पाँच क्षमताएँ पाँच प्रयोगों के लिए

October 1984

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पतन को उत्थान में, विनाश को विकास में बदलने का नाम ही युग परिवर्तन है। यह लड़ाई पाँच मोर्चों पर लड़ी जानी है। महाभारत पाँच पाण्डवों द्वारा लड़ा गया था। लंका दमन हनुमान, अंगद, नल, नील, जामवन्त नाम के पाँच सेनापतियों द्वारा लड़ा गया है। जीवन रथ को खींचकर किनारे पर लगाने अथवा उसे गहरे गर्त में डूबो देने के लिए पाँच ज्ञानेन्द्रियों को ही उत्तरदायी बताया जाता है। वे सन्मार्ग पर चलें तो मनुष्य ऋषि और देवता बन सकता है। कुमार्ग अपनाये तो पशु-पिशाच बनते देर नहीं लगती। आध्यात्म का युद्ध पाँच मोर्चों पर लड़ा जाता है। इनमें विजय प्राप्त करने वाले अपने भीतर प्रसुप्त स्थिति में पड़े हुए पाँच देवताओं को जागृत कर लेते हैं। पांच रत्न, पंचामृत के नाम से जिन दैवी शक्तियों का स्मरण किया जाता है, पंचोपचार के विधि-विधान में जिन्हें जगाया जाता है, वे ही परम कल्याण कारक- परमानन्द दायक हैं। देवता यों तो तेतीस कोटि या तेतीस भी है, पर उनमें प्रमुख पाँच ही हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश और भवानी। इनका अनुग्रह प्राप्त कर लेने के बाद और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता। इन पाँचों के प्रतीक सूक्ष्म शरीर में सन्निहित पाँच कोश हैं। कोश अर्थात् भण्डार। भण्डार किसके? ऋद्धि-सिद्धियों के। यह जिनके पास है समझना चाहिए कि विश्व वैभव उसके करतलगत है।

पाँच वैभवों की गणना इस प्रकार होती है (1) धन (2) बल (3) ज्ञान (4) कौशल (5) विज्ञान। यह जिनके हाथ में है समझना चाहिए कि वही सामर्थ्यवान् है। सामर्थ्यों का उपयोग जिस भी प्रयोजन के लिए होता है उसी में सफलता मिलती चली जाती है। आज जो कुछ भी सामने है। वह इन्हीं पाँचों की परिणति है। जिनके पास यह है- वे ही दुनिया को भली या बुरी बनाने के लिए जिम्मेदार हैं। यदि परिस्थितियाँ बुरी हैं तो दोष इन पाँचों को ही दिया जाना चाहिए। यदि सुधार परिवर्तन न होना है तो इन पाँचों का आश्रय लिए बिना और कोई चारा नहीं है।

मनुष्य गया गुजरा है तो उन्हीं के अभाव से और यदि वह समर्थ है तो उन्हीं को उपलब्धि एवं मात्रा को उसका श्रेय दिया जायेगा। जो जितना ज्ञानवान है, बलवान है, प्रतिभावान है- वह उतना ही सामर्थ्यवान है। इन सामर्थ्यों के सहारे मनुष्य बड़े-बड़े काम कर सकता है। वे काम अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी। अच्छे काम अपना और दूसरों का हित साधन कर सकते हैं। बुरे काम अपना और दूसरों का अहित कर सकते हैं। दोनों ही स्थितियों में जहाँ सामर्थ्यों की आवश्यकता है वहाँ उनके सदुपयोग का विवेक भी अभीष्ट है। यह विवेक न होने पर अथवा उसका प्रवाह कुमार्गगामी होने पर जो जितना समर्थ है वह उतने ही अधिक दुराचरण कर सकेगा और उतना ही अधिक विनाशकारी विघातक सिद्ध होगा।

आज अधिकाँश व्यक्ति असमर्थ हैं। वे पेट-प्रजनन के कोल्हू में पिलते रहते हैं। कई बार तो वे दूसरों पर आश्रित रहते हैं। थोड़े से व्यक्ति प्रतिभाशाली सामर्थ्यवान हैं। उनमें से जिनके पास प्रतिभा है, वे उसका उपयोग बुरे कामों में करते हैं। फलस्वरूप सामर्थ्य विनाश हेतु प्रयुक्त होती है। इसका प्रतिफल अपने और दूसरों के अहित में ही होता है। आज यही हो भी रहा है। जो भी क्षमता सम्पन्न हैं, वे अपनी सम्पदाओं का इस प्रकार प्रयोग करते दृष्टिगोचर होते हैं जिनसे सर्वसाधारण को नीचे गिराने वाली, पतन के गर्त में धकेलने वाले परिणाम प्रस्तुत हों। सामर्थ्यवानों की स्वभावतया अधिक जिम्मेदारी है। उन्हें भगवान ने जो अतिरिक्त साधन दिए हैं वे इसलिए दिए हैं कि सर्वसाधारण को ऊँचा उठाने वाले आयोजन करें। स्वयं भी श्रेय प्राप्त करें और दूसरों को भी श्रेय पथ पर अग्रसर करें। लेकिन देखा ठीक उलटा जाता है। दुर्बलों के लिए तो अपनी गाड़ी खींचना ही कठिन है। दूसरों की वे क्या सहायता कर सकते हैं। वे दुर्भाग्यवश ऐसे कामों में हाथ डालते हैं, जिनसे विग्रह उत्पन्न हों और पतन की- विनाश की परिस्थितियाँ उत्पन्न हों। इनमें बुद्धि न हो ऐसी बात नहीं पर वह उलटे मार्ग पर चल पड़े तो कोई क्या करें? चाकू का उपयोग कलम बनाने, कागज काटने, फल काटने आदि में होता है पर कोई दुर्बुद्धिवश किसी में उसे भोंक दे और प्राण हरण कर ले, यह भी तो हो सकता है। यही बात प्रत्येक सामर्थ्य के सम्बन्ध में है।

किसी के पास धन हो और उसे दुर्व्यसनों में खर्च करने लगे अथवा ऐसे व्यापार करें जिससे लोकहित की हानि हो तो यह सहज सम्भव है। कितने ही धनवान व्यक्ति नशे का व्यवसाय करते हैं। पशु वध में अपनी पूँजी लगाते हैं। दुर्व्यसनों को भड़काने वाली दुष्प्रवृत्तियों में अपना पैसा लगाकर अपना अधिक लाभ सरलतापूर्वक कमाने के लिए कितने ही अनुपयुक्त कार्य करते हैं। अश्लील साहित्य, गन्दे चित्र, पशु प्रवृत्तियों को भड़काने वाली फिल्में बनाने में कितने ही धनवानों ने अपनी प्रचुर पूँजी लगाई हुई है। ऐसा वे गरीबी या किसी मजबूरी के कारण नहीं करते। वरन् लोभ-लिप्सा वश लाख को करोड़ बनाने की ललक में ऐसे कामों में हाथ डालते हैं। मजूरों या खरीददारों का गला काटते हैं। वे चाहते तो उचित मजूरी देकर, उचित मुनाफा लेकर सर्वसाधारण का हित करने वाली वस्तुओं का उत्पादन कर सकते थे। इसमें उस पूँजी का भी सदुपयोग होता और जिस चक्र में पैसा घूम रहा है, उससे जनसाधारण की आवश्यकता भी पूरी होती। किन्तु दुर्बुद्धि को क्या कहा जाय, जो कुमार्ग अपनाती और अहित ही अहित करती है।

यही बात अन्य क्षमताओं के सम्बन्ध में भी है। साहित्य को ही लें। चरित्र निर्माण का समाज कल्याण के साहित्य का एक प्रकार से आज अभाव ही है। प्रेरणाप्रद चित्रों की अत्यधिक आवश्यकता है। ऐसी फिल्में बननी चाहिए जो सत्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन दे सकें। इन कार्यों में हाथ डालने पर इतना ही जोखिम है कि थोड़ा अधिक परिश्रम करना पड़ेगा और सीमित लाभ मिलेगा। जिनके पास पर्याप्त पूँजी है, उनके लिए इसमें क्या कठिनाई हो सकती है। लाख के करोड़ न होंगे तो दस लाख सही। मुनाफा तो हर हालत में है ही। थोड़ा कम मिला तो उनका क्या काम हर्ज हो रहा है। पूँजी तो बढ़ ही रही है। उतने पर भी संतोष किया जा सकता है। लोकहित सधता है। जन मंगल का प्रयत्न करने का यश मिलता है। यह क्या बुरा है? किन्तु दुर्बुद्धि को क्या कहा जाय, जो पतन की दिशा में ही चलती है बहुत जल्दी अत्यधिक लाभ कमाने से कम में चैन ही नहीं लेती।

शासन भी एक बड़ी शक्ति है। उसमें सुधार की अत्यधिक गुंजाइश है। जो पैसा टैक्स के रूप में मिलता है उसे अपनी पार्टी को मजबूत बनाने के स्थान पर, नौकरशाही का पोषण करने के स्थान पर शिक्षा, चिकित्सा, परिवहन, समाज कल्याण जैसे कार्यों में लगाया जा सकता है। युद्ध की तैयारियाँ सरकारें ही करती हैं। जितना धन समाज कल्याण के कार्यों में लगता है उससे अधिक युद्ध की तैयारी में लगता है। इसके स्थान पर पंचायत द्वारा झगड़े सुलझाने की नीति अपनाई जाये और उस पर सच्चे मन से अमल किया जाय तो युद्धोन्माद का जो वातावरण उत्पन्न किया जा रहा है, उस पर जो प्रचुर धन व्यय किया जा रहा है, उसकी आवश्यकता ही न पड़े।

विज्ञान क्षेत्र में लगे बहुमूल्य मस्तिष्क यदि अणु-आयुध जैसे भयंकर अस्त्र बनाने के स्थान पर जन-कल्याण के उत्पादनों में लगें तो परिस्थितियाँ बदलकर कहीं से कहीं पहुँच सकती हैं। जमीन के नीचे पानी की प्रचण्ड धाराएं बहती हैं। उन्हें ऊपर लाया जा सके तो सारे रेगिस्तान हरे-भरे हो सकते हैं और खाद्य समस्या का चुटकी बजाते हल निकल सकता है। विशालकाय उद्योगों की मशीनें बनाने के स्थान पर जापान की तरह कुटीर उद्योगों की छोटी-छोटी मशीनें बनाई जायें तो छोटे गाँव कस्बों में बदल सकते हैं और बेकारी की समस्या देखते-देखते हल हो सकती है। वैज्ञानिक आविष्कारों की शोध में लगे लाखों बहुमूल्य दिमाग यदि उस गौरख धन्धे से हटकर मनुष्य की भूख और बेकारी दूर करने में लग सकें तो चमत्कारी परिणाम हो सकते हैं।” युद्ध प्रयोजन में लगी हुई प्रतिभाएँ यदि अध्यापक और माली का काम सम्भालें तो संसार में फैला हुआ पिछड़ापन देखते-देखते समाप्त हो सकता है।

जिन्हें भगवान ने इतनी बुद्धि दी है, इतने साधन दिये हैं वे एक से एक श्रेष्ठ कारगर योजनाएं बना सकते हैं। जिनके पास प्रचुर पूँजी और विशाल साधन हैं वे यदि अपनी सामर्थ्य को संव्याप्त पिछड़ेपन को दूर करने के लिए नियोजित भर कर सकें तो सब ओर परिवर्तन ही परिवर्तन दिखाई पड़े।

क्या कारण है कि वे ऐसा कर नहीं पा रहे हैं या कर नहीं रहे हों, इसका उत्तर एक ही हो सकता है- सद्भावना का अभाव। जिनके पास सद्भावना रही है उनसे स्वल्प साधनों में भी ऐसे लोकोपयोगी कार्य कर दिखाये हैं कि दुनिया दाँतों तले उंगली दबाये रह गई। भामाशाह की कुल पूँजी 30 लाख के लगभग थी। उसे देकर उनने इतिहास बदल दिया। आज इतना आये दिन सट्टे में कमाने गँवाने वालों की कमी नहीं, पर उन्हें कोई ऐसी योजना नहीं सूझती कि सद्भावना सम्पन्न कोई रचनात्मक काम सम्पन्न हो सके। स्वामी श्रद्धानन्द ने घर का मकान पाँच हजार में बेचकर उससे गुरुकुल काँगड़ी की स्थापना की और उस संस्था ने सैकड़ों देश भक्त निकाले। आज भी अपने काम का ढिंढोरा पिटवाने के लिए सैंकड़ों व्यक्ति, मंदिर, सदावर्त आदि में खर्च करते हैं, पर ऐसी सूझ नहीं सूझती कि नाम का ढोल पिटवाने के स्थान पर कोई ऐसे रचनात्मक उदाहरण खड़े करें जो नया वातावरण बनाने वाले उपयोगी काम कर सकें।

वैभव की कहीं कमी नहीं है। बुद्धिमानों की श्रेणी में एक से एक बढ़कर मौजूद हैं। पर सद्भावना के अभाव में उस वृद्धि और सम्पदा का कोई ऐसा नियोजन नहीं हो पाता जो समय की उलटी बहती हुई धारा को मोड़ सके। कभी ऐसे व्यक्ति उत्पन्न हुए हैं, तो उनने चमत्कार करके दिखाये हैं। गाँधी अकेले ही खड़े हुए थे। उनने आजादी की लहर चलाई और उसमें लाखों व्यक्ति अपना तन, मन, धन झोंकने के लिए तैयार हो गये।

जो कुछ ऊपर की पंक्तियों में लिखा जा रहा है उसे समझने, सोचने, जानने, मानने की बुद्धि किसी में न हो, ऐसी बात नहीं है। इस संदर्भ में लेख कोई न लिखता हो, प्रवचन कोई न करता हो, किसी ने यह प्रसंग सुना समझा न हो सो बात भी नहीं हैं, पर सद्भावनाओं को अन्तःकरणों की गहराई तक उतार सके और उसे अपनाने के लिए विवश कर सके, ऐसा सुयोग बन नहीं पा रहा है।

गुरुदेव की सूक्ष्मीकरण प्रक्रिया की पाँच धाराएं इसी निमित्त उद्भूत होने जा रही हैं ताकि सामर्थ्यवानों, बुद्धिमानों को समय की पुकार सुनने-समझने के लिए बाधित कर सकें। जो सद्भावनाओं का स्रोत है, उसे झकझोर कर प्रज्ञावानों को इसके लिए विवश कर सकें कि बहते हुए प्रवाह के साथ ही न बहते रहें वरन् नदी की धारा को चीरकर उल्टी बह सकने वाली मछली का उदाहरण प्रस्तुत करें।

बुद्धिमान, धनवान सत्तावान, स्तर की कितनी ही प्रतिभाएँ अपने समय में विद्यमान हैं, पर उन सबका वही हाल हो रहा है जो कभी अर्जुन का था और कहता था “कार्पण्य दोषों पहतस्वभाव” कृपणता द्वारा स्वभाव को अपहृत कर लिया गया है। और सम्मूढ़ चेता स्थिति उन सबके ऊपर बुरी तरह हावी हो रही है।

गुरुदेव की सूक्ष्मीकरण प्रक्रिया में पाँच देव शक्तियों को नये सिरे से जागृत किया जा रहा है और सामर्थ्यवानों के गहन अन्तराल तक उनका उद्बोधन पहुँचाने का उपक्रम चल रहा है। मनीषा- सम्पदा- शासनसत्ता, प्रतिभा- विज्ञान गरिमा के पाँचों क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें बुद्धिमता की कमी नहीं है। वे दूसरों को बहुत कुछ सिखा सकते हैं और उन्हें कौन सिखाये? कौन समझाये? आवश्यकता मात्र एक बात की है कि सद्भावना का नश्तर अन्तराल की गहराई तक चुभोया जा सके और ऐसा परिवर्तन प्रस्तुत किया जा सके जिससे अस्थायी प्लास्टिक सर्जरी नहीं अपितु काया कल्प स्तर की परिणति सम्भव की जा सके। आज की स्थिति में यह असम्भव इसलिए दीख पड़ता है कि बुद्धि से बुद्धि को समझाने का प्रयत्न किया जाता रहा है। इसके लिए दबाव डालने वाले औजार अधिक कारगर स्तर के होने चाहिए।

काँच सीधी लकीर में कटता नहीं, टूट जाता है। उसे काटने के लिए हीरे की नोंक वाली कलम की जरूरत पड़ती है। पत्थर की कड़ी चट्टान में छेद करने के लिए भी यही प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। बारूद के कारतूस चट्टान को टुकड़े-टुकड़े करके उड़ा तो देते हैं पर पानी निकालने के लिए गोल छेद का बोरिंग करने के लिए भी हीरे की नोंक वाला बरमा चाहिए। जो वस्तुएँ अति कठोर होती हैं, जो टूट जाती हैं, पर बदलती नहीं ऐसी वस्तुओं के लिए उन्हीं के अनुरूप साधनों की आवश्यकता पड़ती है।

वाल्मीकि को किसी ने बदलने के लिए उपदेश न दिये हों सो बात नहीं पर देवर्षि नारद के उपदेश ही कारगर साबित सिद्ध हो गये। पार्वती को समझाने वाला परिवार एक ओर और नारद का दस अक्षरों का उपदेश एक ओर रहा। पार्वती ने नारद जी का उपदेश माना, सारे घर की शिक्षा उनने अस्वीकृत कर दी प्रहलाद के बारे में भी यही बात है। एक ओर प्रताड़नाओं की चरम सीमा और एक ओर नारद का उपदेश। नारद का कथन ही हृदयंगम हुआ। ऐसे उपदेश वाणी से नहीं दिये जाते वरन् उनके लिए शब्द शक्ति की ऐसी प्रचण्ड धारा चाहिए जो मनुष्य की बुद्धि तक ही नहीं, वरन् अन्तःकरण तक प्रवेश कर सके और दिये हुए उपदेश को गहराई तक हृदयंगम करा सके।

सूक्ष्मीकरण में गुरुदेव अपने को पाँच हिस्सों में विभक्त कर रहे हैं। उसी प्रकार जिस तरह कि हाथ की उँगलियाँ पाँच होती हैं। कई बार तो पाँचों का सम्मिलित प्रयोग घूँसे या चांटे के रूप में होता है। कई बार उनका अलग-अलग प्रयोग भी होता है। लिखने में अँगूठा और तर्जनी काम में लायी जाती है। संकेतों में एक, दो, तीन, चार का भी प्रयोग होता है। उनने अपना एक सूक्ष्म शरीर गायत्री परिवार के परिजनों के व्यक्तिगत मार्गदर्शन एवं सहयोग के लिए सुरक्षित रखा है। एक पिछड़े वर्ग को उठाने के लिए है। एक से वे बुद्धिजीवियों को, एक से व्यवसायी वर्ग को और एक से विभिन्न देशों की राजसत्ताओं शासकों को प्रभावित करने के काम में लगाते रहेंगे। इस सब का सम्मिलित परिणाम यह होना चाहिए कि परमाणु युद्ध जैसी विनाशकारी विभीषिकाओं को टाला जा सकेगा। सर्वत्र जो छोटे-बड़े विग्रह चल रहे हैं, वे देर-सवेर में शान्त हो जाएंगे। रचनात्मक प्रयास इन दिनों नहीं के बराबर चल रहे हैं, इन सभी में तेजी आयेगी। पांचों शरीर उनके इर्द-गिर्द नहीं वरन् समस्त संसार में अपना व्यापक प्रभाव छोड़ेंगे। नव निर्माण का वातावरण बनेगा और विनाश को विभीषिकाएं शिथिल और शान्त होती जाएँगी।

अकेला एक व्यक्ति सीमित कार्य कर सकता है, पर व्यक्ति के पाँच सूक्ष्म शरीर मिलजुल कर योजनाबद्ध रूप से कार्य करें तो उसका प्रभाव दूसरा ही होगा। एक उंगली से किसी को धमका दिया जाय तो उसका प्रभाव थोड़ा सा होगा। किन्तु पाँचों उंगलियों की सम्मिलित चोट पकड़ के रूप में लगेगी तो उसका प्रभाव दूसरा ही होगा। गुरुदेव का सूक्ष्मीकरण उनकी शक्ति को पाँच गुनी बढ़ाने जा रहा है। निःसंदेह उसका प्रभाव सब प्रकार से श्रेयस्कर ही होगा।


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