गायत्री जप का वैज्ञानिक आधार

October 1984

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गायत्री महामन्त्र के विधि-विधान सहित जप की महत्ता शास्त्रकारों ने बड़े विस्तार से लिखी है। कोई भी ऐसा ग्रन्थ नहीं देखने में आता जिसमें इस मन्त्र के जप की व्यष्टिगत एवं समष्टिगत फलश्रुतियों का वर्णन न किया गया हो। यदि समुचित विधि से कर पाना सम्भव न भी हो तो भी इसके किसी भी अवस्था में जप व भावनात्मक ध्यान के सत्परिणाम होते बताये गये हैं। इसके पीछे इस मन्त्र में निहित प्रेरणाओं का महत्व तो है ही, छन्द शास्त्र की दृष्टि से शब्द गुच्छकों की महत्ता तो अपनी जगह है ही इसका मनोवैज्ञानिक आधार भी इतना सशक्त है कि यह एक पूर्णतः विज्ञान सम्मत प्रक्रिया प्रतीत होती है।

वस्तुतः मनुष्य शरीर एक ऐसी जटिल मशीन है जिसे समझने में सैकड़ों वैज्ञानिक लाखों जीव शास्त्री और करोड़ों चिकित्सा शास्त्री लगे हुए हैं किन्तु अब तक जितना जाना जा सका है वह नगण्य ही है।

योग साधनाओं के द्वारा इस शरीर के सम्बन्ध में जो कुछ जाना गया है, वह विज्ञान की अपेक्षा कई गुना अधिक महत्वपूर्ण है। इन साधनाओं के कठोर अभ्यास के द्वारा चेतना के गहन अन्तराल में प्रविष्ट हो तत्वदर्शी ऋषियों ने इस शरीर को ब्रह्मांड की प्रतिकृति के रूप में पाया। इसमें ऐसे-ऐसे चक्र, कोश, उपत्यिकाएँ नाड़ी गुच्छक और दिव्य क्षमता सम्पन्न केन्द्र विद्यमान हैं जिन्हें देखकर उन्हें “यत् ब्रह्माण्डे तत्पिण्डे” जो कुछ ब्रह्मांड में है वह सारा का सारा इस पिण्ड (देह) में विद्यमान है। 13 करोड़ प्रकाश वर्ष के विराट् क्षेत्र वाले इस ब्रह्मांड के मॉडल शरीर को वस्तुतः सृष्टि की सबसे विलक्षण मशीन कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। जप विज्ञान एक ऐसी विद्या है जिसमें “शब्द” को बार-बार दुहरा कर बाँसुरी के छिद्रों में वायु फूँक कर उसमें से मधुर ध्वनि निकालने के समान इन शरीरस्थ शक्ति केन्द्रों में से वह क्षमताएँ अर्जित कर ली जाएं जो साधारण व्यक्तियों के लिए अद्भुत और चमत्कार जैसी लगें। इन शक्तियों को जागृत करने में जप साधना महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसके माध्यम से आत्म-चेतना का उच्चस्तरीय शिक्षण होता है इसी कारण प्रत्येक धर्म चाहे वह हिन्दू हो या सिख, ईसाई, बौद्ध, ताओ, इस्लाम या बहाई कोई भी हो अपनी उपासना पद्धति में जप को अनिवार्य रूप से जोड़ रखा है।

जप में गायत्री मन्त्र के जप को प्रधानता जो दी गयी है, इसका कारण यह है कि महाप्रज्ञा का उच्चस्तरीय तत्व दर्शन इसमें समाहित है। सद्बुद्धि की प्रेरणा से मानव मात्र का कल्याण सोचने वाले आर्षकालीन ऋषियों ने इसे अत्यधिक महत्व देते हुए वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता तक कहा है। न केवल हिन्दू धर्म में अपितु अन्यान्य मत सम्प्रदायों में भी इसे उचित स्थान प्राप्त है। गाँधीजी ने इसे भावी विश्व धर्म या संस्कृति का मूल आधार माना था व कहा था कि कभी विश्व-शान्ति आयी तो इसी मन्त्र की प्रेरणा से आ सकेगी।

गायत्री मन्त्र पूर्णतः विज्ञान सम्मत है एवं इसकी जप प्रक्रिया केवल मनोवैज्ञानिक क्रिया नहीं, अपितु लय-ताल पर आधारित शब्द-शक्ति की वैज्ञानिक विद्या है।

यहाँ विज्ञान की उस जटिलता में जाना अभीष्ट नहीं है। अपितु जप के माध्यम से आत्म चेतना का उच्चस्तरीय प्रशिक्षण किस प्रकार होता है, उसकी जानकारी देना है। जप व्यक्ति को अपनी अंर्तचेतना की ओर अभिमुख करने और विराट् चेतना के साथ संगति सामंजस्य स्थापित करने की एक विज्ञान सम्मत प्रक्रिया है। गायत्री उपासना के प्रारम्भिक स्तर के साधक को मन्त्र जप का मनोवैज्ञानिक आधार समझ में आ जाये तो मन न लगने ध्यान उखड़-उखड़ जाने वाली कठिनाई आधा निराकरण तत्काल हो जाता है शेष मंजिल वह कुछ ही समय में पूर्ण कर सकता है।

मनोवैज्ञानिकों ने चेतना को प्रशिक्षित करने के लिए जो चार आधार बताए हैं वह चारों ही तथ्य “जप” में सन्निहित हैं। जप को इन्हीं चार धारणाओं का समुच्चय कह सकते हैं। यह आधार है (1) शिक्षण- बार बार दोहराना- रटना (2) जो जाग गया है या जिसे बार-बार दुहराया गया है, उसे स्व-स्वभाव का अंग बना लेना (3) टूटे सम्बन्धों को फिर कायम करना, बिखरे हुए स्नेह सम्बन्धों को फिर से स्थापित करना और (4) अपनी आस्था निष्ठा- और विश्वास को अनुभूति और सम्वेदना के स्तर तक प्रगाढ़ बना देना। दार्शनिक शैली में इन्हें ही (1) आत्म निरीक्षण (2)आत्म शोधन (3)आत्म निर्माण और (4) आत्म विकास कहते हैं। यह क्रमिक सोपान हैं। जप की चार सीढ़ियां हैं जिन पर चढ़ कर ही आत्मा परमात्मा तक पहुँचती है। इनमें योगाभ्यास जैसे क्रियाएँ दिखाई न देने पर भी इतनी सुदृढ़ता है कि मात्र इसी के आधार को अपनाकर व्यक्ति आत्म निरीक्षण से आत्मोत्कर्ष तक की उच्च स्थिति तक जा पहुँचता है।

जप की महत्ता अकारण रही होती तो गायत्री उपासकों से नियमित रूप से अधिक से अधिक जप की प्रेरणा देकर निरर्थक समय गँवाने के लिए नहीं कहा जाता, इसके पीछे मनोवैज्ञानिक के यही चार सशक्त सिद्धान्त कार्य करते हैं, यह साधक को दीन-हीन अवस्था से उठाकर महा समर्थ अवस्था तक पहुँचाने में पूर्ण सक्षम हैं। अज्ञान की राख से ढके आत्मा के श्रृंगार को चमकाने में यही चार आधार हैं। जप प्रक्रिया इन्हीं को पूरा करती है।

‘शिक्षण’ संस्कार की पहली भूमिका है। संसार में ऐसा कोई शिक्षित व्यक्ति नहीं जिसने इस भूमिका में प्रवेश किए बिना स्कूल की पढ़ाई पूरी की हो। प्रारम्भ में सभी को बार-बार दोहराने की क्रिया से करना पड़ता है। जप साधना में भी मन्त्र को बार-बार दोहराना पड़ता है। उसके बिना अभीष्ट संस्कार उत्पन्न नहीं होते।

गायत्री मन्त्र में परमात्मा से सद्बुद्धि प्रदान करने वाले जिस “धी” तत्व की माँग की गई है वह एक बार कह देने मात्र से संस्कार नहीं बन सकता। मनोभूमि उस ऊबड़-खाबड़ कठोर भूमि की तरह होती है जिसमें जुताई निराई गुड़ाई किये बिना बीज बोना उसे निरर्थक गँवा देने की तरह है साधना का बीज फले फूले इसके लिए “जप” द्वारा उसकी पर्याप्त जुताई आवश्यक होती है जप के द्वारा व्यक्ति को अपने भीतर झाँकने का अभ्यास होता है जिससे वह अन्तरंग में छिपे कल्मष कषायों को पहचानता है उन्हें नष्ट करने, निकाल बाहर फेंकने की योजना बनाता है। भागवत् संस्कारों को गहराई तक जमाने के लिए इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। जप एक तरह की रगड़, मँजाई, खराद है जिससे मन और अन्तःकरण पर छाई हुई कलुष-कालिमा की धुलाई होती है। भीतर की अंतरात्मा की चमक उसी से प्रारम्भ होती है। इसीलिये प्रत्येक गायत्री उपासक को प्रतिदिन नियमित रूप से नियत स्थान में और सम्भव हो तो नियत संख्या में भी गायत्री मन्त्र जप का क्रम अपनाना चाहिए। कभी कम कभी अधिक से कहीं वर्षा कहीं सूखा, कहीं बीज कहीं ऊसर की सी उपहासास्पद स्थिति बनती है। यह अभ्यास का क्रम काफी समय तक चलता है तब कही सफलता का द्वारा खुलता है।

आत्म विकास की दूसरी सीढ़ी “जानकारी को स्वभाव का अंग बना लेना” अपने दोषों पर जैसे-जैसे दृष्टि साफ होती जाती है साधक उनके प्रति घृणा भी करने लगता है और उनका परित्याग भी करता है। अकेले आत्म निरीक्षण से सन्तोष कर लिया जाये तो इसे अधूरा जप माना जायेगा, स्वभाव में जो कमियाँ, कमजोरियाँ और दुराग्रह भरे पड़े हैं उनका निष्कासन जितनी तेजी से होगा इष्ट की समीपता की उतनी ही स्पष्ट अनुभूति होगी। इस अवस्था में आँख-मिचौनी और धूप-छाँव तो चलती है जन्म जन्मान्तरों के बुरे अभ्यास, तृष्णा वासना और अहंतायें बार-बार गड्ढे में गिराने का प्रयत्न करती हैं पर अब तक साधक जान लेता है कि वह शरीर नहीं आत्मा है वह जितना लौकिक है पारलौकिक उससे लाख गुना अधिक है सो रत्ती भर स्वार्थ के लिए करोड़ मन परमार्थ की उपेक्षा कोई बुद्धिमानी नहीं अतएव वह अध्यात्म में ही अपना कल्याण देखकर पूरे मन से पीछे लौटता, भूल के लिए प्रायश्चित करता उसे सुधारता और फिर कभी उसकी पुनरावृत्ति न होने देने का संकल्प लेता है।

मनुष्य का सूत्र संचालक कोई और है धागे टूट जाने पर जिस तरह कठपुतली के नाच में आनन्द नहीं जाता पिता से बिछुड़ कर जिस तरह पुत्र श्री हीन हो जाता है। विद्युत घर से कनेक्शन कट जाने से जिस तरह बल्ब प्रकाश हीन हो जाता है। उसी तरह परमात्मा से बिछुड़ने के कारण ही आत्मा की दुर्गति हुई है।

चेतना को प्रोन्नत करने के लिए मनोविज्ञान का तीसरा आधार भी जप से ही पूरा होता है। जप काल में चेतना आत्म केन्द्रित होकर ही अपने परमार्थिक स्वरूप को पहचानती है। जैसे-तैसे यह पहचान घनीभूत होती है साधक अपने अतीत की स्मृतियों को कुरेदता और भूतकाल की अपनी अवस्था को विचारता है स्वभावतः यह लगता है कि हम परमात्मा से बिछुड़ गये अन्त में यह बिछुड़न ही दुःख का मूल कारण है इसलिए वह बारम्बार अपने हितैषी को इस बात के लिए पुकारता है हे माँ! अब मुझे उस अन्ध कूप में गिरने नहीं देना। इस अवस्था में जब शरीर निर्मल हुआ, मन निर्मल हुआ तो स्वभावतः मन विधेयात्मक विचारणा से, आदर्श कर्तृत्व से भरा हुआ होगा।

चौथी स्थिति आध्यात्म निष्ठा की परिपक्व अवस्था है। जप के द्वारा भी साधक अपने प्रकाश स्वरूप की “सविता” के तेज से संगति बैठाता है जैसे-जैसे यह स्थिति प्रगाढ़ होती है वैसे-वैसे साधक अपने को सविता के तेज के रूप में “अयमात्मा ब्रह्म” “तत्वमसि” “सोहअस्मि” “शिवोऽहं” “चिदानदोऽहं” की अनुभूति करता है। इसे ही समाधि, तुरीयावस्था अथवा इष्ट सिद्धि कह सकते हैं। आत्म विकास के इस परिपाक तक पहुँचने के लिए इस तरह जप से ही कार्य चल जाता है अन्य कठिन योगाभ्यासों में पड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती इसीलिए जप को यज्ञ और विज्ञान की संज्ञा दी गई। जप पूर्णता तक पहुँचाने में अकेला ही समर्थ है।

मन्त्र में सन्निहित सामर्थ्य का उपयोग जप द्वारा कर के सृष्टि के ऐसे रहस्यों का उद्घाटन भी किया जा सकता है जो अभी वैज्ञानिक बुद्धि में तो नहीं समाते पर सामान्य कल्पनाओं से परे हो सकते हैं। यदि ऐसा रहा होता तो उच्च शिक्षित वैज्ञानिक वर्ग भी इस तरह की आध्यात्मिक अनुभूतियों से स्वतः ही ओत-प्रोत हो गया होता, जबकि देखा यह गया है उच्च शिक्षित, मनीषी और विचारक कहे जाने वाले लोग भी साँसारिक मायाजाल में फँसे रहते हैं जबकि कम शिक्षित पर भावनाशील गायत्री उपासकों में भी उच्च आत्मिक शक्ति प्रादुर्भूत होते देखी जा सकती है।

इसका कारण है कि मन्त्र की सफलता का मूल आधार “अक्षर विज्ञान”। मन्त्रों में निस्सन्देह अपार शक्ति निहित है कि मन्त्र गुच्छकों में निहित वैज्ञानिकता को हमें भूलना चाहिए। विज्ञान का अर्थ है सिद्धान्त का गणितीय होना। इसे निश्चित नियम बद्धता भी कह सकते हैं। इसमें साधक की आन्तरिक निर्मलता के साथ-साथ प्रतिदिन नियत समय जप करना भी आवश्यक है। नियत समय पर जप के साथ जप का समस्वर होना भी आवश्यक है। कभी जल्दी, कभी धीरे-धीरे, कभी आलस्य में, कभी सजग होकर किये गये अस्त-व्यस्त जप से परिणाम तो निकलेंगे पर अस्पष्ट और उलझे हुए होंगे। माला से जप का कारण यही है कि एक मन्त्र जप से प्रत्येक दूसरे मन्त्र जप में नियत अन्तर रहे। कम अधिक नहीं। सामान्यतः एक घण्टे में 10 या 11 माला का जप होता है अतएव नियम बद्धता को घड़ी के साथ भी साधा जा सकता है पर मन्त्र जप का परिपूर्ण लाभ प्राप्त करने के लिए प्रतिदिन नियत समय नियत स्थान में नियमित रूप से जप करना आवश्यक होता है। परिस्थिति वश स्थान परिवर्तन करना पड़े तो भी जहाँ तक सम्भव हो समय की नियमितता का पालन तो करना ही चाहिए। उसके पीछे भी वैज्ञानिक सिद्धान्त है।

विधिपूर्वक जपे गये मन्त्र से उपासकों की अनुभूतियाँ उनका चिन्तन इतना विस्तृत होता है कि जिससे संसार की यथार्थता समझ में आ जाती है। भौतिक लाभ तो ऐसे हैं जैसे तीर्थयात्रा जाते समय मार्ग में पड़ने वाले किसी नगर से आवश्यक वस्तुयें भी खरीद ली जायें। मूल लाभ आत्मा की ईश्वरीय चेतना में परिणति ही है जिसे यह लाभ मिल जाता है, वह वस्तुतः जीवनमुक्त हो जाता है। उसका जीवन सचमुच धन्य हो जाता है। गायत्री मन्त्र की सफलता का यही मुख्य आधार है जिसे प्रयोग कर लाभान्वित होना हर व्यक्ति के लिए सम्भव है।


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