शानदार प्रजनन जो इन्हीं दिनों हो रहा है।

October 1984

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कुन्ती ने पाँच पुत्रों को जन्म दिया था और वे पाँच प्रमुख देवताओं की शक्तियों को आकर्षित करके जन्मे थे। यह प्रक्रिया साधारण स्त्रियों की तरह पूरी नहीं हो गई थी। इसके लिए कुन्ती को विशेष तप अनुष्ठान करने पड़े थे। यह महत्वपूर्ण प्रजनन सामान्य कामों के लिए नहीं, अत्यन्त महत्वपूर्ण कामों के लिए किया गया था। साधारण स्तर के व्यक्ति उसे पूरा नहीं कर सकते थे। महाभारत की कठिन योजना इन्हीं पाँच पांडवों ने पूरी की थी। सामान्य स्तर के होने पर यदि वे सौ कौरवों की तरह होते तो भी हार जाते।

मनुष्य तो एक साथ एक ही बच्चा जनते हैं। पर पशु-पक्षियों में कितने ही ऐसे होते हैं जो एक साथ कई जनते हैं उन्हें प्रजनन काल में विशेष सतर्कता रखनी पड़ती है जब तक वे समर्थ नहीं हो जाते तब तक उन्हें उनकी माताएँ उनके पालन-पोषण की सुरक्षा भी विशेष रूप से बरतती हैं। यदि न बरतें तो वे समर्थ होने से पूर्व ही दम तोड़ दें। जननी की कितनी जिम्मेदारी होती है, यह वही जानती है। प्रजनन मात्र से प्रसव कृत्य पूरा नहीं हो जाता। असमर्थों को समर्थ बनाने के मध्यान्तर में माता को क्या-क्या सोचना और क्या-क्या करना पड़ता है यह बहुसंख्यक प्रसव करने वाली किसी भी मादा के निकट रहकर उसकी विशेष गतिविधियों को देखकर जाना जा सकता है।

गुरुदेव इस एक वर्ष में पाँच अदृश्य शक्तियों को जन्म दे रहे हैं। उनके लिए उन्हें कुन्ती जैसी भूमिका निभानी पड़ रही है। इस कृत्य पर वे अपना ध्यान पूरी तरह एकाग्र किए हुए हैं। अन्य सामान्य कार्यों से उनने अपना चित्र पूरी तरह समेट लिया है। यहाँ तक कि एक-दो व्यक्तियों को छोड़कर अन्यायों से मिलना-जुलना, वार्तालाप करना तक बिलकुल बन्द कर दिया है। जो अतिमहत्वपूर्ण कार्य उनके हाथ में है, वह ऐसा है कि समग्र एकाग्रता चाहता है। ध्यान को कई अन्य कार्यों में बिखेरने पर वह कार्य उतनी ही अच्छी तरह नहीं हो सकता जैसा कि होना चाहिए था।

सूक्ष्मीकरण की प्रक्रिया के अंतर्गत गुरुदेव अपने आपको पाँच भागों में विभक्त एवं विकसित कर रहे हैं। सच तो यह है कि वर्तमान शरीर की तुलना में नवनिर्मित पाँच शरीर कहीं अधिक समर्थ होंगे। सन् 2000 से अभी 16 वर्ष बाकी हैं। पाँचों शरीरों को इस पूरे समय में जमकर दिन-रात मशक्कत करनी है। इतने समय तक उनकी वर्तमान काया जीवित रहे और अत्यन्त बलिष्ठों जैसी भूमिका निभा सके ऐसी आशा नहीं की जा सकती। फिर वह जीवित रहकर भी एकांगी रहेगी। चर्म कलेवर एक सीमा में ही कार्य करने के लिए बाधित होता है। उसके अनेक सीमा बन्धन हैं। इनके रहते वे कार्य सध नहीं सकते जो उनके कन्धों पर आये हैं। कुन्ती स्वयं महाभारत लड़ नहीं सकती थी। इसके लिए उसे नवीन सृष्टि करनी पड़ी। अंजनी पुत्र हनुमान ने जो उत्तरदायित्व निभाये, वे उनकी माता अंजनी निभा नहीं सकती थी। स्वयंभू मनु और शतरूपा रानी ने तप करके भगवान को जन्म दिया था। वे दोनों स्वयं ही अवतार रूप धारण करना चाहते तो कर नहीं सकते थे। बीज कितना ही सामर्थ्यवान क्यों न हो अपने उसी रूप में वृक्ष नहीं बन सकता। उसे गलना होता है और अनेक शाखा पल्लवों वाले वृक्ष के रूप में विकसित होना होता है। छाया, पल्लव, फूल, फलों से लदने के रूप में बीज अपने मूल रूप में विकसित नहीं हो सकता। बीज की कितनी ही महिमा क्यों न हो वह अपने मूल रूप से वृक्ष नहीं बन सकता और वृक्ष की जो उपलब्धियाँ हैं, वह बीज के कलेवर में रहते हुए पूरी नहीं कर सकता।

गुरुदेव का वर्तमान शरीर सीमित परिधि में ही मनुष्यों से संपर्क साधता रहा है। आगे भी उसकी यही परिधि रहेगी। जबकि असंख्य लोगों के साथ न केवल संपर्क साधने की वरन् अनुदान बाँटने की भी आवश्यकता पड़ेगी। इसके लिए उनका विकास सूक्ष्म शरीरों के रूप में होना नियति की विधि व्यवस्थानुसार आवश्यक है।

अस्पतालों में आक्सीजन गैस के सिलेण्डर रहते हैं। उससे एक समय में एक या दो रोगी की आवश्यकता ही पूरी हो पाती है। लाखों मनुष्यों को प्राणदान देना हो तो सूक्ष्म अदृश्य वायु का प्रवाह ही उस कार्य को कर सकता है। अँगीठी सीमित गर्मी दे सकती है। लैम्प का प्रकाश भी सीमित क्षेत्र में ही अपना प्रभाव दिखाता है। किन्तु सूर्य की किरणें आधी पृथ्वी को गरम और प्रकाशवान बनाती है। उससे करोड़ों मनुष्य और प्राणी लाभ उठाते हैं। इस लाभ की आशा अँगीठियों और लैम्पों से नहीं की जा सकती। एक काया में अवरुद्ध होने के कारण गुरुदेव की वर्तमान सामर्थ्य सीमित है। यों इस सीमा में सीमित रहते हुए भी उन्होंने अनेक ऋषियों की विविध प्रकार की गतिविधियों को संचालित किया है। अब तक की आवश्यकता सीमित थी। इसलिए उतने से भी काम किसी प्रकार चलता रहा है। पर आवश्यकता हजारों लाखों गुनी बढ़ गई है। युग परिवर्तन के अनेकों पक्ष हैं और हर पक्ष की ढेरों ऐसी आवश्यकताएँ हैं। इसीलिए अनिवार्य हो गया है कि उनका सूक्ष्मीकरण हो। एक स्थान की पूर्ति के लिए उस स्थान को ग्रहण करने के लिए पाँच सूक्ष्म शक्तियाँ स्थानापन्न हों। अभी पाँच कलेवरों में से वे इसी दृष्टि से अपने को विकसित विकेन्द्रित कर रहे हैं।

अब तक के जीवन में गुरुदेव ने प्रायः 24 लाख व्यक्तियों को अपने से सम्बद्ध किया है। इनकी ढेरों आवश्यकताओं की पूर्ति अभी भी बाकी है। अभी ऐसी स्थिति नहीं आई है कि इन्हें मार्गदर्शन या सहयोग की आवश्यकता न रही हो। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए उनने अपना नव विकसित शरीर सुरक्षित रखा है। पाठकों- प्रज्ञा परिवार के परिजनों में से एक को भी यह न कहना पड़ेगा कि वयस्क होने से पहले ही हमारी उंगली छोड़ दी गई। हमारी नाव मझधार में ही रह गई।

मनुष्यों की संख्या 500 करोड़ के लगभग पहुँचने जा रही है। इनके साथ गुरुदेव का सीधा संपर्क नहीं बन सका है। देश की सीमा बन्धन और साथ ही भाषा सम्बन्धी कठिनाई अब तक सीमित व्यक्तियों से ही प्रत्यक्ष संपर्क साध सकी है। जब कि आवश्यकता इससे हजार गुने अधिक लोगों के साथ संपर्क साधने और प्राण भरने की है। नेतृत्व कर सकने वाले थोड़े ही होते हैं। उन्हीं पर सारा बोझ नहीं लादा जा सकता। जन साधारण को अपने पैरों पर भी खड़ा होना होगा। इसके उपरान्त ही नेतृत्व का सहयोग कुछ काम दे सकता है। पाँच सूक्ष्मीकृत शरीर में से एक प्रज्ञा परिजनों के लिए और दूसरा सर्वसाधारणों के लिए सुरक्षित है। इतनी व्यवस्था जुटाये बिना अब तक के संपर्क सूत्र में बँधे हुए लोग गड़बड़ा जायेंगे और नये लोगों में प्राण फूँकने का काम समाप्त हो जायेगा। युग परिवर्तन की बहुमुखी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अब तक संपर्क सूत्र में बँधे हुए लोग तो यथावत् यथा स्थान रहने ही चाहिए। यह संख्या बल और भी बढ़ना चाहिए। फसल लगातार बोई और काटी जाती रहनी चाहिए। तभी खेत हरे-भरे रहेंगे।

मूर्धन्य लोग तीन स्तर के हैं। मनीषी- संपत्तिवान- क्रिया कुशल, प्रतिभावान। इन तीनों वर्गों के ऊपर जनसाधारण के नेतृत्व का भार है। तीनों ही अपनी विभूतियों द्वारा ऐसे कार्य करते हैं जिनका प्रभाव जनसाधारण पर पड़ता है। इनके द्वारा संचालित प्रवृत्तियां सर्वसाधारण को प्रभावित करती हैं। बड़ों का अनुकरण छोटे करते हैं। प्रतिभावान अपने क्रिया-कृत्यों द्वारा अन्यों को अनुकरण की प्रेरणा देते हैं। तीन सूक्ष्मीकृत शरीर इन तीन मूर्धन्यों को सही मार्ग पर चलने- सत्प्रवृत्तियां उभारने के लिए हैं। संसार में सदा यही होता आया है। मूर्धन्य लोगों ने सर्वसाधारण को अपने पीछे चलाया। उन्हें सुधारा, सम्भाला, बदला और सत्प्रवृत्तियों के नियोजन में लगाया जा सके तो एक हवा चलती है। वातावरण बनता है और वह बन पड़ता है जिस पर नव निर्माण की आधारशिला निर्भर है।


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