मजबूत होता है। यही प्रजनन प्रक्रिया की व्यवस्था सूक्ष्मीकरण पर लागू होती है। एक से पाँच बनने का प्रयोग ऐसा है, जिसके लिए बाहर से नुकसान न पहुँचा सकने वाली सुरक्षा व्यवस्था का प्रबन्ध अनिवार्य हो जाता है।

एकाकी निवास का प्रबन्ध इसलिए करना पड़ रहा है कि भीतर का सुरक्षा कवच मजबूत रहे एवं बाह्य तत्व किसी प्रकार की क्षति न पहुँचाने पायें। बहुत आवागमन मिलने-जुलने के क्रम से उस व्यवस्था को क्षति पहुँचती है जो चारों ओर से घेरा चाहती है। जहाँ स्वाभाविक घेरा नहीं होता, वहाँ कृत्रिम प्रबन्ध करना पड़ता है। चिड़िया अंडे को समुचित गर्मी पहुँचाने के लिए छाती के नीचे दबाकर सेती रहती है। इस प्रक्रिया को नर और मादा दोनों ही बारी-बारी बैठकर पूरा करते हैं। यदि कोई आदमी अण्डों को छू ले और उसके हाथों की गन्ध अण्डे को स्पर्श मात्र कर ले तो मादा उन्हें फिर नहीं सेती। अण्डा सड़ जाता है। सूक्ष्मीकरण में एक को पाँच बनना है। यह पाँच अण्डे एक साथ सेने के बराबर है। इसके लिए न केवल मजबूत घेरे की आवश्यकता है। वरन् सेकने के अनुपात की गर्मी भी चाहिए। यह तभी हो सकता है जब बाहर के आवागमन पर प्रतिबन्ध रहे। जब तक अण्डे पक नहीं जाते तब तक प्रतिबन्ध रहेगा ही। अंडे में से बच्चे निकलने के बाद वे बिना पंखों के चूजे होते हैं। इनकी सुरक्षा घोंसले की परिधि में होती है। इसमें प्रवेश निषिद्ध होता है। चिड़िया के गन्ध के हिसाब से अपने पराये का अन्तर जानती है। यदि कोई ऐसी उलट-पुलट करे व किसी चिड़िया के अण्डे-चूजे उठाकर किसी के घोंसले में रख दे तो चिड़िया को घोंसले तक में उसका पता चल जाता है एवं साज सम्भाल में अंतर आ जाता है।

सूक्ष्मीकरण की प्रक्रिया में गुरुदेव को अन्दर अपना घोंसला बना कर रहना पड़ रहा है। रहने का स्थान न केवल सीमित रखना पड़ रहा है, वरन् वह सुरक्षित भी रखना पड़ रहा है। इसमें प्रवेश हेतु संबंध सूत्र हैं। उनके साथ साझेदारी मुद्दतों से निभती रही है। वे उनकी पिछली साधनाओं में भी साझीदार रही है। इसमें भी हैं। एकदम बाहरी वातावरण से सम्बन्ध काट लेने के कारण मिशन की गतिविधियों की जानकारी देने और आवश्यक निर्देशन- परामर्श प्राप्त करने हेतु वे मध्यस्थ का काम करती रही हैं। शरीर के लिए भोजन, वस्त्र का निर्देशन तो गुरुदेव का ही रहता है, पर उस सामग्री को जुटाने में भागीदार अपनी उनकी रही है। यह प्रबन्ध आरम्भ से ही रहा है। अण्डे को नर-मादा बारी-बारी से सेते हैं। इन दोनों में अब कौन नर है- कौन मादा, यह भेदभाव मिट चुका। जो स्थिति है, साझेदारी की कही जा सकती है। इसके उपरान्त यह घेरा इतना कड़ा और मजबूत है कि इससे प्रवेश निषेध की आवश्यकता पूरी हो जाती है।

प्रत्येक बच्चे को कुन्ती की तरह अलग-अलग शक्तियों से सम्बन्धित रखा जा रहा है ताकि वे अपने-अपने प्रयोजन को यथासमय परिपक्व होकर पूरा कर सके। इसमें कमी रह जाने पर अभिमन्यु का सा कच्चापन रह सकता है। चक्रव्यूह के जो सात घेरे बने हुए हैं उनमें एक के बेधन का रहस्य मालूम न होने पर प्रशिक्षण अधूरा होने पर लक्ष्य अधूरा रह जाने का- अभिमन्यु के प्राण गँवाने जैसा संकट सामने आ सकता है।

जो तथ्य, लक्ष्य और रहस्य को नहीं जानते, वे प्रायः आग्रह करते रहते हैं कि उन पर यह प्रतिबन्ध लागू न किया जाय क्योंकि वे पुराने हैं, अधिक घनिष्ठ-आत्मीय हैं, मिशन के अधिक शुभेच्छु रहे हैं। यह सारी बात सही होते हुए भी वे यह भूल जाते हैं कि कितने बहुमूल्य अण्डे बच्चे इन दिनों पाले जा रहे हैं। घुसपैठ का सिलसिला चला देने पर उद्देश्य का गुड़-गोबर हो जाएगा। एक को मिलने की छूट देने के बाद फिर कोई तर्क या ऐसा न रहेगा जिसके कारण अन्यान्यों को रोका जा सके। रोकथाम न रहने पर घोंसले का वातावरण ही बदल जाएगा और जिस परिश्रम से, जिस आशा से इस बार पिछली सभी साधनाओं से भिन्न प्रकार की उच्चस्तरीय साधना की जा रही है, उसका प्रयोजन ही अस्त-व्यस्त हो जाएगा।

जिस आवास स्थली में- कोठरी में रहा जा रहा है, जहाँ तक एक-दो का ही प्रवेश वाँछित समझा गया है, उसे अभिमन्त्रित-कीलित किया गया है। इसमें जो प्रयोग चल रहे हैं वे अद्भुत हैं। कुछ ऐसे हैं, जो रात्रि को करने पड़ते हैं तब दिन में सोकर काम चलाया जाता है। कुछ दिन में करने के हैं। कुछ मन्त्र ऐसे हैं जिनमें तनिक भी एक शब्द की भी भूल हो जाने पर उच्चारण तन्त्र ही उलट-पुलट सकता है। इसलिए प्रयोग चलाते समय क्षण-क्षण में यह देखभाल करनी पड़ती है कि शरीर और मस्तिष्क का सन्तुलन ठीक रह रहा है, या नहीं। बिगड़ता है तो उसे हाथों हाथ सुधारना पड़ता है।

सभी जानते हैं कि मानव माता एक बच्चा जनती है। कदाचित दो जनने पड़ें तो आपरेशन की- सीजेरियन सेक्शन की आवश्यकता पड़ जाए। अधिक बच्चे पेट में हों तो वे सभी अविकसित कम भार के होते हैं। बच्चे तो मरते ही हैं, जननी के भी प्राण संकट में रहते हैं। सभी सही रूप में जन्में, दुबले कमजोर न भी हों, माता के लिए भी प्राण संकट न खड़ा हो तो उसे सम्पन्न करने के लिए कितनी कुशलता की जरूरत पड़ेगी, इसे भुक्तभोगी एवं विशेषज्ञ ही समझ सकते हैं। सूक्ष्मीकरण की विधा जितनी महत्वपूर्ण है, उसी के अनुरूप उसके लिए प्रतिबन्ध भी लगाने पड़ रहे हैं। सुरक्षा प्रबन्ध भी उसी स्तर के करने पड़ रहे हैं। यह एक वैज्ञानिक प्रयोग है जो ऋषि परम्परा का एक अंग है। साधारण ज्ञान परक साधनाओं में ज्ञान, कर्म और भक्ति के सनातन प्रयोग काम दे जाते हैं। उसमें सामान्य उपासनाऐं बिना जोखिम की होती हैं। किन्तु विज्ञान के प्रयोगों में प्रयोक्ता के लिए भी जान जोखिम बन जाती है। अणु संयन्त्र बनाने- बिगाड़ने में तनिक भी अस्त-व्यस्तता बन पड़े तो उसमें अपने लिए तथा दूसरों के लिए खतरा ही खतरा है।

खतरे की बात भुलाई नहीं जा सकती। कृष्ण जब छोटे थे तब भी पूतना, कालिया नाग, तृणावर्त जैसे कितने ही संकट आ खड़े हुए थे। रामचन्द्रजी को भी बचपन में कितनी ही विपत्तियों का सामना करना पड़ा था। ऋषियों के बड़े और महत्वपूर्ण कार्यों प्रयोगों में कितने ही संकट आए। विश्वामित्र के छोटे से यज्ञ में ताड़का, सुबाहु, मारिचि जैसे तीन-तीन असुर एक साथ आक्रमण करने आ पहुंचे। गुरुदेव पर जनवरी वाले आक्रमण को अभी भूलने के दिन नहीं आये हैं। फिर आगे भी निश्चिन्त हो सकें ऐसा समय नहीं आया है। जिन शक्तियों से जूझना है वे छोटी नहीं हैं। जो वजन हटाना है, वह हल्का नहीं है। ऐसी दशा में जो कार्य हाथ में लिया गया है, उसमें पूरी तरह सतर्कता का उपयोग करना पड़ रहा है। इसमें प्रथम एवं महत्वपूर्ण एकान्त साधना है। इसमें विक्षेप उत्पन्न करने का प्रयास किसी भी प्रियजन या शुभ चिन्तक को कभी नहीं करना चाहिए।


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