अंतर्ग्रही प्रभावों से आत्म रक्षा कैसे करें?

October 1984

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वैदिक काल के ज्योतिर्विदों तथा आधुनिक काल के खगोल भौतिकविदों ने एक तथ्य को ही प्रामाणित किया है कि समग्र प्राणी जगत के ऊपर वातावरण तथा अन्तरिक्षीय अंतर्ग्रही परिवर्तनों का प्रभाव पड़ता है। मनुष्य भी प्राणी समुदाय का एक अंग होने के नाते इससे मुक्त नहीं है। वस्तुतः यह समग्र ब्रह्मांडीय संरचना एक सूत्र में पिरोई हुई है। उनकी बाहरी भिन्नताएँ तो बस दृष्टि भ्रम मात्र है। अतः ब्रह्मांड के एक कण में भी यदि कोई हलचल अथवा परिवर्तन हो तो उससे समस्त ब्रह्मांड प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता।

मनुष्य का सबसे निकट का सम्बन्ध मौसम से है। वर्ष में अनेकों बार मौसम में परिवर्तन होता रहता है तथा तद्नुरूप मनुष्य का शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है। “कैनेडियन क्लाईमेट सेन्टर’ के एक हाल के अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि जिस दिन हवा तेज हो, आर्द्रता बढ़ रही हो, वायु दाब घट रहा हो और तापमान में तेजी से उतार-चढ़ाव आ रहा हो, उस दिन तनावजन्य माइग्रेन रोग होने की बहुत अधिक सम्भावना रहती है। ऐसे व्यक्ति ऐसे मौसम में आत्मघात अधिक करते देखे जाते हैं, चिड़चिड़ापन बढ़ जाता है एवं पारस्परिक कलह, झगड़ों के अवसर बढ़ जाते हैं।

कोलम्बिया यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ की डा. इन्ज गोल्डस्टीन ने अपने अध्ययन निष्कर्ष में बताया है कि उच्च वायु दाब से मौसम ठण्डा रहता है तथा उस दौरान वर्षा नहीं होती। इससे दमे के मरीजों को कुछ राहत मिलती है। जैसे ही आर्द्रता बढ़ती व वातावरण उमस से भर जाता है, दमे का रोग उभर जाता है। इलिनॉयस मेडिकल सेन्टर विश्वविद्यालय की डा. अनिता बेकर- ब्लोकर ने बताया कि दिल का दौरा भी बहुधा मौसम परिवर्तन के परिणामस्वरूप ही उत्पन्न होता है। अध्ययन के दौरान उनने देखा कि दो दिन पूर्व हुई वर्षा के दौरान पुराने हृदयाघात (ओल्ड मायोकार्डियल इन फार्कशन) से मरने वालों की संख्या सामान्य की तुलना में 20 प्रतिशत अधिक थी। वैसे भी हृदय रोग से मरने वालों की संख्या सर्वाधिक होती है।

‘जर्मन वेदर ब्यूरो’ द्वारा मौसम विज्ञान पर आधारित दैनिक स्वास्थ्य बुलेटिन भी जारी किया जाता है जो मौसम के शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों की ओर पूर्व इंगित करता है। नित्य बनते बिगड़ते उच्च और न्यून दाब केन्द्रों और गर्म ठण्डी हवा की चाल के आधार पर यह मौसम पूर्वानुमान तन्त्र मौसम को छः चरणों में विभाजित करता है। मौसम विज्ञानियों के अनुसार प्रत्येक चरण स्वास्थ्य की भिन्न-भिन्न अव्यवस्थाओं- अपस्मार से लेकर पेट दर्द, के बारे में बताता है। आमतौर से उच्च वायु दाब जन सामान्य में स्वास्थ्य की अच्छी स्थिति की ओर संकेत करता है, जबकि न्यून दाब और गर्मी की स्थिति स्वास्थ्य में आने वाली खराबी की ओर इंगित करती है। कितने ही चिकित्सकों ने अब मौसम विज्ञान पर आधारित सेटेलाइट की गणना पर आधारित स्वास्थ्य बुलेटिनों का प्रयोग अपने मरीजों पर करना आरम्भ कर दिया है। समय से पूर्व ही डाक्टर स्वास्थ्य बुलेटिन के अनुरूप सारा सरंजाम जुटा लेते हैं ताकि यदि रोगियों को सचमुच ही वैसी स्थिति उत्पन्न हो जाय तो तुरन्त ही उन्हें उस स्थिति से मुक्त किया जा सके। कभी-कभी कुछ सावधानियाँ बताकर अथवा हल्की औषधियों, प्राणायाम आदि के प्रयोगों से भी रोग की स्थिति आने से बचा लिया जाता है।

पूर्णिमा के चाँद का भी मनुष्य के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इससे सम्बन्धित एक लोकोक्ति है, जिसमें पूर्णिमा के चाँद के प्रभाव से कुछ मनुष्यों को भेड़िया मानव बनते बताया जाता है, इससे भावार्थ यह है कि इसके दुष्प्रभावों से व्यक्ति में हिंसक वृत्तियां उभर आती हैं।

अब अनेक वैज्ञानिक प्रयोग परीक्षणों से यह तथ्य प्रमाणित हो चुका है कि पूर्णिमा के चाँद का मनुष्य पर जैविक एवं भावनात्मक असर पड़ता है। देखा गया है कि पूर्णिमा काल में न्यूरो एन्जाइम्स अपनी क्रियाशीलता सारी काया में बड़ा देते हैं। रक्तचाप, हृदय धड़कन तथा चयापचय प्रक्रिया में भी इस समय तीव्रता अनुभव की गई है।

शिकागो के इलिन्वाइस यूनिवर्सिटी के फार्मकोलॉजी प्रभाग के प्रोफेसर डा. राल्फ डब्ल्यू मोरिस ने अध्ययनोपरान्त पाया कि रक्त स्राव अन्य अवसरों की तुलना में पूर्णिमा के ठीक पहले अधिक क्रियाशील हो जाता है। अपस्मार (मिर्गी) भी इन्हीं दिनों काफी बढ़ते देखे गए हैं। मधुमेह के रोगियों में भी इन्हीं दिनों रक्त शर्करा चरम स्थिति पर पहुँच जाती है।

मनःचिकित्सकों तथा पुलिस विभाग के अफसरों की मान्यता यह है कि पूर्णिमा का चाँद तनाव और चिन्ता को और भी बढ़ा देता है। मनःशास्त्रियों के अनुसार पूर्णिमा के दिन व्यक्ति की हठधर्मिता और आक्रामकता अन्य दिनों की तुलना में बढ़ जाती है। इसके साथ ही अपराध दरों में आश्चर्यजनक वृद्धि इसी दौरान हुई पायी गई है। व्यक्तियों के व्यवहार में आमूल-चूल परिवर्तन अनुभव किये गये हैं।

न्यूयार्क में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि इस पूर्णिमा काल में आगजनी की घटनाएँ अत्यधिक होती हैं। साथ ही देशव्यापी हत्याओं में 50 प्रतिशत वृद्धि होते देखी गयी है। डा. मोरिस ने अपने तथ्यों के समर्थन में एक रोचक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा है कि डेविड बरकोविज डाक तार विभाग का एक कर्मचारी था। उसने कुख्यात ‘सन ऑफ सैम’ हत्याकाण्ड आठ रातों में सम्पन्न किया। इन आठ रातों में से पाँच पूर्णिमा की रातें थीं।

डा. मोरिस के अनुसार मनुष्य के व्यवहार चिंतन में उन्माद लाने वाले इन चन्द्र प्रभावों की व्याख्या करना अत्यन्त जटिल है, क्योंकि पूर्णिमा काल में पृथ्वी सूर्य और चन्द्रमा तीनों एक ही सीधी रेखा में आ जाते हैं। अनुमानतः यह विद्युत चुम्बकीय एवं गुरुत्वाकर्षण सम्बन्ध के ही प्रमाण हैं जो काया के सूक्ष्म विद्युत प्रवाहों पर सीधा प्रभाव डालते हैं। उनमें परिवर्तन लाकर वे स्वास्थ्य को भी प्रभावित करते हैं।

यह एक सर्वविदित तथ्य है कि पृथ्वी को ऊर्जा की प्राप्ति सूर्य से ही होती है। परन्तु अब तो कुछेक वैज्ञानिकों ने यह भी कहना शुरू किया है कि पृथ्वी पर घटने वाली समस्त घटनाएँ सूर्य से प्रभावित होती हैं। कैलीफोर्निया के प्रसिद्ध जीवशास्त्री मारशा एडमस ने प्राकृतिक विपदाएँ, लूटपाट, आगजनी, विस्फोट, हत्याएँ आदि के लिए सौर परिवर्तन को जिम्मेदार ठहराया है। उनने शल्य क्रिया के दौरान हुए रक्तस्राव की मात्रा में सौर गतिविधियों में परिवर्तन के परिणाम स्वरूप कमी महसूस की। एक चिकित्सालय में रोगियों ने भूकम्प की घटना से पूर्व भावनात्मक स्थिरता दिखलाई। कितनों को उल्टी आयी। कितनों के ऊपर एनेस्थेसिया का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। जबकि उन्हें औषधि उचित से अधिक परिणाम में दी गयी। एडमस ने पुनः बताया कि भूकम्प से पूर्व जानवरों के व्यवहार में परिवर्तन सौर गतिविधियों के कारण ही होता है।

एडमस ने इस बात का भी प्रमाण प्रस्तुत किया है कि सौर गतिविधियों में वृद्धि के एक सप्ताह के अन्दर फाकलैण्ड द्वीप में युद्ध की गतिविधियाँ आरम्भ हो गईं थीं। ज्ञातव्य है कि 2 वर्ष पूर्व हुए दक्षिणी महासागर के इस द्वीप को हथियाने हेतु महाशक्तियों में टकराव की नौबत आ गयी थी एवं विश्वयुद्ध की स्थिति बन गई थी।

पिछले दिनों पूर्ण सूर्य ग्रहण के समय आन्ध्रप्रदेश में स्थित ‘इन्स्टीट्यूट ऑफ इन्वायरन्मेंटल स्टडीज’ द्वारा मनुष्य तथा प्राणियों पर सूर्य ग्रहण का क्या प्रभाव पड़ता है, इस विषय पर विशेष अध्ययन किया गया। यह अध्ययन रक्त वर्ग से सम्बन्धित था उसमें शारीरिक तापमान परिवर्तन, रक्तचाप, रुधिर शर्करा स्तर तथा नाड़ी दर पर विशेष ध्यान दिया गया था। मस्तिष्क शोध से ग्रसित बच्चों के आचरण-परिवर्तन पर भी अध्ययन किया गया। सूर्यग्रहण के परिणामस्वरूप रक्त वर्ग के एबी के अलावा अन्य किसी रुधिर वर्ग के व्यक्तियों के शारीरिक तापमान, नाड़ी दर तथा रक्त-चाप में कोई विशेष परिवर्तन देखने को न मिला। किन्तु ‘एबी’ वर्ग के व्यक्तियों के शारीरिक तापमान, नाड़ी दर तथा रक्तचाप में निश्चित रूप से गिरावट आ गई थी। साथ ही बी तथा एबी वर्ग के समुदाय में रुधिर शर्करा स्तर में परिवर्तन देखने को मिला जबकि अन्य वर्ग के लोगों में शर्करा स्तर वहीं बना रहा।

जान एण्टनी वेस्ट और जॉन गेरहार्ड टुण्डा नामक दो पत्रकारों ने अपनी पुस्तक ‘द केस फॉर एस्ट्रालॉजी’ में एक ही समय में जन्मे दो व्यक्तियों के ऊपर अंतर्ग्रहीय प्रभाव की साम्यता का उल्लेख किया है। उनने सैमुअल हेमिंग और जार्ज तृतीय नाम एक दिन ही जन्मे व्यक्तियों का उदाहरण दिया, जिन्हें एक ही दिन विरासत में राज मिला। दोनों देखने में लगभग एक से थे और स्वभाव में भी काफी समानता थी। दोनों का विवाह एक दिन हुआ एवं दोनों की सन्तानों की संख्या भी समान थी। दोनों की एक ही दिन मृत्यु भी हुई। उसे उन्होंने संयोग का अपवाद न मानकर प्रकृति की विचित्रता का परिचायक एक महत्वपूर्ण उदाहरण बताया।

लेखक ने पुनः एक ही दिन, एक ही समय व स्थान पर जन्मे वैज्ञानिक आइन्सटाइन और लेखक जेम्स स्टीफेन्स व जेम्स जायस का उदाहरण दिया जिनकी जीवनचर्या में अद्भुत साम्यता था।

ऐसे अनेकों उदाहरण इस पुस्तक में विद्वान लेखकों ने दिये हैं जो अमुक ग्रह दशा में उत्पन्न व तद्जन्य प्रभावों में पले व्यक्तियों की आन्तरिक स्थिति एवं व्यवहार की एकरूपता पर प्रकाश डालते हैं। प्रकारान्तर से वे खगोल ज्योतिष के उस सिद्धान्त की पुष्टि ही करते हैं जो भास्कराचार्य, आर्यभट्ट आदि ने अपने ग्रन्थों में वर्णित किया है।

ग्रह नक्षत्रों का सभी प्राणियों के ऊपर निस्सन्देह प्रभाव पड़ता है। परन्तु मनुष्य इस ज्ञान से लाभ उठाकर अपनी विवेक बुद्धि के आधार पर उनके प्रभावों को निर्मूल तो नहीं, परन्तु उनसे अपने आपकी सुरक्षा कर सकता है। भारतीय ऋषियों ने इस विषय में कितने ही निर्देश प्रतिपादित किए हैं, जो मानव मात्र के लिए सुरक्षा कवच बन सकते हैं। सूर्य और चन्द्र ग्रहण के समय किसी प्रकार का आहार न लेना- पानी ग्रहण न करना- हो सके तो उस दिन उपवास का क्रम बनाना आदि उनमें से उल्लेखनीय मार्गदर्शन हैं। उनके द्वारा ग्रहणोपरान्त नदी स्नान का माहात्म्य भी बतलाया गया था, जिसका वैज्ञानिक कारण यह है कि ग्रहणकाल में शरीर पर घातक कॉस्मिक किरणों व विषाणुओं का आक्रमण होता है जिसे नदी के जल के स्नान द्वारा ही हटाया जा सकता है। जो प्राणशक्ति सम्पन्न होता है। स्पष्ट है कि प्रवाहित जल में प्राण ऊर्जा समाहित होती है जो घातक विषाणुओं को मारने में समर्थ होती है।

इनके अतिरिक्त ऋषियों ने अंतर्ग्रही प्रभावों से बचने हेतु सबसे महत्वपूर्ण रक्षा कार्य उपासना कृत्य के रूप में सुझाया था। इसके लिए प्राचीन काल में सामूहिक धर्मानुष्ठानों- उपासना क्रमों का प्रचलन था। संकट की अवधि में प्रायः ऐसा किया जाता था और सुरक्षा व्यवस्था बना ली जाती थी। इसका वैज्ञानिक रहस्य यह है कि व्यक्ति समष्टिगत मानसिक एकाग्रता, जो उपासना का प्रधान लक्ष्य है, के आधार पर ब्रह्मांडीय चेतना से सम्बन्ध बनाता है तथा अपने चिन्तन के अनुरूप उसे प्रभावित करता है।

आधुनिक वैज्ञानिकों ने ग्रह-नक्षत्रों तथा मौसम के विषय में जानकारी लेने तथा उनके घातक प्रभावों को निर्मूल बनाने हेतु यन्त्रों का सहयोग लिया है। परन्तु शताब्दी का इतिहास बतलाता है कि दुष्प्रभावों की जानकारी लेने का उनका प्रयास तो ठीक है पर बचने के लिए आत्मिकी का अवलम्बन जरूरी है। कितनी ही बार देखा जाता है कि उन्हें पता भी नहीं चल पाता और हर वर्ष भूकम्प, भूस्खलन, ज्वालामुखी विस्फोट अति-अनावृष्टि की चपेट में करोड़ों की जानें चली जाती हैं। यदि जानकारी हेतु नूतन एवं पुरातन प्रयासों का सामंजस्य बना लिया जाये एवं सुरक्षा हेतु अन्यान्य आधुनिक उपचारों के साथ जीवनी शक्तिवर्धक स्थूल एवं प्राणशक्ति वर्धक सूक्ष्म आध्यात्म उपचारों का आश्रय लेने का प्रयास किया जाय तो अधिक लाभ उठा सकना सम्भव है। योगविज्ञान आयुर्विज्ञान एवं ज्योतिर्विज्ञान तीनों का समुच्चय मानवी स्वास्थ्य को अक्षुण्ण बनाने में काफी लाभकारी सिद्ध हो सकता है। इसके लिए भारतीय अध्यात्मविदों द्वारा प्रणीत विधा का मार्गदर्शन लिया जाना चाहिए ताकि प्रतिकूल से बचा व अनुकूल से लाभ उठाया जा सके।


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