मनुष्येत्तर प्राणियों का विकसित संसार

October 1984

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वह क्षण निश्चित ही दुर्भाग्यपूर्ण रहा होगा, जब मनुष्य ने अपने आपको सर्वश्रेष्ठ होने का अहंकार पाल लिया। क्योंकि इस स्थिति में मनुष्य ने विश्व वसुधा के सृष्टि परिवार के अन्याय प्राणियों को हीन और हेय मान लिया। सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी समझने की अहंमन्यता मनुष्य में किसी भी कारण से विकसित हुई हो लेकिन यह सत्य है कि उसने अपने इस पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर निरीह प्राणियों का शोषण और मनचाहा उत्पीड़न किया। अपनी अहंमन्यता को उसने संसार के दूसरे प्राणियों पर जिस ढंग से थोपा उसकी प्रतिक्रिया परिणति या कहना चाहिए उसका विकास स्वयं उसके लिए ही उलटा दाँव सिद्ध हुआ है। जो दाँव उसने मनुष्येत्तर प्राणियों पर चलाया था। वह धीरे-धीरे उसके स्वभाव का अंग बन गया और अब वह यही प्रयोग अपनी जाति पर भी अपनाने लगा है। परिणाम यह हो रहा है कि मानवीय सम्वेदना धीरे-धीरे घट रही है तथा वैयक्तिक सुख स्वार्थ के लिए शोषण और अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं। इस स्थिति को व्यक्ति-व्यक्ति के बीच, परिवार-परिवार के बीच, जातियों, समुदायों और विभिन्न राष्ट्रों के बीच खींच-तान के रूप में स्पष्ट देखा जा सकता है।

होना यह चाहिए था कि मनुष्य अपनी सर्वश्रेष्ठता की अहंमन्यता नहीं पालता और सभी प्राणियों को जिज्ञासा भरी दृष्टि से देखता। उनकी अनन्त क्षमताओं से कुछ सीखने का प्रयत्न करता। कदाचित् ऐसा हुआ होता तो स्थिति कुछ और ही होती। वह अपने सहचर पशु-पक्षियों को देखता, यह जानता कि प्रकृति ने उन्हें भी कितने लाड़-दुलार से सजाया सँवारा है तो उसका हृदय और विशाल बनता तथा चेतना का स्तर और ऊँचा उठता।

इस स्थिति में प्रतीत होता कि अभागे कहे जाने वाले इन जीवों को भी प्रकृति से कम नहीं, मनुष्य की अपेक्षा कहीं अधिक उपहार ही मिले हैं और वह कई क्षेत्रों में अन्य प्राणियों से पीछे है। उदाहरण के लिए मनुष्य पक्षियों को पक्षियों की तरह अकेले किसी एक ही दिशा में बहुत ऊँचाई तक उड़ने की सामर्थ्य प्राप्त करने में अभी समय लगेगा। वह भी किन्हीं यन्त्रों की मदद से। स्वयं के बलबूते पर तो उसके लिए जमीन से 2-3 फुट ऊपर ऊँचाई पर चलना भी असम्भव है। मनुष्य को गर्व हो सकता है कि वह गगनचुम्बी इमारतें और बड़े-बड़े पुल बाँधने में समर्थ है। किन्तु मधुमक्खियों और चींटियों की कलाकारिता देखी जाए तो उनकी कुशलता के सामने मनुष्य की सारी कलाकारिता धरी रह जायेगी। बीवर जैसा चतुर और कुशल इंजीनियर तो बिना प्रशिक्षण प्राप्त किए अपनी क्षमता का जिस तरह प्रदर्शन करता है, वह मनुष्य के लिए कहाँ सम्भव है?

चींटी अपने भार से सत्तर गुना अधिक भार सहज ही ढो सकती है। इसकी तुलना में मनुष्य का जितना वजन है, उस हिसाब से उसे कम से कम 35 क्विंटल वजन अपने सर या पीठ पर ढो लेना चाहिए पर मनुष्य में उतनी क्षमता कहाँ है? पिस्सू और मेंढक अपनी ऊँचाई से 250 गुना अधिक ऊँचाई तक उछल सकते हैं। मनुष्य में वैसी क्षमता तभी मानी जाएगी जब वह 1375 फीट आसानी से उछल जाए। किन्तु वह तो दस फीट ऊँची दीवार भी नहीं फाँद सकता। मधु-मक्खी छत्ता बनाती है तो जिस डाल पर ऊपर की ओर 20 मधुमक्खियाँ होती हैं उनके नीचे 10000 मक्खियों का सात किलो वजन लटकता रहता है। इस हिसाब से एक मनुष्य की टाँगें पकड़कर 2000 व्यक्तियों को लटक जाना चाहिए। दुनिया का कोई बड़ा से बड़ा पहलवान या जिमनेस्ट भी ऐसा नहीं कर पाने में कहाँ समर्थ होता है?

चील की आंखें जितनी तेज होती हैं, उसी अनुपात में यदि मनुष्य की दृष्टि तीक्ष्ण रही होती तो वह प्लूटो ग्रह पर चल रही गतिविधियों को अपने घर के आँगन में बैठा-बैठा देख सकता था। चमगादड़ जैसे श्रवण शक्ति यदि इंसान को मिल सकी होती तो वह अपनी कोठरी के अन्दर बैठा-बैठा ही धरती के किसी भी हिस्से में बैठे दो व्यक्तियों के बीच चल रही काना-फूसी सुन सकता था। कुत्ते जैसी घ्राण शक्ति यदि मनुष्य को मिल जाती तो वह चाहने पर मंगल ग्रह पर उठ रही अमोनिया गैस को घर में बैठे-बैठे ही सूँघ सकता था। एक तितली दिन भर में जितना उड़ती है उसे लम्बाई में नापा जाए तो वह दस मील दूर तक उड़ लेती है। मनुष्य का भार उसकी तुलना में कई हजार गुना है। तितली के हिसाब से यदि वह उड़े तो उसे एक दिन में अधिक नहीं तो कम से कम पृथ्वी की एक बार तो परिक्रमा कर ही लेना चाहिए। परन्तु ऐसा क्या सम्भव हो पाता है? नहीं न। फिर किस आधार पर मनुष्य यह कह सकता है कि वह सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिक विभूतिवान प्राणी है?

ज्ञान और बोध की दृष्टि से भी कई प्राणी मनुष्य की तुलना में बहुत आगे हैं। दीमकों के झुण्ड वर्षा ऋतु आने से पहले एकाएक न जाने कहाँ विलुप्त हो जाते हैं? मकड़ियाँ वर्षा नहीं होती, एवं शुरू होने ही वाली होती है कि अपने जाले समेटने लगती हैं, चींटियां अपनी खाद्यान्न व्यवस्था सुरक्षित करने लगती हैं। असामयिक वृष्टि की सूचना गौरैया मिट्टी में लोट कर, मिट्टी स्नान द्वारा पहले से ही देने लगती है। इस अनुपात से मनुष्य को जैसी सूक्ष्म बुद्धि प्राप्त है, उसके अनुसार तो उसे त्रिकालदर्शी होना चाहिए था पर कितने लोग त्रिकालदर्शी हो पाते हैं? कारण स्पष्ट है कि वह अपनी इन क्षमताओं के विकास की बात तो दूर उन्हें पहचानने और अनुभव करने तक का प्रयास ही नहीं करता, प्रयास भी दूर की बात रही, वह इसकी आवश्यकता ही नहीं समझता।

माननीय काया विलक्षण अद्भुत रसायनों का भण्डार है। हारमोन्स के रूप में अब जिन स्रावों का ज्ञान वैज्ञानिकों और शास्त्रियों को हुआ है, उससे तो पुराण युग की कल्पनाएँ भी साकार सत्य होने जा रही हैं। आकार वृद्धि या संकुचन की दृष्टि से योग शास्त्रों में वर्णित अणिमा, लघिमा, महिमा, गरिमा आदि अष्ट सिद्धियाँ अब कोई असम्भव बात नहीं रही। हारमोन्स के अध्ययन ने इन सम्भावनाओं पर अपनी स्पष्ट मुहर लगा दी है। मनुष्य शरीर परमात्मा का दिया हुआ एक सर्वांगपूर्ण यन्त्र है। किन्तु उसका मनुष्य कितना सदुपयोग कर पाता है? यह एक विचारणीय प्रश्न है। शरीर को मनचाही स्थिति में बदलकर यौगिक क्रियाएँ करने और अपनी शारीरिक क्षमताओं से विशेष लाभ अर्जित करने की सफलता योगीजन ही प्राप्त कर सके हैं, किन्तु प्रकृति के पुत्रों ने मनुष्य को इस क्षेत्र में पीछे छोड़ दिया है और वे योगियों से भी आगे बढ़ गये हैं। अमेरिका के जन्तु शास्त्रियों ने यह पता लगाया है कि कुछ पक्षियों में इस प्रकार की विशेष क्षमता होती है, जिसके द्वारा वे एक क्षण में ही अपनी आँख के लैन्स को दूरदर्शी (टेलिस्कोप) से सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) में बदल लेते हैं। दूर की वस्तु ताड़ने या समीप की छोटी वस्तु को बड़े आकार में करके पहचानने के लिए अपनी इस क्षमता का उपयोग करते हैं।

ईल मछली तो किन्हीं तांत्रिकों या काला जादू जानने वालों की तरह मारण मन्त्र का प्रयोग करती है। वह अपने शिकार को देखकर दूर से ही अपने शरीर को ऐसा तिगनी का नाच नचाती है जैसे डायनेमो चल पड़ा हो और सचमुच इस क्रिया से वह डायनेमो की तरह विद्युत शक्ति उत्पन्न करती है, जिसके प्रभाव से शिकार तत्क्षण मर जाता है और तब वह उसका भक्षण कर लेती है।

कबूतर 55 मील प्रति घण्टे की रफ्तार से उड़ सकता है पर वह सामान्यतः 40 मील प्रति घण्टे की गति से ही उड़ता है। कई देशों में कबूतर उड़ाने की प्रतियोगिताएँ होती हैं। इसके लिए कबूतरों को और तेज गति से उड़ाने का अभ्यास कराया जाता है। स्पेन में हुई एक प्रतियोगिता में 919 मील की उड़ान एक कबूतर ने कुल तीन घण्टे में पूरी कर ली थी। इसी प्रकार से एक अन्य प्रतियोगिता में एक कबूतर ने 4 घण्टे में ही रोम से डर्बी तक करीब 1000 मील की दूरी तय कर ली थी। अमेरिका के एक कबूतर ने 35 घण्टे में 10010 मील की दूरी तय कर रिकार्ड कायम किया। वहीं के एक अन्य कबूतर ने 43 घण्टे लगातार मैनिटोपा (कनाडा) से अमेरिका के दक्षिणी छोर टैक्सास तक की 2040 मील की दूरी तक बिना रुके आने-जाने का रिकार्ड स्थापित किया। दक्षिण पश्चिम अफ्रीका के ईयाकद्वीप से उड़ाया गया लन्दन के एक कबूतर ने 5500 मील की अनवरत यात्रा 15 घण्टे में पूरी कर सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिये। कदाचित् इस तरह की क्षमता मनुष्य को मिल सकी होता तो उसने अंतर्ग्रहीय दूरियों को ताक पर रख दिया होता। तब तो वह धरती पर अपना घर बनाता, चन्द्रमा पर खेती करता और सैर करने के लिए मंगल तथा शुक्र ग्रहों पर उद्यान लगाता। पर हाय रे मनुष्य का भाग्य। वह तो दिन भर में अधिक से अधिक 30 मील ही पैदल चल पाता है। इससे अधिक चलने या दूर की यात्रा तय करने के लिए उसे यन्त्रों का ही सहारा लेना पड़ता है।

उड़ने या तेज गति से यात्रा करने में कबूतर के अलावा भी दूसरे कई पक्षी हैं जो उससे अधिक तीव्र गति से भी उड़ सकते हैं परन्तु कबूतर में विलक्षण परीक्षण बुद्धि और स्मरण शक्ति भी पाई जाती है, जो अन्य प्राणियों में दुर्लभ है। मास्को के एक इंजीनियरिंग कारखाने के कुछ विशेषज्ञों ने उनकी इस अद्भुत क्षमता का उपयोग करने का निश्चय किया। बाल-बियरिंग बनाने वाले उस कारखाने में कुछ खरोंच लगे व चोट खाये बियरिंगों को अलग करने की समस्या थी। कुशल से कुशल कारीगर भी उन्हें छांटने में चूक जाते थे। किन्तु कुछ कबूतरों को कुल तीन दिन की ट्रेनिंग देकर इस काम में लगाया गया तो उन्होंने कुशल कारीगरों को भी मात कर दिया। अब इनमें से प्रत्येक कबूतर एक घण्टे में 3500 बाल-बियरिंग की जाँच कर लेता था। आश्चर्य की बात तो यह है कि उनने जरा भी चूक नहीं की। मनुष्य के मस्तिष्क में न्यूरोन्स कणों की संख्या अरबों-खरबों होती है, जिनमें स्मृति के बीज होते हैं। कबूतरों की तुलना में इस मस्तिष्क का यदि पूर्ण विकास किया जा सके तो संसार में जितने पुस्तकालय हैं, उन सबकी पुस्तकों को एक ही मनुष्य कण्ठस्थ कर सकता है।

मधुमक्खियाँ, बर्रे तथा चींटियां भी स्मरण शक्ति की दृष्टि से अद्वितीय सामर्थ्यवान जीव हैं। इन पर कई प्रयोग करके यह देखा गया है कि उन्हें चाहे जितना भटका दिया जाये, घर पहुँचने में उन्हें जरा भी दिक्कत नहीं होगी। ध्वनि और गन्ध को पहचानने की क्षमता तो इनमें अद्भुत ही कही जा सकती है। जर्मनी में एक विचित्र प्रयोग द्वारा इस तथ्य को प्रमाणित किया गया। इस प्रयोग में टेलीफोन के एक रिसीवर से एक फीट दूर एक मादा झींगुर और एक मादा टिड्डे को रखा गया। वहाँ से बहुत दूर पहले एक नर झींगुर को ट्राँसमीटर के पास रखा गया। जैसे ही उसने ट्रांसमीटर के पास ध्वनि की और वह ध्वनि रिसीवर तक पहुँची, मादा झींगुर अपने स्थान से भागकर रिसीवर में जा घुसी, यद्यपि रिसीवर में उसे अपना प्रेमी नहीं मिला, तो भी उसने अपने प्रेमी की आवाज को पहचानने में भूल नहीं की थी। इस सारे उपक्रम में मादा टिड्डा अपने स्थान पर जमा हुआ था। दुबारा ट्रांसमीटर के पास टिड्डे की ध्वनि कराई गई तो इस बार मादा टिड्डा भागकर आई और उसने यह सिद्ध कर दिया कि वह भी अपने वंश को पहचानने की सूक्ष्म बुद्धि से पूरी तरह ओत-प्रोत है।

जीव-जन्तुओं के इस तरह सुव्यवस्थित, विवेकपूर्ण और सुविकसित जीवन क्रम का लम्बे समय तक अध्ययन करने के बाद सुप्रसिद्ध जीवशास्त्री हेनरी बेस्टन ने बहुत ही मार्मिक और भावपूर्ण समीक्षा करते हुए लिखा है कि प्रकृति से परे कृत्रिम जीवन जीने वाला मनुष्य इन छोटे-छोटे प्रकृति पुत्रों का ज्ञान के चश्मे से देखता, उनकी अपूर्णता पर दया दिखाता और उनकी विवशता पर तरस खाता है, किन्तु यह उनकी छोटी नहीं, जबर्दस्त भूल है। मनुष्य को अपने सर्वश्रेष्ठ होने का अहंकार त्याग देना चाहिए और मनुष्येत्तर प्राणियों के विकसित संसार से कुछ शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए।


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