भारतीय तत्व दर्शन पलायनवादी नहीं

October 1984

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“संसार दुःखमय है। काया अपवित्र है। यहाँ सब कुछ माया और भ्रम है। कोई किसी का नहीं। सब मतलब के साथी हैं। अस्तु सब कुछ त्याग कर बैरागी होना चाहिए।” यह मध्यकालीन अन्धकार युग की मान्यताएँ हैं। इन्हें कितने ही भारतीय दार्शनिकों ने प्रश्रय दिया। फलतः लम्बे समय तक त्याग के नाम पर गृहत्याग- कर्तव्य त्याग यहाँ तक कि अनशन आदि से शरीर त्याग की विधा बहुतों ने अपनायी। अध्यात्म संवाद सुनने वालों में से अनेकों ने ऐसी ही मान्यता बनाई और वे अनासक्त, निस्पृह, स्थितप्रज्ञ आदि शब्दों का तात्विक अर्थ न समझ कर जड़ भरत जैसे अन्यमनस्क जीवन जीने लगे। उदासीनता एक सम्प्रदाय विशेष बन गई। उसे अपनाने वालों ने श्रम और दायित्व का परित्याग करने पर भी श्रेय सम्मान अर्जित किया। ऐसा था, वह दिग्-भ्रान्ति का युग, उसे दार्शनिक अवसाद की बेला कहा जा सकता है।

‘सर्व क्षणिकं, सर्व दुःख’

यह सब कुछ क्षणिक नश्वर है और दुःखमय है।

निर्वाह साधनों के उपार्जन और उपयोग को भी हेय ठहराया गया। कहा गया-

आये दुःखं, व्यये दुःखं, धिगर्थान् कष्टकारणम्।

कमाने में दुःख, खर्चने में दुःख, जिससे दुःख ही दुःख मिलता है उस धन को धिक्कार।

आश्चर्य यह है कि जिनने इन उक्तियों का प्रतिपादन किया वे इसी संसार में निवास निर्वाह करते रहे। इतना ही नहीं धन साहस साधनों के सहारे सुखपूर्वक जीवनचर्या चलाते रहे। न उनने संसार छोड़ा, न देह और न निर्वाह साधनों का परित्याग ही कर सके। जो प्रतिपादनकर्त्ताओं तक के लिए साध्य नहीं, उसे व्यावहारिक कैसे कहा जाय? फिर भी उसे कहा जाता रहा। परिणाम एक ही हुआ। उदासीनता का ऐसा वातावरण जिसमें पुरुषार्थ की उपेक्षा होने लगी। साथ ही कर्त्तव्य पालन के लिए जिस तत्परता की आवश्यकता थी। अनौचित्य से जूझने के लिए जो पराक्रम अभीष्ट था, उसकी उपेक्षा चल पड़ी। संक्षेप में यह मध्यकालीन दार्शनिक अवसाद ही हमारे पतन पराभव का कारण बना।

देखना यह है कि वस्तुतः भारतीय दर्शन पलायनवादी है। उसमें स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, जैसी व्यक्तिगत स्वार्थपरता को ही सब कुछ माना गया है। जीवन को महान बनाने तथा लोक मंगल के लिए पराक्रम करने जैसी साहसिकताओं के लिए उसमें कोई स्थान नहीं है।

शरीर को तीर्थ, देवालय, ऋषि आश्रम की संज्ञा दी गई है और उसकी पवित्रता प्रखरता अक्षुण्ण रखने तथा बढ़ाते चलने का निर्देश दिया गया है। यजुर्वेद की ऋचा है-

सप्त ऋषायः प्रति हिताः शरीरे। सप्त रासन्ति सदम प्रमादम् ॥

अर्थात्- यह शरीर सप्त ऋषियों का पवित्र आश्रम है ये सातों सतर्कतापूर्वक इसका संरक्षण करते रहते हैं।

यह सप्त ऋषि रक्त माँस आदि सप्त धातुएं हैं। षट्चक्र और सातवाँ ब्रह्मरन्ध्र यह सात लोक हैं। सात प्रमुख धमनियों को सप्त सरिता कहा गया है। दोनों नेत्रों की सूर्य चन्द्र से तुलना की गई है। पाँच प्राण से बनी चेतना को भूलोक की उपमा दी गई है।

यही बात इस विश्व ब्रह्मांड के सम्बन्ध में भी है। गीता में भगवान ने अर्जुन को अपने विराट् रूप का दर्शन कराया। यह दिव्य चक्षुओं से होने वाला दिव्य दर्शन और कुछ नहीं इस विश्व ब्रह्मांड को ईश्वर का स्वरूप मानने और उसके प्रति सेवा साधना का श्रद्धाँजलि अर्पित करने का भाव रखने का ही प्रतिपादन है।

भारतीय संस्कृति पलायनवादी नहीं वरन् इसमें सौ वर्ष तक प्रबल पुरुषार्थ करते हुए जीवित रहने और प्रगति पथ पर चलते हुए पूर्णता तक पहुँचने का निर्देशन है।


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