सूक्ष्म संपर्क की महान परिणतियाँ

October 1984

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अखण्ड-ज्योति गत 47 वर्षों से प्राणवान परिजनों व प्रज्ञा मिशन के दैवी सूत्र-संचालन के मध्य एक कड़ी की भूमिका निभाती आई है। जब-जब भी किसी परिजन ने स्वयं को विभीषिकाओं की- प्रतिकूलताओं को तमिस्रा में घिरा पाया है, उसे समाधान परोक्ष रूप से पत्रिका के माध्यम से सतत् मिलता रहा है। स्थूल दृष्टि रखने वाले परिजन प्रत्यक्ष संपर्क को ही सब कुछ मान बैठते हैं। एक सीमा तक यह स्नेह बन्धन उचित भी है, फिर भी यह मान्यता कि बिना पूज्य गुरुदेव से मिले- अपनी समस्या कहे, इनका निवारण होने वाला नहीं है, काफी सीमा तक इन दिनों खण्डित होती गई है। इसे एक-एक वर्ष के तीन अज्ञातवास की अवधि में पूज्य गुरुदेव ने कर दिखाया है कि यदि वे परोक्ष के पर्दे पीछे चले जायें तो भी वह सारी विधि-व्यवस्था स्वतः गतिशील रहेगी, अनुदानों का क्रम चलता रहेगा, किसी परिजन को निराशा नहीं होगी।

विगत बसन्त पर्व से पूज्य गुरुदेव ने प्रत्यक्ष संपर्क बहुत सीमित कर दिया था, फिर रामनवमी के बाद तो वह मात्र 1-2 तक ही सीमित होकर रह गया। आश्रमवासियों, नित्य आने वाले सैकड़ों भावुक दर्शनार्थियों तथा पत्रों से व्यक्त होने वाली भावनाओं से उस व्यथा की अनुभूति हुई जो किसी को अपने संरक्षक पिता-मार्गदर्शक की अनुपस्थिति से हो सकती है, हो रही थी। किन्तु जैसे-जैसे उनकी सूक्ष्मीकरण साधना ने प्रचण्ड रूप लिया, सभी को स्वतः ऐसा लगने लगा कि गुरुदेव हमसे दूर नहीं गए, और पास आ गए हैं। इतने समीप कि हम उनकी अनुभूति चौबीस घण्टे करते रह सकते हैं।

योगीराज अरविन्द ने अपने प्रत्यक्ष मिलने जुलने का क्रम इसी कारण बन्द किया था कि मनोकामना पूर्ति एवं शंका समाधान वाले तथाकथित जिज्ञासुओं वे नष्ट होने वाला समय बचे एवं वे अपना बहुमूल्य समय विश्व विभीषिकाओं को निरस्त करने में लगा सकें। श्री माताजी वह भूमिका निभाती थीं जो श्री अरविन्द ने बहुत समय तक सम्पन्न की थी। उनके वर्ष में 2 बार दर्शन से ही जनसाधारण को संतोष हो जाता था। उन्हें लगता था कि ऋषि के दृष्टिपात मात्र ने उनकी समस्याएँ दूर कर दीं। दैनन्दिन जीवन की उलझनें निष्ठावान व्यक्तियों की स्वतः मिट जाती थीं। अरविन्द आश्रम पांडिचेरी में अभी जाने पर तो वह अनुभूति सम्भवतः न हो पर जब श्री माताजी सशरीर विद्यमान थीं, वहाँ जाने वालों को सतत् यह आभास होता था कि योगीराज उनके स्वयं के आसपास हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के संकट भरे बादलों से मानवता को त्राण दिलाने, अणुबम की विध्वंस लीला की चपेट में एक व्यापक समुदाय को आ सकने से बचाने तथा भारत को स्वतन्त्रता दिलाने में उनने जो भूमिका परोक्ष रूप से निभाई, उससे सभी भली-भाँति अवगत हैं। कैसे चमत्कारी ढंग से गाँधीजी का अहिंसा आन्दोलन सफलता की ओर बढ़ता चला गया, इसका इतिहास पढ़ने वाले महर्षि अरविन्द एवं रमण की मूक-एकाकी साधना को भुला नहीं सकते।

आज परिस्थितियाँ उससे भी विषम हैं। तृतीय विश्वयुद्ध की सम्भावनाएँ हर घड़ी सबको भयभीत व चौकन्ना बनाये हुए हैं। एक बम विस्फोट ने अपने विकराल रूप द्वारा द्वितीय विश्वयुद्ध का समापन कर दिया था। आज वैसे ही न्यूट्रान बम जो उस एक अकेले से भी अधिक शक्तिशाली हैं, सारे विश्व के पन्द्रह से भी अधिक राष्ट्रों के पास कुल 60 हजार की संख्या से भी अधिक हैं। यह पृथ्वी को दसों बार पूरी तरह ध्वस्त करने के लिए पर्याप्त हैं। यदि इनका उपयोग न भी हुआ तो इन्हें ‘डम्प’ करने पर जो रेडियो धर्मिता वातावरण में फैलेगी उसकी परिणति वैज्ञानिक निरन्तर गत 2-3 वर्षों से बताते आ रहे हैं। वह एक यूटोपिया नहीं है, वरन् हकीकत है, एक कड़वी सच्चाई है।

मानव-मानव के बीच विषमता की खाई बढ़ती चली जा रही है। विश्व शान्ति की बातें एक मंच से होती है तो साम्प्रदायिक विद्वेष, जातिगत- ऊँच-नीच परक मतभेद दूसरे मंच से स्वर उठाने लगता है। विश्व दो खेमों में बँट गया लगता है। एक पूँजीवादी विचारधारा का पक्षधर कहा जाने वाला समूह जिसमें वे सम्पन्न साम्यवादी राष्ट्र भी आ जाते हैं जिनकी कथनी व करनी अलग-अलग हैं। दूसरा समूह है- तथाकथित तृतीय विश्व का जिसमें विश्व के सारे गरीब राष्ट्र आ जाते हैं। यह अनुपात 20-80 का है एवं प्रथम समूह जिसे “नार्थ ब्लॉक या ग्रुप” भी कहा जाता, द्वारा “साउथ ग्रुप” का शोषण निरन्तर बढ़ता जा रहा है। जब तक इन दोनों समूहों में ऐक्य नहीं स्थापित होता, विश्व-शान्ति बहुत दूर की बात है- विश्व युद्ध का संकट मानवता पर छाया ही रहेगा।

सामाजिक स्तर पर भी अपराध, अनाचार बढ़ते चले जा रहे हैं। सब असंतोष के दावानल में जलते दिखाई देते हैं। नैतिक मूल्य न राजनीति में दिखाई देते हैं, न लोक व्यवहार में। ऐसे मार्गदर्शन तन्त्र कैसे, कहाँ से विनिर्मित हो? कहाँ से ऐसी व्यवस्था बने कि क्रमशः इन विपन्नताओं का घटाटोप मिटता चला जाये एवं नवयुग की स्वर्णिम बेला आती दृष्टिगोचर होने लगे। जैसा कि परिजन पढ़ चुके हैं, ऋषि परम्परा की ही एक कड़ी के रूप में गुरुदेव का स्वयं का तप पुरुषार्थ इस दिशा में नियोजित हो रहा है। जहाँ सार्वभौम समस्याएँ हों, वहाँ वैयक्तिक समस्याओं का कोई महत्व नहीं रह जाता। जहाँ सबका फैसला एक साथ इधर या उधर होगा, वहाँ अपने स्वार्थ की बात सोचना तो अदूरदर्शिता ही है। फिर भी इस अवधि में हर परिजन ने अनुभव किया है कि युग साधना के पुण्य प्रयोजन में सहभागी बनने पर वे घाटे में नहीं रहे। प्रत्यक्ष दर्शन या मार्ग दर्शन न मिलने पर भी परोक्ष रूप से उन्हें वे प्रेरणाएँ सतत् मिलती रहीं जिनने उनकी उलझनें स्वतः सुलझा दीं।

ऐसी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का क्रम जारी है जिनसे प्रतीत होता है कि सूक्ष्मीकरण साधना के परिणाम जन सामान्य को हाथों-हाथ मिलते जा रहे हैं। प्रज्ञा परिजनों का तो एक सीमित परिकर हैं। युग ऋषि के समक्ष सारा मानव समुदाय है। उनकी साधना का नियोजन ही उस पुण्य कार्य में हो रहा है जिससे समस्त मानव जाति को सही विचारने एवं सही काम करने की प्रेरणा मिले। जिसे भी अन्तर्चक्षु प्राप्त हैं, उसने यह अनुभव किया है कि समष्टिगत वातावरण क्रमशः बदला है। ऐसे में कोई नहीं चाहता कि यह साधना क्रम टूटे। गुरुदेव का संकल्प भी यही है कि वे सम्भवतः बसन्त पर्व पर एक वर्ष का साधना क्रम पूरा होने पर दर्शन तो देंगे पर प्रत्यक्ष मिलने-जुलने का- बातचीत का क्रम माताजी तक ही सीमित रहेगा। पर्व विशेषों पर दर्शन क्रम तो चलेगा पर होगा वह योगीराज अरविन्द की तरह निमित्त मात्र का ही। इसी में प्रज्ञा परिवार का व समस्त मानव जाति का कल्याण है, ऐसा कभी सोचते व व्यक्त भी करते हैं।

शान्ति-कुँज पहुँचने वाले पत्रों से विदित होता है कि प्रत्यक्ष दर्शन का सुयोग न मिलने पर हर घनिष्ठ आत्मीय जन को अनुदान स्वतः मिलते चले गए हैं। आत्मिक एवं भौतिक क्षेत्र में जिसने जो चाहा, पात्रता के अनुरूप उसे मिलता चला गया। जो भी शान्ति-कुँज आया, वह इस व्यथा से मुक्त होकर गया कि उसे प्रत्यक्ष दर्शन न हो पाए हों, पर उसे वह सब कुछ मिल गया जो उसने चाहा था।

निष्ठा की परीक्षा की भी घड़ी है यह। जिनने गुरुदेव को एक शरीर मात्र माना, आदर्शवादिता का समुच्चय नहीं, उनकी बात अलग है पर जिनने भी युग पुरुष को सही मायने में समझा है, उनकी सैद्धान्तिक निष्ठा व्यवहार में उतरकर आयी है। क्षेत्रों में उनकी क्रियाशीलता बढ़ी है तो केन्द्र से बहुमुखी गतिविधियों का उत्तरदायित्व सम्भालने वाला तन्त्र एक टीम के रूप में सक्रिय हो गया है। ऋषि तन्त्र की यही एक गरिमापूर्ण विशेषता है कि परोक्ष सूत्र संचालन द्वारा वह सामान्यों से भी वे काम करा लेता है जो मोटी नजर से असम्भव नजर आते हैं। जिनका बड़ा कार्य क्षेत्र है, उतना ही जटिल उसका सुनियोजन भी है। लेकिन वह उसी तरह सुरुचिपूर्ण ढंग से क्रियान्वित हो रहा है, जैसी कि गुरुदेव की अपेक्षा रही है।

पाठकों-परिजनों को सूक्ष्मीकरण साधना की महत्ता एवं फलश्रुतियों को समझने में कोई कठिनाई नहीं हुई है, यह प्रसन्नता की बात है। जून, जुलाई, व अगस्त के अंकों ने सभी को वस्तुस्थिति से अवगत कराया व पुरुषार्थ में जुट पड़ने हेतु प्रेरित किया है। सूत्र संचालन तन्त्र को इस प्रतिक्रिया से यह आश्वासन मिला है कि इस युग साधना में तनिक भी गतिरोध न आएगा एवं उनकी स्वयं की निष्ठा दैनन्दिन और प्रखर होगी। -ब्रह्मवर्चस्


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