युग द्रष्टा ने तुम्हें पुकारा, पृथ्वी-पुत्रों आओ। तरुणाई बेकार न जाए, ऐसा पथ अपनाओ॥
हाड़-माँस के पिण्ड नहीं तुम, सविता की संतानो, चीरो अन्धकार की परतें, अपने को पहचानो,
जिस भविष्य के लिए धरा ने सही प्रसव की पीरें, तुम उसको साकार बनाओ, पीटो नहीं लकीरें,
परम्परा ही नहीं सभी कुछ, प्रबल विवेक जगाओ। तरुणाई बेकार न जाए, ऐसा पथ अपनाओ॥
उसी भूमि पर जन्मे हो तुम, गूँजी जहाँ ऋचाएँ, ऋषि दधीचि, शिवि, हरिश्चन्द्र की अजर-अमर गाथाएँ,
रही दिखाती कर्मभूमि का मार्ग जहाँ पर गीता, जहाँ अहिंसा के साधक ने हिंसा का गढ़ जीता,
जो अतीत की ज्योति प्रखर है, उसे अखण्ड जलाओ। तरुणाई बेकार न जाए, ऐसा पथ अपनाओ॥
अनाचार, अन्याय, कपट को बना सिद्धि की सीढ़ी, महामानवों की छवि धूमिल करती बौनी पीढ़ी,
देवासुर संग्राम छिड़ा है गली-गली, घर-घर में, निर्णय करो, किधर जाना है, ऐसे विषम प्रहर में,
गूँजे शंखनाद संस्कृति का, ऐसी ध्वजा उठाओ। तरुणाई बेकार न जाए, ऐसा पथ अपनाओ॥
कीट-पतंगे भी बुन लेते निज का ताना-बाना, जीव प्रबुद्ध वही है जिसने युग का स्वर पहचाना,
खड़ा सामने आज मसीहा स्वयं मशाल उठाए, धरती पर ऐसा शुभ अवसर जाने फिर कब आए,
बहती गंगा द्वार तुम्हारे, तन-मन विमल बनाओ। तरुणाई बेकार न जाए, ऐसा पथ अपनाओ॥
*समाप्त*