दूरदर्शी सत्परिणामों को ध्यान में रखते हुए स्वार्थ सिद्धि की जो रूपरेखा बनाई जाती है, उसी को परमार्थ कहते हैं। स्वार्थ शब्द घटिया नहीं है, उसका प्रयोग घटिया ढंग से होने के कारण यह बदनाम हुआ है। अपनी भलाई जब अवाँछनीय उपार्जन और उपयोग तक बढ़ जाती है तब हेय एवं अनैतिक कहलाती है। वस्तुतः परमार्थ में ही सच्चा स्वार्थ है।
जो इसे समझता है, वह जीवन की रीति-नीति कुछ इस प्रकार बनाता है कि स्वयं का हित साधन करते हुए भी समाज सेवा का प्रयोजन पूरा होता है। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। श्वेतकेतु ब्रह्म विद्या जानने के लिए बहुत दिन से गुरु गृह में निवास कर रहे थे। पर अभीष्ट अनुदान उन्हें नहीं मिला।
गुरु की निष्ठुरता से खिन्न होकर एक दिन आश्रम की यज्ञाग्नि ने कहा- तुम पर दया आती है। गुरु का पल्ला छोड़ो वे जब तक लौटकर आवें तब तक मैं ही तुम्हें ब्रह्म विद्या बताऊँगी। श्वेतकेतु ने अग्निदेव के अनुग्रह का बड़ा उपकार माना। साथ ही अत्यन्त विनम्रतापूर्वक बोले। सेवा किये बिना आपसे जो अनुदान मिलेगा, वह बिना मूल्य मिलने के कारण फलेगा कहाँ?
पात्रता विकसित किए बिना तो उपहार हाथ लगेगा वह टिकेगा कहाँ? अग्निदेव लज्जित होकर अन्तर्ध्यान हो गये। अपनी श्वेतकेतु ने गुरु सेवा करके अपनी पात्रता परिपक्व की और नियत समय पर अभीष्ट अनुदान लेकर वापस लौटे।