प्रतिकूलता सुधारें, पर अनुकूलता अर्जित करना न भूलें

October 1984

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बुराई इस दुनिया में बहुत है, पर इतनी नहीं जिसे अच्छाई से अधिक कहा जा सके। अँधेरा कितना ही सघन या व्यापक क्यों न हो वह उतना नहीं हो सकता, जो प्रकाश से भारी पड़े और बाजी मारने की हिम्मत करे। संसार में दृष्ट दुराचारियों की भरमार है। इतने पर भी वह समुदाय इतना बड़ा या सामर्थ्यशाली नहीं है, जो सज्जनों की तुलना में किसी भी दृष्टि से बढ़-चढ़ कर माना जा सके।

दुष्टता में अहित करने की शक्ति है। इसलिए उससे सतर्क रहने, बचने, विरोध करने और आवश्यकतानुसार लड़ पड़ने की आवश्यकता पड़ती है। इतने पर भी यह नहीं हो सकता कि हम अपना अधिकाँश समय इसी जंजाल की उधेड़ बुन में लगाये रहें। बुराइयाँ और बुरों की करतूत ही यदि ध्यान में रहे और उनसे बचने लड़ने भर को प्रमुखता दी जाने लगे तो समझना चाहिए कि श्रेष्ठता के साथ संपर्क बनाने, उसे अर्जित करने और लाभ उठाने का अवसर ही हाथ से चला गया।

गन्दगी बुहारने का नित्य कर्म में महत्वपूर्ण स्थान है। उसकी उपेक्षा करने पर बीमारियाँ फैल सकती हैं। इतने पर भी उस कार्य को आजीविका उपार्जन एवं व्यवस्था से बढ़कर नहीं माना जा सकता। यदि उस ओर से मन हटे तो प्रगति का सारा ढाँचा ही लड़खड़ाने लगेगा।

समय का सही उपयोग है सज्जनों के साथ संपर्क सहयोग और सज्जनता की गरिमा का जीवनचर्या में सघन समावेश। सृजन और सम्वर्धन की दिशा में किया गया प्रबल पुरुषार्थ ही व्यक्ति की क्षमताओं, वरिष्ठताओं एवं विभूतियों का अभिवर्धन करता है। इसी के सहारे किसी का आगे बढ़ना और ऊँचा उठना सम्भव हो पाता है।

अधिक महत्वपूर्ण और अधिक ध्यान देने योग्य बात यह है कि मनुष्य अपनी क्षमताओं की वृद्धि करे। उपार्जन में संलग्न रहे और ऐसे काम करे जो अपने लिए तथा दूसरों के लिए सत्परिणाम उत्पन्न करें। यह सब कुछ अनायास ही नहीं हो जाता। इसके लिए योजनाबद्ध प्रयास करने पड़ते हैं। साधन जुटाने और अवरोध निरस्त करने पड़ते हैं। सहयोगियों को ढूंढ़ना और सत्परामर्श दे सकने योग्यों का अनुग्रह अर्जित करना पड़ता है। इस संदर्भ में सबसे बड़ी आवश्यकता अपनी पात्रता बढ़ाने की है।

साधनों को जुटाना, अवरोधों को हटाना, सहयोग अर्जित करना, निजी व्यक्तित्व को सुधारना यह चारों ही काम ऐसे हैं जिनके लिए समग्र मनोयोग लगाने की आवश्यकता पड़ती है। यह सब कुछ चुटकी बजाते नहीं हो जाता, किसी वरदान या चमत्कार की इस हेतु आशा नहीं की जा सकती। यह सब कुछ अपने ही प्रयत्न पुरुषार्थ पर निर्भर है।

देखने-सुनने में सरल लगता है कि अपने को समझाने सुधारने में क्या देर लगेगी यह तो सहज ही हो जाने वाला काम है, पर वस्तुतः ऐसा है नहीं। अपने को सुधारना इतना कठिन है कि उसे संसार सुधारने के समतुल्य कठिन एवं महत्वपूर्ण माना गया है। यह मनोयोग की एकात्मता पर निर्भर है। इसी प्रकार बहिरंग क्षेत्र में अनुकूलताएँ और सुविधा बढ़ाने वाली रीति, नीति अपनाना, दूरदर्शी विवेकशीलता अपनाये बिना अन्य किसी भी तरह बन नहीं पड़ता। इसके लिए एकाग्र चिन्तन और जुझारू मनोबल की जरूरत पड़ती है। उपेक्षा बरतने वाले अपरिचितों तक से संपर्क साधकर उन्हें मैत्री की जंजीरों में जकड़ना पड़ता है। प्रगति के आवश्यक साधन सड़क पर पड़े नहीं मिल जाते उनके लिए अवसर ढूंढ़ने, अधिक श्रम करने और उपलब्धियों को अपव्यय से बचाकर अभीष्ट के लिए नियोजित करना पड़ता है। यह चक्रव्यूह बेधने और किला जीतने की तरह शानदार सफलता है, जिसे शानदार लोग ही हस्तगत कर पाते हैं।


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