कुत्सा भड़काने वाली अश्लीलता को मिटाया जाय

October 1984

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अश्लीलता को अनैतिक माना गया है। शरीर के वे अंग जो कामाचार से सम्बन्धित हैं उन्हें निर्वस्त्र न रखने की मर्यादा है। उन पर दृष्टिपात करने से कामुकता भड़कती और उन मर्यादाओं को तोड़ने के लिए मन चलता है जो नर और नारी के बीच शील मर्यादाओं का पुल बाँधें हुए है।

मनुष्यता के साथ कितने ही ऐसे शील जुड़े हुए हैं जो पशु-पक्षियों में कीट पतंगों में नहीं है। उनमें अस्तेय नहीं है। किस वस्तु पर किसका अधिकार है यह ज्ञान उन्हें नहीं होता इसलिए खानपान की वस्तुएँ जिसे जहाँ मिलती है वह वहाँ से हथियाने लगता है। दया, क्षमा, उदारता, कृतज्ञता जैसे गुण भी उनमें नहीं होते। स्वार्थ को तनिक सा आघात लगते ही वे क्रुद्ध होते और लड़ने मरने को तैयार हो जाते हैं। इसी प्रकार यौनाचार के सम्बन्ध में कोई मर्यादा उनमें नहीं है। भिन्न लिंग के साथ यौनाचार करने में उन्हें कोई लज्जा, भय, संकोच नहीं होता। किन्तु मनुष्य को वैसी छूट नहीं है। मनुष्य वस्त्र पहनते हैं। विशेषकर कामुकता से संबंधित अवयवों को ढ़ककर रहते हैं। यह मानवोचितशील है। इसकी मर्यादाओं का उल्लंघन करना अश्लीलता कहलाती है, जो हेय मानी गई है।

जननेन्द्रिय, जंघाए, वक्ष, कमर जैसे अवयव देखने से कामोत्तेजना उभरती है और यौनाचार के लिए मन चलता है। इसलिए स्त्रियाँ भी और पुरुष भी इन अंगों को ढक कर रखते हैं। इनके नग्न प्रदर्शन से मनोविकार भड़कते हैं, जो यौनाचार शील पर आघात पहुँचाते हैं।

मानवीय शील के अंतर्गत अपनी वैध धर्मपत्नी या धर्म पति के साथ ही यौनाचार की छूट है। अन्यों के साथ विभिन्न सम्बन्धों की विधा है। स्त्रियाँ अन्य पुरुषों के साथ पिता, भाई या पुत्र के सम्बन्ध रखें इसी प्रकार पुरुषों को नारियों के प्रति माता, बहिन या पुत्री के भाव रखने चाहिए। कामुकता की दृष्टि इन मर्यादाओं को तोड़ती और मानवशील को आघात पहुँचाती है। इसीलिए चोरी जैसे अपराधों में उसे गिना गया है।

यौनाचार की पृष्ठभूमि उन अंगों के नग्न प्रदर्शन से बनती है। जिन्हें देखने या छूने का अधिकार परस्पर पति-पत्नि को ही है। छूने के साथ ही देखने की भी गणना होती है। यह आधार चित्रों तक चला गया है। निर्वस्त्र चित्र, जिनमें कामुकता भड़काने वाले अवयव दिखते हैं अश्लीलता की परिधि में आते हैं और उनका देखना, दिखाना, बेचना, खरीदना दण्डनीय अपराध माना जाता है। यह इसलिए कि इससे ऐसी कामुकता भड़कती है जो नर-नारी के पवित्र एवं वैध सम्बन्धों का उल्लंघन करने के लिए उत्तेजित करती है। यह उत्तेजन दृश्य साधनों से भी हो सकता है एवं श्रव्य साधनों से भी। इन दिनों दोनों ही समाज में खूब प्रचलित हैं। इनका खुला विरोध तो बहुत कम देखा जाता है, किन्तु मौन रूप में उन्हें सुनते-देखते अपनी कामुकता की वृत्ति को पोषण देते अनेकों देखे जा सकते हैं। पतनोन्मुख प्रवाह स्वाभाविक रूप से नीचे की ओर बढ़ता है और इस झोंके में बहुसंख्य व्यक्ति आ जाते हैं। सच्चे साहसी वे होते हैं जो इनसे अप्रभावित हो इनका खुला विरोध करते हैं। औरों को भी आदर्शों के प्रति सहमत करते व स्वयं आगे बढ़ते देखे जाते हैं।

सामान्यतया फिल्मी गीतों, शादी-ब्याह में गाये जाने वाले गानों, लोक गीतों में प्रयुक्त शब्दों की अनदेखी कर दी जाती है। इसी प्रकार कैलेंडरों में देवी-देवताओं के चित्रों में भाव-भंगिमाओं, वस्त्र परिधान आदि भी उत्तेजक बनाये जाते हैं। यह भी अनुचित है। यही कारण है कि अश्लीलता की व्यापक परिभाषा में उत्तेजना प्रदान करने वाले दृश्य एवं श्रव्य उपकरणों की भी गणना होती है।

इस संदर्भ में कई कदम आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। ऐसी साज सज्जा अथवा आकृति मुद्रा को क्या कहा जाय जो कामुकता की दृष्टि उत्पन्न करती है। इसका निरूपण करना हो तो किसी ऐसी सज्जा या मुद्रा में करनी चाहिए जो हमारी बहिन या पुत्री की हो। स्वभावतः हम चाहते हैं कि वे सौम्य हों। उनके वस्त्र अथवा अंगशील मर्यादा का पालन करते हों। उन पर अश्लीलता की उँगली न उठती हो। इस मर्यादा के टूटने पर हमारी आँखें नीची हो जाती हैं। जिसने वह चित्र मुद्रा अथवा सज्जा बनाई हो, उस पर क्रोध आता है। ऐसे निर्माण में यदि अपनी बहिन या पुत्री ने सहयोग दिया हो, उत्साह दिखाया हो, आग्रह किया हो तो उस पर भी क्रोध आता है। निकटवर्ती सगे सम्बन्ध होते हुए भी इसे चरित्रहीन कहने की मान्यता पनपती है और इच्छा होती है कि वह दृश्य जल्दी ही आँखों के सामने से हटा दिया जाये।

प्रसंग यहाँ नारी मात्र की सुरुचिपूर्ण सज्जा का है। कुछ समय से प्रचलन ऐसा चला है जिसमें हम अपने घरों की नारियों को ऐसे वस्त्रों से सजाते हैं जो आम पहनावे में नहीं आते। जो स्वाभाविक नहीं हैं। जो अपनी विचित्रता के कारण दर्शकों की आंखें अपनी ओर खींचती हैं। नवयौवन की आयु में तो ऐसी वेष-भूषा विशेष रूप से आँखें अपनी ओर खींचती हैं और वह खिंचाव उत्तेजक होता है। इस आकर्षण को मात्र उनके पति ही देखें ऐसा अनुबन्ध नहीं है। रास्ता चलते लोग भी देखते हैं और उस प्रदर्शन में कामुक-ललचायेपन का आकर्षण भी होता है। यह विशुद्धतः अश्लीलता हुई। नग्न अथवा अर्द्धनग्न चित्रों को इसलिए अश्लील कहा गया है कि इससे कामुकता की दृष्टि उत्पन्न होती है। इस कसौटी पर ऐसे वस्त्र, शृंगार, उपकरण भी आते हैं जिससे किसी नारी के सम्बन्ध में कुत्सित कल्पना उठती हो।

इन दिनों फैशन के नाम पर ऐसे वस्त्र, उपकरण एवं शृंगार साधनों का प्रचलन चल पड़ा है जो हमारे घरों की बहू-बेटियों का ऐसा स्वरूप सर्वसाधारण के सम्मुख प्रस्तुत करता है जिसे अर्ध अश्लील कहा जा सके। इससे घटिया दृष्टिकोण वाले पुरुषों की कामुक दृष्टि उभरती है और वे कभी-कभी उस उत्तेजना में ऐसे प्रदर्शन या व्यवहार करने लगते हैं जिन्हें अवाँछनीय कहा जाय। इसमें पूरा दोष लफंगे पुरुषों का नहीं उन महिलाओं का या उनके घर वालों का भी है जो अपने घरों की बहू-बेटियों को गुड़िया की तरह सजाकर निकालते हैं। उत्तेजक वेश-भूषा पहनाने में अपना बड़प्पन मानते हैं।

इन दिनों प्रगतिशीलता का समय बताया जाता है। नर और नारी की समानता का नारा लगाया जाता है। यदि यह सही है तो महिलाओं को वैसे ही सादे वस्त्र पहनने और उपकरण सजाने चाहिए जैसे कि पुरुष पहनते हैं। लफंगों या छिछोरों की बदमाशी का विरोध करने के लिए अन्यान्य उपायों में एक यह भी अपनाया जाना चाहिए कि सयानी बहू-बेटियों के वस्त्र सादगी वाले हों। नर और नारी की समानता का नारा यदि सच्चे मन से लगाया गया है तो पुरुषों के नाक, कान छेदकर उनमें आभूषण पहनाये जायें। अथवा नारियों को भी उनसे मुक्त किया जाए।

यदि सचमुच ही विचारशीलता का युग आ रहा है तो नर और नारी दोनों को ही सीधे सादे सौम्य और लगभग एक जैसे कपड़े पहनने चाहिए। इससे दोनों ही वर्गों में समानता का भाव पैदा होगा। नारी सजधज कर जब गुड़िया बनकर निकलती है, अपनी शील अंगों को रंगों से, आकर्षक वस्त्रों तथा उपकरणों से सजाकर निकलती है तो इसका अर्थ यह होता है कि उसने अपने को रमणी-कामिनी के रूप में प्रस्तुत किया। यह नारी का हेय एवं लगभग अश्लील स्वरूप है। प्रगतिशीलता के इस युग में नारी को लगभग नर जैसी सज्जा पर सन्तोष करना होगा। अश्लीलता के विरुद्ध आवाज बुलन्द करते हुए हमें आकर्षक एवं कामुकता भड़काने वाले वस्त्र शृंगार का समापन ही करना चाहिए ताकि नारी के प्रति सहज श्रद्धाभाव बढ़े।

रेशम नाइलोन की ऐसी साड़ियां या वस्त्र जिनमें नग्नता ढकने के लिए नीचे दुहरा वस्त्र पहनना पड़े, शालीनता के विपरीत है। वर्षा होने लगे और कपड़े भीग जायें अथवा नदी तालाब आदि में खुला स्नान करना पड़े तो ऐसे वस्त्र लज्जा जनक स्थिति पैदा कर देते हैं, सारा शरीर नंगा दिखने लगता है। कई बार तो वर्षा न होने पर भी महीन वस्त्र पहनने वाले की बेइज्जती करते हैं। वक्षस्थल और कमर भी ऐसे स्थान हैं जिन्हें शील परम्परा के अनुसार ढका रहना चाहिए। जिन वस्त्रों के पहनते ही कटि प्रदेश खुला दीखे उन्हें अश्लीलता की श्रेणी में गिना जा सकता है। वक्षस्थल और उभार ढके रहने के लिए चुनरी ओढ़ने का रिवाज रहा है अब उसके स्थान पर कृत्रिम उभार प्रदर्शित करने वाले झीनी चुनरी पहनना ऐसा है जिन पर दर्शकों की अनायास दृष्टि जाती है और उन अंगों को गोपनीय रखने की परम्परा का उल्लंघन होता है।

आभूषणों में सभी ऐसे हैं जिन्हें नारी को गुड़िया बनाने की लज्जित स्थिति में ले जाने वाला कहा जा सकता है। विशेषतया नाक कान के बड़े आकार के आभूषण चेहरे को घूर-घूर कर देखने का निमंत्रण देते हैं। होठों का रंगना भी ऐसा ही निमंत्रण है जो मनचले दर्शकों को कामुक दृष्टि से देखने का निमंत्रण देते हैं।

सादगी सबसे बड़ी शोभा है। विशेषतया जबकि कामुकता की धूम है, लोगों की कुदृष्टि बढ़ रही है। ऐसी सज्जा वाली महिलाओं के सम्बन्ध में अनुपयुक्त मान्यता बनाई जाती है और छेड़खानी की जाती है। शालीनता की माँग यही है कि सादे वस्त्र पहने जाएँ। इसके पहनने वाले का पैसा बचता है। आदर्शवादी पहनाव को देखकर यह अनुमान लगता है कि यहाँ ऐसा मानस तथा निर्धारण है जिसे सौम्य कहा जाय। नर और नारी एक समान का सिद्धान्त जब भी जहाँ भी प्रकट करना होगा तो सजावट वाले कपड़ों और आभूषणों का मोह छोड़ना ही होगा। सौम्य शालीनता एवं आदर्शवादिता के विस्तार के अतिरिक्त यौन संपर्क सम्बन्धी भ्रान्ति निवारण हेतु भी यह अनिवार्य है कि परिधान-मुद्रादि की पवित्रता पर अधिक ध्यान दिया जाए। यह प्रयोजन अनावश्यक प्रतिबन्धों से सम्भव नहीं। इसके लिए तो नर एवं नारी दोनों को स्वेच्छा से सद्भाव की महत्ता समझनी होगी, ताकि वे सौजन्य से साथ रह जीवन शकट चलाते रह सकें एवं प्रगति की दिशा में एक दूसरे के पूरक बन सकें।


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