आस्तिक बनाम नास्तिक

October 1984

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दार्शनिक अर्नाल्ड टॉयनबी ने लिखा है- “परमात्मा का नाम रटते रहना ही यदि आस्तिकता है तो मुझे ऐसे आस्तिक की अपेक्षा नास्तिक कहलाना अच्छा लगेगा। मैंने यह सोचा और जाना है कि अपने आपको सच्चे, ईमानदार के रूप में विकसित करना पूजा से अधिक श्रेयस्कर है।”

“मैं अपने पर आस्था रखता हूँ। और अपनी आत्मा पर अगाध श्रद्धा। क्योंकि वही मेरा भगवान है। मैं सोचता हूँ कि यदि अपने आप को भगवान बनाया जा सके तो फिर आस्तिकता का असली प्रयोजन पूरा हो जायेगा। पर यदि आस्तिकता की परिभाषा इतनी भर है कि व्यक्ति कितना ही निकृष्ट क्यों न बना रहे पर थोड़ी पूजा पाठ करके अपने को ईश्वर भक्त समझे तो मुझे ऐसी भक्ति से चिढ़ है और भक्त कहलाने में ऐतराज भी। ऐसी दशा में यदि कोई मुझे नास्तिक कहे तो इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं।”

“मैंने सचाई को नाम रटने से बेहतर समझा है और दुःखियारों की सेवा के समतुल्य। अपने को भला बनाना और गिरतों को उठाने में सहायता करना मैंने इबादत से कभी कम नहीं माना। जब भी चिन्तन और मनन का अवसर मिला है, तभी मैं यह सोचता रहा हूँ कि दूर रहने वाले भगवान को तलाश करने की अपेक्षा यह क्या बुरा है कि अपनी अन्तरात्मा को इतना अच्छा बनाया जाय कि वह ईश्वर के समतुल्य समझी जा सके। जिन्हें पूजा से प्रेम है, उनसे मैं इतना और कहता हूँ कि पूजा करने वाले को इस लायक बनाओ कि पुजारी कहलाने के हकदार बना सको।”

“मैं दुनिया में आस्तिकों की बढ़ोत्तरी देखना चाहता हूँ। पूजा का विस्तार सब जगह हो ऐसा मेरा मन है पर साथ ही यह भी सोचता हूँ कि किसी आस्तिक पर बेईमान होने का कलंक न लगे और पूजा करने वाले के सम्बन्ध में यह न कहा जाय कि अपने को बिना धोये, गन्दे गलीज मन से वह ईश्वर को बहका रहा है।

भजन करने के लिए सबसे अच्छी और एकान्त की जगह अपना अन्तःकरण है। अच्छा हो पहले हम उसे झाड़-बुहारकर इतना अच्छा बनायें कि इंसान के सारे गुण उसमें दीख पड़ें। प्रार्थना का मन्त्र मैं यह जपना चाहता हूँ कि “हे सज्जनता के पुँज! मुझे ऐसा भक्त बनाना जो सज्जन से कम न आँका जा सके। मुझे स्वर्ग जाना पड़े या नरक। पर वहाँ रखना जहाँ तू है। मैंने सुना है जिनके हृदय में करुणा बरसती है वहाँ तेरा निवास है। यदि ऐसा है तो मुझे दुःखियारों के गाँव में जगह देना भले ही लोग उसे नरक कहें। तू मुझे पसन्द करे या न करे पर मैं तुझे पसन्द करूं। पसन्दगी से पहले हमारे रिश्ते सचाई और ईमानदारी के हों। हममें से कोई किसी को ठगे नहीं और ऐसा कुछ न कहें, जिसकी हकदारी वाजिब नहीं है। आस्तिक भले होते हैं या नास्तिक, यह पहचान तू अपने पास रख। मुझे वह बना जिसके मन में इंसान के ताई दर्द हो और वह दर्द सेवा सहायता के लिए मजबूर कर दे।”

“भले कामों में समय लगे या पूजा प्रार्थना में, इसका चुनाव यदि मेरे ऊपर छोड़ा जा सके तो मेरी पसन्दगी नोट की जाय कि मुझे भला बनना और बनाना पसन्द है। हे परम पिता! तेरे रहने की जगह यदि सातवें आसमान पर हो तो मुझे एक ऐसी टूटी झोंपड़ी में रहने देना जहाँ दुखियारों का बसेरा हो।”

आस्तिक बनना मुझे पसन्द है। पर वह आस्तिकता ऐसी न हो जो घमण्डी और पाखण्डी बना दे और करुणा को छीनकर कुछ और हाथ में थमा दे।


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