भावना प्राण- क्रिया कलेवर

October 1984

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भावना और क्रिया में से व्यक्ति या कृत्य की कैसे परख की जाय? यह विचारशीलों के लिए महत्वपूर्ण प्रश्न है। जिनकी बाहर की आँखें खुली हैं भीतर की बन्द हैं। वे मात्र क्रिया के अनुरूप कार्य और व्यक्ति का मूल्याँकन करते हैं, पर जो गहराई तक प्रवेश कर सकते हैं जिनके ज्ञान चक्षु खुले हैं वे भावनाओं के स्तर को परखते हैं और इसी आधार पर श्रेष्ठ निकृष्ट की परख करते हैं।

होना यह चाहिए कि भीतर और बाहर का स्तर एक हो। जो बाहर से पुण्यशील है सत्कर्म परायण है उसे उसी प्रकार का भावनाशील भी होना चाहिए। जो दुष्कर्म करता है उसकी भावना भी वैसी ही होनी चाहिए ताकि व्यक्ति और कार्य की यथार्थता परखने में किसी को कठिनाई न पड़े।

किन्तु समय विचित्र है इसमें भीतर और बाहर के स्तर में भारी अन्तर दिखाई पड़ता है। अस्तु साधारण समझ के लिए बड़ा कठिन पड़ता है कि किसे पुण्यात्मा माने किसे दुरात्मा। विशेषतया कठिनाई तब और भी अधिक बढ़ती है जब भीतर के दुरात्मा बाहर से पुण्यात्मा का कलेवर धारण करते हैं।

अनाथालय, गौशाला, विधवा आश्रम आदि पुण्य कर्मों का वो सकून बोर्ड लगाकर जब उनकी आड़ में धन का अपहरण और दुराचार करते हैं तब अजनबी व्यक्ति के लिए वास्तविकता का पता लगाना कठिन पड़ता है। जब भेद खुलता है तब बड़ा दुःख होता है। देश भक्ति के नारे लगाने वाले जब अपने असली रूप में प्रकट होते हैं तो भले लोगों पर भी विश्वास करना कठिन हो जाता है। विशेषतया सार्वजनिक जीवन में लोक सेवा का आवरण पहनने वाले जब कपट मुनि के रूप में छद्म ओढ़े दीखते हैं तब आश्चर्य होता है। धर्मोपदेशक, साधु का आवरण पहने हुए लोग उलटा व्यवहार करते दीखते हैं। तो क्रिया और भावना का अन्तर जाँचना आवश्यक हो जाता है। असमंजस होता है कि किस पर विश्वास किया जाये, किस पर नहीं।

ऐसे छद्म प्रसंगों में तो भावना की जाँच पड़ताल नितान्त आवश्यक हो जाती है। कई व्यक्ति भोलेपन में क्रिया को ही सब कुछ मान बैठते हैं और भावना का महत्व समझने की आवश्यकता नहीं समझते। विशेषतया यह भूल हार्दिक कर्मकाण्डों के सम्बन्ध में होती है। लोग पूजा पाठ के लोकाचार मात्र से यह समझ बैठते हैं कि भगत भक्ति का प्रयोजन पूरा हो गया। जप, पाठ, कीर्तन भर के बाह्य कृत्यों से यह सन्तोष कर लेते हैं कि देवता की प्रसन्नता अर्जित कर ली। मन्दिरों में देव दर्शन, नदी सरोवरों में स्नान, ब्रह्मभोज आदि के क्रिया-कृत्यों से अपनी धर्म श्रद्धा पूर्ण कर लेते हैं। यह परख नहीं करते कि हमारी भावनाएँ कितनी गहरी या उथली हैं।

वेदान्त इस दिशा में सही दिशा देते हुए हर साधक को उपयुक्त अनुशासन के अधीन अपने को रखने का अनुरोध करता है। कठोपनिषद् का निर्देश है- “दृश्यते त्वग्रयया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्म दर्शिभिः”- अर्थात् “जो सूक्ष्म सत्य देख सकते हैं, उनके एकाग्र मन अवश्य आत्मा का साक्षात्कार कर सकते हैं, ऐसे मन जिन्हें सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधा गया है।” लेकिन होता यह है कि ऐसे सूक्ष्मदर्शी एकाग्र मन वाले अनुशासित व्यक्ति सामान्य जन समुदाय में मिलते नहीं। हमारा परिकर धर्म भीरु, भावुक किन्तु विवेकहीन व्यक्तियों का एक समुदाय है, जो कर्मकाण्ड को ही सब कुछ मानते व उसमें अनाप-शनाप खर्च करते हैं। वे धर्म-अध्यात्म के इस तत्वदर्शन को नहीं समझ नहीं पाते कि वास्तविकता है क्या? उन्हें धर्म के ठेकेदार महन्त-कथा वाचक गण जो उपदेश देते हैं, उसमें भी क्रिया-कृत्यों की प्रधानता होती है। वे मुक्ति से लेकर स्वर्ग प्राप्ति, पितरों को दान से लेकर पर्व-त्यौहारों के माहात्म्य के लिए भी तरह-तरह के विधि विधान बताते हुए अपना उल्लू तो सीधा करते देखे जाते हैं। किन्तु धर्म के नाम पर शोषण करते हुए, उन्हें यह नहीं समझ में आता कि उनका यह कृत्य कितना घातक है।

जन साधारण तो तत्वदर्शन समझता नहीं, कर्मकाण्ड करके यही मानकर चलता है कि उसे जो आश्वासन दिया जा रहा है, पूरा हुआ। स्वर्ग के टिकट के नाम पर दिग्भ्रान्त एवं गरीब जनता को भावनाओं से खेलना आसान है, इसे धर्माचार्य भली-भाँति जानते हैं क्योंकि उन्हें ऐसा ही मूढ़ तब का धनिक समुदाय में भी मिलता है। ऐसे लोग जिनके पास पैसा है वे कोई भी खर्चीला धर्मकृत्य कर सकते हैं और सर्वसाधारण की तथा अपनी निज की आँखों में अपनी गणना पुण्यात्माओं में कर लेते हैं। भले ही वह पैसा अनीतिपूर्वक ही क्यों न कमाया हो। वह प्रदर्शन लोगों की दृष्टि में अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाकर उसका लाभ प्रकारान्तर से अन्य प्रकार उठाते हैं। इस प्रकार धर्म कृत्य भी एक प्रकार से व्यवसाय बन जाते हैं। जो लगाया है उसे ब्याज समेत कमा लेते हैं।

कई व्यक्ति सार्वजनिक संस्थाओं धार्मिक संस्थानों के सदस्य या पदाधिकारी इसलिए बनते हैं कि लोगों में अपनी प्रतिष्ठा लोक सेवियों की तरह होने लगे। इस ख्याति को वे अपना व्यवसाय बढ़ाने के लिए प्रयुक्त करते हैं। संस्थाओं में जितना समय लगाया था उसकी तुलना में प्रकट या परोक्ष रूप से- उचित या अनुचित रूप से अधिक लाभ उठा लेते हैं।

भेद खुलने से पूर्व तक सामान्य लोग भी भ्रम में रहते हैं। विचित्र बात यह है कि ऐसे धर्म कलेवर वाले स्वयं को भी भ्रम में रखे रहते हैं। विशेषतया धार्मिक कर्मकांडों के कर्त्ता यह समझते रहते हैं कि जनता के सामने तो भेद खुल सकता है, पर देवता इतने अनजान हैं कि उन्हें भावना में कोई सम्बन्ध नहीं। कर्मकाण्ड ही उनके लिए सब कुछ है।

इस असमंजस का स्पष्टीकरण गीताकार ने किया है- “देवान् भावता नेक” देवता अर्थात् पुण्य कर्म भावनाओं पर निर्भर हैं। कर्त्ता की भावनाओं का जैसा स्तर होगा उसी हिसाब से उसके पुण्य कर्म का फल होगा। यदि भावना रहित क्रिया होगी तो उसे प्रदर्शन मात्र कहा जायेगा और वह प्रदर्शन भी बहुत समय तक अपनी यथार्थता को छिपाये न रहेगा। वास्तविकता देर-सबेर में प्रकट होती है। तब वह पुण्य कर्म न करने से भी महंगी पड़ती है। छद्म का आवरण खुलने पर उसका उपहास और तिरस्कार होता है।

गीताकार ने इसीलिए भावना की महत्ता को स्पष्ट किया है। जिनके पास धन नहीं है वे कोई बड़ा आडम्बर नहीं कर सकते तो भी उनकी भावना उच्चस्तरीय रहने पर किया गया यह स्वल्प कृत्य भी विशाल आयोजनों से बढ़कर होता है। देशभक्ति के बड़े नारे लगाने और बड़े नेता बनने की अपेक्षा छोटे स्वयं सेवक के रूप में बिना ख्याति का श्रमदान करते रहने पर सम्मान भी प्रदान करता है और श्रेय भी।

भावना उच्चस्तरीय हो पुण्य कृत्य बनेंगे ही। यह हो सकता है कि धन पास में न होने से कोई बड़ा स्वरूप खड़ा न हो। नेता बनने का अवसर न मिले। धर्मकृत्य का कोई प्रदर्शन न बन पड़े, पर इससे क्या अपनी आत्मा सत्यता और भावनाशीलता के आधार पर प्रसन्न तथा बलिष्ठ रहेगी। यश न मिले तो श्रेय अवश्य मिलेगा। भावना प्राण है और क्रिया कलेवर। मात्र कलेवर हो और प्राण न हो तो उसका कोई महत्व नहीं रह जाता, यह सुनिश्चित समझा जाना चाहिए।


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