“क्षण भंगुर जीवन का दुरुपयोग न हो”

October 1984

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कई जन्मों पूर्व बोधिसत्व का जन्म काशी नरेश ब्रह्मभद्र के यहाँ छोटे पुत्र के रूप में हुआ। वे राष्ट्राध्यक्ष बनना चाहते थे। कनिष्ठ पुत्र होने के नाते वैसा अवसर उन्हें मिलने वाला नहीं था। उन्होंने ताँत्रिक महासिद्ध प्रत्यंग से अपनी मनोकामना की पूर्ति का उपाय पूछा। महासिद्ध ने बताया कि आगामी मास में तक्षशिला का सिंहासन रिक्त होने वाला है यदि वे तुरन्त चल पड़ें तो अभीष्ट प्राप्ति में सफल हो सकते हैं। पूर्णिमा के दिन प्रभातकाल में राजद्वार पर खड़े व्यक्ति को ही सिंहासन मिलेगा, यह नियति की व्यवस्था है।

आकाँक्षा तीव्र होने के कारण वे चल पड़े। उनके पाँच घनिष्ठ मित्र भी साथ चलने पर तुल गए। चलते समय वे महासिद्ध प्रत्यंग का आशीष लेने पहुँचे सो उन्होंने सफलता का आशीर्वाद तो दिया, साथ ही यह भी बता दिया कि “मार्ग में यक्ष वन पड़ता है। उसमें रूपसी यक्षिणियों का ही अधिकार है। वे रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पर्श जैसे साधनों से ही राहगीरों को लुभाती, भोगती और अन्त में मारकर खा जाती है। इस विपत्ति से बचकर चलने में ही तुम्हारी भलाई है।”

बोधिसत्व साथियों सहित चल पड़े। जल्दी की आतुरतावश विराम पर कम और यात्रा पर अधिक ध्यान था। समय पर यक्ष वन आया। राजकुमार तो सतर्क थे, पर साथी उन कसौटियों पर खरे नहीं उतरे। एक ने पैर की मोच का बहाना लिया व एक रूपसी के यहाँ विराम हेतु रुक गया। दूसरे दिन दूसरा शब्द जाल में बँधा, तीसरे-चौथे-पाँचवें मित्र भी एक-एक करके इन क्षणिक आकर्षणों में मोहित हो बँधते चले गए। एक दिन छूंछ होकर प्राण गँवा बैठे।

धुन के धनी बोधिसत्व किसी प्रलोभन में रुके नहीं, आगे बढ़ते ही चले गए। यक्ष समुदाय के लिये यह प्रतिष्ठा का प्रश्न था कि कोई उनके जाल में फँसे बिना निकल जाये। एक चतुर यक्षिणी उनके पीछे लगा दी गयी। उपेक्षा करते हुए बोधिसत्व बढ़ते रहे, वह पीछे चलती रही। राहगीरों के पूछने पर वह बताती- “ये मेरे जीवन प्राण हैं। उपेक्षिता होने पर भी छाया की तरह साथ चलूँगी।” राहगीरों के समझाने पर राजकुमार वस्तुस्थिति बताते तो भी कोई उनका विश्वास न करता। यक्षिणी जब स्वयं को गर्भिणी, असहाय कहती विलाप करती तो उसका पक्ष और भी प्रबल हो जाता।

ज्यों-त्यों करके बोधिसत्व तक्षशिला समय पर पहुँच गए एवं मुहूर्त की प्रतीक्षा में एक कुँज में निवास करने लगे। किन्तु उस सुन्दरी की चर्चा सर्वत्र दावानल की तरह फैल गयी। ऐसा सौंदर्य किसी ने देखा न था। खबर राजमहल तक पहुँची। राजा ने देखा तो होशो-हवास गँवा बैठे। यक्षिणी को पटरानी बनाने का प्रस्ताव रखा एवं उसकी यह शर्त भी मान ली कि महल के भीतर रहने वाली सभी अन्तःवासियों पर उसका अधिकार होगा।

अब यक्षिणी ने बोधिसत्व को भुला दिया और नए अधिकार क्षेत्र में अभीष्ट लाभ उठाने में जुट गयी। उसने यक्ष वन में अपने सभी सहेलियों को बुलावा भेज दिया। सभी एक-एक करके महल के घरों में रहने वालों के साथ लग गईं व एक-एक करके सभी को छूंछ बनाती चलती गयी एवं अन्ततः उदरस्थ कर गईं। नियत मुहूर्त से एक दिन पहले ही राजमहल का घेरा अस्थि पिंजरों से भर गया। राजा-प्रजा में से कोई न बचा। बाहर स्थित नगरवासियों द्वारा जब किले का फाटक तोड़ने और भीतर की स्थिति देखने की तैयारी हुई तो वहाँ बोधिसत्व खड़े हुए थे। उन्होंने स्तम्भित प्रजा जनों को आदि से अन्त तक सारी कथा कह सुनाई।

नगर को यक्षिणी के त्रास से मुक्ति दिला सकने योग्य बोधिसत्व ही लगे सो उन्हें राज सिंहासन पर आरुढ़ कर दिया गया। प्रचण्ड पुरुषार्थ- मनोबल सम्पन्न राजा के कारण यक्षिणियों की मण्डली को भी पलायन करना पड़ा।

सिंहासनारूढ़ बोधिसत्व ने कुछ समय उपरान्त प्रबुद्ध प्रजाजनों की एक संसद बुलाई और कहा- “शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श की पाँच यक्षिणियों इन्द्रिय लिप्साओं के रूप में जहाँ भी आधिपत्य करेंगी, वहाँ के नागरिकों का सर्वनाश होकर रहेगा। जो भी इतना मनोबल जुटा ले कि इन दुष्प्रवृत्तियों से जूझ सके, वह जीवन संग्राम में निश्चित ही विजय पाता है।”


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