काया को बलिष्ठ बनाने हेतु जिस प्रकार सन्तुलित पोषण की आवश्यकता पड़ती है, ठीक उसी प्रकार मानवी अन्तःकरण को प्रखर परिष्कृत करने के लिए, नित्य आत्मिक पोषण देते रहने के लिए उपासना अनिवार्य है। बिना श्रद्धा-विश्वास के उपासना का आधार नहीं बन पाता। श्रद्धा अर्थात् सिद्धान्त निष्ठा- श्रेष्ठता से असीम एकात्मता। इस मूल आधार को लेकर की जाने वाली उपासना फलवती होती है, चाहे वह किसी भी क्षेत्र की क्यों न हो? भौतिक क्षेत्र में सफलता प्राप्त व्यक्तियों से पूछा जाए तो उसके मूल में उनके कुछ गिने-चुने आदर्शवादी सिद्धान्तों से लगाव को ही धुरी के रूप में देखा जा सकता है। आत्मिक जगत तो और भी अनूठा परब्रह्म की परोक्ष सत्ता का एक अभिव्यक्त रूप है। मनुष्य को जब कार्य-कलेवर का चोला ओढ़कर जन्मना पड़ा तो उसे दैवी चेतना से तादात्म्य स्थापित करने के लिए कोई न कोई माध्यम तो बनाना ही होगा।
उपासना विज्ञान में जीव-ब्रह्म के मिलन में सहायक “बफर” की भूमिका निभाने के रूप में प्रतीकों की चर्चा की जाती है। साकारोपासना को महत्व देने वाले अपनी श्रद्धा को दृढ़ आधार देने के लिए किसी न किसी प्रतीक को, चित्र अथवा मूर्ति को एक अनिवार्य माध्यम मानते हैं। जबकि एक दूसरा वर्ग ऐसा है जो स्वयं को किसी सीमा से, प्रतीक की परिधि से आबद्ध नहीं रखना चाहता। वह बिना किसी माध्यम के व्यष्टि एवं समष्टि चेतना का एकीकरण चाहता है। इन्हें निकारोपासना का समर्थक कहा जाता है।
धर्म-दर्शन के क्षेत्र में बहुधा ऐसी भ्रान्तियाँ बहुसंख्य व्यक्तियों द्वारा समय-समय पर फैल भी जाती रही हैं जिनसे उपासना का स्वरूप क्या हो, उस निराकार ब्रह्म से संपर्क स्थापित करने का माध्यम क्या बने, यह स्पष्ट नहीं हो पाता। हिन्दू धर्म में अनेकानेक मत प्रचलित हैं। कोई देवी की शक्ति के रूप में, देवता की चित्र अथवा मूर्ति के रूप में, परब्रह्म को वेदान्त के निर्धारणानुसार सोऽहम् के रूप में, कोई सविता के तेज के रूप में, अग्नि आदि देवता उनके प्रतीकों के रूप में देखता व अपने भाव चित्र तद्नुसार बनाता है। अन्यान्य धर्मावलम्बी भी किसी न किसी अवलम्बन का आश्रय लेते देखे जाते हैं। वस्तुतः ये सभी जो निराकार की उपासना का समर्थन करते हैं, उन्हें भी साकार माध्यमों को किसी न किसी रूप में अपनाना पड़ता है। हमारे अपने ही आर्य समाजी बन्धु स्वर्णिम सविता को, वेद भगवान को मानते हैं, जो प्रकारान्तर से एक माध्यम प्रतीक ही तो हैं। ईसाई क्रूस का, मुसलमान काबा का, एवं पारसी बन्धु अग्नि का ध्यान करते देखे जाते हैं। यह भी वस्तुतः साकार ध्यान का ही प्रतीक है। नास्तिक समझे जाने वाले, धर्म को अफीम की गोली कहने वाले साम्यवादी भी मार्क्स, लेनिन की कब्रों पर पुष्प चढ़ाते एवं अपनी श्रद्धाभिव्यक्ति करते हैं। अपने से बड़ों का अभिवादन, महापुरुषों के चित्रों- सद्ग्रन्थों के प्रति श्रद्धा का होना भी एक प्रकार की उपासना है।
इस सम्बन्ध में जो बुत परस्ती, मूर्ति पूजा इत्यादि के वितण्डावादी तर्क खड़े करते हैं उन्हें जानना होगा कि परब्रह्म तो कण-कण में संव्याप्त है। उस सत्ता से संपर्क बनाने हेतु माध्यम कुछ भी बना लिया जाए, लक्ष्य तो एक ही है। किसी स्थान विशेष के लिए रवाना होने से पूर्व यदि वाहन मार्ग दिशा का निर्धारण न करें तो दिग्भ्रान्त होना स्वाभाविक है। पहले ही कुतर्कों के जाल में उलझ गए तो एक कदम बढ़ना भी कठिन है। मनोवैज्ञानिकों का यह कथन है कि मानव मस्तिष्क की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि वह दृश्य अवलम्बनों के बिना कुछ भी मौलिक परिकल्पना नहीं कर सकता। बाल मनोविज्ञान के विशेषज्ञों ने इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए बच्चों के प्रारम्भिक शिक्षण में चित्र की भाषा का प्रयोग अनिवार्य बताया है। दिए जा रहे शिक्षण का चित्रों से सीधा सम्बन्ध न होते हुए भी अभीष्ट प्रयोजन में यह प्रक्रिया विशेष रूप से सहायक सिद्ध होती है। अक्षर ज्ञान कराने में सुगमता होती है। आगे चलकर उच्च कक्षाओं में उस प्रतीक अवलम्बन की आवश्यकता नहीं रह जाती।
उपासना क्षेत्र में प्रतीक आधारों का लगभग यही मनोविज्ञान है। ईश्वरीय सत्ता निराकार है पर हर साकार घटक में वह समायी हुई है। जीवात्मा की अभिव्यक्ति शरीर से होती है। परमात्मा की जड़ चेतन घटकों से युक्त इस विशाल ब्रह्मांड के रूप में सतत् अभिव्यक्ति होती रहती है। उसकी अनुभूति के लिए साकार घटकों से जुड़ना तथा अपना भाव परक सम्बन्ध स्थापित कर उसे सशक्त बनाना आवश्यक है।
प्राचीनकाल के मनीषीगण मानव मनोविज्ञान से भली-भाँति परिचित थे। वे यह भी जानते थे कि मनुष्य के मन की रचना बड़ी बेढब है। दृश्य आधारों के बिना उसकी एकाग्रता बन नहीं सकती। मात्र शुष्क तत्वदर्शन के आधार पर वह विराट् सत्ता को न तो समझ ही सकता, न ही संपर्क स्थापित कर सकता है। ये ही अवरोध प्रतीक उपासना, साकार उपासना के आविष्कारक बने। शक्तियों के प्रतीक विभिन्न देवी-देवताओं का आविर्भाव इसी कारण हुआ। साकार माध्यमों की उपयोगिता इसलिए भी है कि चंचल मन न तो निराकार ब्रह्म की कल्पना कर सकता है, न ही एकाग्र चित्त ही हो सकता है। उसे दृश्य अवलम्बन देना आवश्यक है। साकार प्रतिमा में इष्ट की छवि देखने तथा उसमें अपनी श्रद्धा को सतत् आरोपित करते रहने पर वह और भी परिपुष्ट होती है। भावनाओं के आरोपण से वह साकार प्रतिमा भी जीवन्त हो उठती तथा रामकृष्ण परमहंस की काली, मीरा के शालीग्राम की तरह अपने अनुदानों की वर्षा करने लगती है। प्रतीक किसको चुना गया? साकार उपासना के लिए किसे आधार बनाया गया? ये प्रश्न उतने महत्वपूर्ण नहीं, जितना यह कि किस स्तर की श्रद्धा भावना का अभिसिंचन किया गया।
एक ही प्रतिमा साधना क्षेत्र में किसी के लिए चमत्कारी सिद्ध हो जाती है और किसी के लिए मात्र पाषाण की आकृति भर लगती है, इसका कारण क्या है? अन्तर श्रद्धा भावना के स्तर में सहज ही खोजा जा सकता है। एकलव्य मिट्टी की मूर्ति को गुरु के रूप में प्रतिष्ठापना करके वह अनुदान प्राप्त करने में सफल हो गया जो शरीर धारी गुरु द्रोणाचार्य के अत्यन्त निकट रहकर भी पाण्डव बन्धु नहीं प्राप्त कर सके थे। यह प्रतिमा में आरोपित सघन श्रद्धा का ही चमत्कार था। जिस राम की उपासना से तुलसीदास महान बने, जिस कृष्ण की आराधना से सूर ने अपने जीवन को सफल बनाया, उन राम और कृष्ण की मूर्तियाँ- चित्र आज भी विद्यमान हैं पर तथाकथित उपासकों, भक्तों के लिए वे कुछ विशेष करामाती नहीं सिद्ध हो पाती। इस विरोधाभास से उन्हें असमंजस हो सकता है जो स्थूल तक ही सीमित रहते हैं। तत्वदर्शी यह जानते हैं कि एक ही तरह की उपासना के प्रतिफलों में अन्तःश्रद्धा का होना न होना ही महत्वपूर्ण है। अपनी निष्काम सघन श्रद्धा के अनुरूप ही साकार उपासना के परिणाम प्रकट होते हैं।
साधना में प्रगति के लिए किसी देवी अथवा देवता को इष्ट बनाया जाय, यह प्रश्न अधिकाँश नये साधक करते हैं। अपनी अभिरुचि एवं प्रकृति के अनुरूप कोई भी माध्यम चुना जा सकता है। पर यह पक्ष उतना महत्वपूर्ण नहीं है। प्रश्न यह उठना चाहिए कि किस स्तर की श्रद्धा का आरोपण आत्मिक प्रगति में सहायक होगा? इसके उत्तर में जो जितनी गहराई तक प्रवेश करेगा उसे उसी अनुपात में आगे बढ़ने के लिए जीवन्त एवं सशक्त आधार मिलेंगे।
साकार अवलम्बन इसलिए भी आवश्यक है कि उनके बिना विश्वात्मा की सजीव अनुभूति सम्भव नहीं है। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’, ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का मन्त्र रटते रहना आसान है पर अन्तःकरण में उसकी अनुभूति तभी सम्भव है जब मनुष्य मात्र से, प्राणी मात्र से स्नेह सद्भाव का सघन सम्बन्ध हो। आत्मीयता सिद्धान्तों तक सीमित न रहकर सरस सम्वेदना बनकर अन्तःकरण से फूट पड़े। सबके कल्याण की भावना जग पड़े। इसके लिए नश्वर को ही मध्यस्थ बनाना पड़ता है।
प्रेम का- करुणा का- वात्सल्य का- आरोपण किस प्रकार हो? निश्चित ही शरीर माध्यम के रूप में आ खड़ा होता है। प्रेम एवं आत्मीयता व्यावहारिक धरातल पर सेवा, त्याग, बलिदान आदि के रूप में प्रकट होते हैं, जिसकी प्रेरणा साकार प्रतिमा के माध्यम से ही मिलती है। अथर्ववेद में ऋषि प्रार्थना करता है-
उदनो दिव्यस्य नो धातकी शानः विढयाः दृतिम्॥
अर्थात्- अहोरात्र के धाता हमारे ईश्वर! तुम इस मूर्ति को अपना शरीर कल्पित करो अर्थात् अपनी प्रतिष्ठापना इस मूर्ति में करो।”
अथर्ववेद में आगे कहा गया है-
“एहि अश्मान याविष्ट आश्या भवतु ते तनुः। कृष्णान्तु विश्वे देवा आयुष्टे शरदः शतम् ॥”
अर्थात्- हे ईश्वर! यहाँ इस पाषाण प्रतिमा में विराजिये, यह पाषाण प्रतिमा आपका शरीर हो। समस्त देवगण इस शरीर को शतायु बनाएँ।
“न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृण्मये। देवो हि विद्यते भावे तस्माद् भावो हि कारणम्॥ ( चाणक्य नीति 7।12 )
अर्थात्- देवता लकड़ी में नहीं हैं और न पाषाण अथवा मिट्टी में ही हैं, वह तो उसके अंतर्गत रहस्यमय भाव में हैं, इसलिए यह रहस्यमय भाव ही मूर्ति पूजा का कारण है।
आचार्य शंकर कहते हैं-
मुक्ता अपि लीलया विग्रहादिंक कृत्वा भजन्ते॥
अर्थात्- “जीवन मुक्त पुरुष भी क्रीड़ा रूप में प्रतीकोपासना करते हैं।”
“लार्जर कैटेकिज्म” पुस्तक में सुधारवादी ईसाई सन्त मार्टिन लूथर लिखते हैं कि- “एकमात्र हृदय को आस्था और विश्वास ही प्रतिमा को ईश्वर बना देते हैं या उसे पाषाण टुकड़ा भर रहने देते हैं। यदि तुम्हारी आस्था अविचल तथा विश्वास निष्कपट है तो तुम निश्चित ही प्रतिमा के माध्यम से ईश्वर को प्राप्त करने में सफल हो जाओगे। इसके विपरीत यदि तुम्हारी आस्था तथा विश्वास की जड़ें कच्ची हैं तो सच्चे ईश्वर को कभी भी नहीं पा सकोगे, क्योंकि ईश्वर और विश्वास- ये दोनों साथ-साथ चलते हैं।
आक्षेप लगाने वाले कुछ तथाकथित विद्वानों का कहना है कि- “साकार उपासना में मन कभी भी स्थिर नहीं हो सकता, क्योंकि मन प्रतीक के अंग अवयवों में घूमता रहता है।” पर यह आक्षेप विवेकपूर्ण नहीं है। एक सीमित परिधि में घूमने से एकाग्रता समाप्त नहीं हो जाती। एकाग्रता का अर्थ स्थिरता नहीं है। निश्चित दायरे में मन का घूमते रहना उसी में तल्लीन होना भी एकाग्रता है। कवि, साहित्यकार, वैज्ञानिक, मनीषी जैसी प्रतिभाओं की एकाग्रता इसी बात से आँकी जाती है कि अपने-अपने विषयों में वे किस सीमा तक तल्लीन हैं। साधना क्षेत्र में भी इस स्तर की एकाग्रता का बनना अभीष्ट माना जाता है। निर्विचार, निर्विकल्प समाधि की स्थिति इससे ऊँची, काफी आगे की बात है। वह भी इसी मार्ग पर चलते रहने से ही उपलब्ध होती है। अनायास सम्भव नहीं हैं।
साधना क्षेत्र की सारी उपलब्धियाँ इस तथ्य पर निर्भर है कि मन को भटकने से रोककर उद्देश्यपूर्ण उत्कृष्ट चिन्तन में नियोजित कर दिया जाय। यह मनन प्रक्रिया जितनी सघन होगी- भाव श्रद्धा से अभिपूरित होगी, सफलता उसी क्रम से हस्तगत होती चली जायेगी। इसके लिए प्रतिमा को ही अवलम्बन बनाया जाय, अनिवार्य नहीं। सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय भी एक प्रकार से श्रेष्ठ विचारों का सामीप्य पाना- महामानवों के चिन्तन से तादात्म्य स्थापित करना है। मार्ग कोई भी अपनाया जाए, माध्यम कुछ तो बनाना ही पड़ेगा ही- इसे समझना उतना ही अनिवार्य है जितना कि किसी भाषा को समझने के लिए उसकी लिपि एवं बोल-चाल के स्वरूप को सीखना- हृदयंगम करना। श्रेष्ठ चिन्तन यदि किसी भी प्रतीक को माध्यम बनाकर लक्ष्य के प्रति नियोजित कर दिया जाए तो उसकी उपलब्धियाँ निश्चित ही महत्वपूर्ण फलदायी होंगी। यही उपासना का तत्वदर्शन है जिसे अपनाकर साधना क्षेत्र के राज मार्ग पर बढ़ पाना अधिक सरल हो जाता है।