आत्म बोध एक दिव्य वरदान

November 1983

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आत्म विस्मृति से जबरन स्वयं को जान लेना सबसे बड़ी उपलब्धि है। साधारणतया लोग अपना अस्तित्व शरीर और मन से बने कार्य कलेवर तक ही सीमित मानते हैं। वासना और तृष्णा में ही उलझा चित इससे ऊपर कुछ सोच भी नहीं पाता। सारे क्रिया कलाप मात्र पेट प्रजनन के लिए होते हैं इसका एकमात्र कारण है अपनी गरिमा को, देवत्व को भुला देना। ईश्वर के युवराज के रूप में अवतरित मनुष्य मार्ग पर चलते हुए भटक जाता है। अज्ञानान्धकार में भटकते-भटकते यह जीवन तो बीत जाता है और अन्ततः पछताने के अतिरिक्त कुछ और हाथ नहीं लगता।

इसीलिये आत्म तत्व की गहराई को समझना सबसे बड़ी उपलब्धि माना गया है। जिसने स्वयं को जानकार जीवन लक्ष्य की पूर्ति की आवश्यकता को समझ लिया, वह महामानव बनता है और देव समुदाय में सम्मिलित होकर अपना ही नहीं अन्य असंख्यों का कल्याण भी करता है। अपने में ओत-प्रोत ब्रह्मसत्ता को जागृत करना ओर स्वयं में देवत्व तथा ईश्वरत्व का उदय करना ही आत्मबोध ही परिणित है और यह आत्मबोध ही ज्ञान साधना का चरम लक्ष्य है। जिसने अपने को जान लिया, उसने संसार को इच्छानुकूल बनाने और पदार्थों तथा प्राणियों को उल्लास प्रदान कर सकने का मार्ग हस्तगत कर लिया।

दर्पण में अपनी ही छाया दिखाई पड़ती है, जैसे भी कुछ भले बुरे हम है, उसी के अनुरूप यह विशालकाय दर्पण-संसार हमें दृष्टिगोचर होता है। अज्ञानवश हम बाह्य परिस्थितियों अथवा बाहरी व्यक्तियों को अपने सुख दुःख का उत्थान पतन का कारण मानते हैं पर वास्तविकता इस मान्यता से सर्वथा भिन्न है। जिस प्रकार समुद्र की अगणित लहरों पर एक ही चन्द्रमा के अगणित प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ते हैं, उसी प्रकार संसार के अगणित प्राणियों एवं पदार्थों पर अपनी ही मान्यताएं और क्रियाएं अपनी ही भावनाएं और प्रवृत्तियों थिरकती दिखाई पड़ती है।

दृष्टिकोण का दोष दूषण-जगत में प्रतिबिंबित प्रतिध्वनित होता है। इसलिए तत्वदर्शी सदा से यह कहते रहे कि कि बाह्य परिस्थितियों में यदि सुधार करना हो तो उसका प्राथमिक सुधार परिष्कार से आरम्भ करना चाहिए।

आत्म परिष्कार का प्रयास आरम्भ करने से पूर्व अपना स्वरूप समझना होता है और किस प्रकार अपना आपा बाह्य जगत पर प्रतिबिम्बित होता है, इस तथ्य को हृदयंगम करने की आवश्यकता पड़ती है। यही अध्यात्म विज्ञान का समस्त आवरण इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए विनिर्मित हुआ है कि मनुष्य अपने को जाने और उस तथ्य के आधार पर अपने चिन्तन एवं क्रिया-कलाप का नये सिरे से निर्धारण करें। आत्मदेव की साधना इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर की जाती है।

इसी तथ्य को तत्व-दर्शियों ने अनेक शास्त्रों में अनेक प्रकार से लिखा कहा है। जिस प्रकार अक्षर ज्ञान, अ, आ, इ, ई से आरम्भ होता है उसी प्रकार आत्मोत्कर्ष, आत्म-साक्षात्कार और आत्म-कल्याण की ब्रह्म विद्या का, साधना विज्ञान का का आरम्भ भी आत्मबोध से होता है। अपने आपको जानने के लिए गम्भीर चिन्तन, मनन अध्ययन और निदिध्यासन करने के लिए अग्रसर होने का निश्चय ही आत्म साधना का उपासना, तपश्चर्या और योग साधना का प्रथम द्वार सोपान है। शास्त्रकारों का इस संदर्भ में निर्देश परामर्श इस प्रकार है-

स्वमेवात्मनाऽऽत्मानमानन्दं पदाप्स्यसि। -महोपनिषद् 6।78

अर्थात् समस्त अध्यात्म शास्त्रों का सार इतना भर है- कि विषयों से मुक्त चित्त ही आत्मा है। सो स्वच्छ अंतःकरण द्वारा आये को ही देखो।

आत्मनि रक्षते सर्व रक्षितं भवित। आत्मायतौ वृद्धि विनाशौ॥ -चाणक्य सूत्र 1 82, 83

अर्थात् - अपनी रक्षा करने से सबकी रक्षा होती है। वृद्धि या विनाश करना अपने हाथ की बात है।

अपने आपको सत्-चित् आनन्द परमात्मा का स्वरूप माना जाना चाहिए और काय कलेवर के साथ जुड़े हुए इन्द्रिय समूह को- मन, बुद्धि, चित्त अहंकार के अन्तःकरण चतुष्टय को अपना वाहन, उपकरण, सेवक स्तर का प्रयोग साधन मात्र मानना चाहिए। इस मान्यता की जितनी परिपक्वता होती है, आत्म ओर अनात्म भेद जितनी गहराई तक अन्तःकरण में निष्ठा बनकर प्रतिष्ठित होता है उतने ही अंशों में आत्म-बोध प्राप्त हुआ समझ जाना चाहिए।

मनुष्य प्रायः भ्रमग्रस्त स्थिति में ही रहता है। जीवन अपने को शरीर मात्र अनुभव करता है और उसी के सुख-साधन जुटाने में जीवन सम्पदा को नियोजित किये रहता है। ऐसे ज्ञानवानों को भी अज्ञानी ही कहना चाहिए। आत्मबोध का उदय आत्म तत्व की स्पष्ट एवं सघन मान्यता से ही आरम्भ होता है और वह मान्यता इतनी प्रबल होती है कि आत्मज्ञानी अपने चिन्तन एवं क्रिया-कलापों को आत्मानुगामी, परमार्थ परायण बनाये बिना रह नहीं सकता। ऐसे ही यथार्थ आत्मज्ञान का स्वरूप समझाते हुए ईशोपनिषद् में कहा गया है। “ज्ञान ओर अज्ञान के अवलम्बन के परिणाम अत्यन्त भिन्न है। यह अनुभव हमने उनसे सुना है जिन्होंने तत्व गहन अवगाहन किया है।”

त्वं राजा सर्वलोकस्य पित्रो रिपो रिपुः। यत्न्याःपतिः पिता सूनो कस्तवाँ भूप वदाम्यहम्॥36

त्वं किमेतछिरः कि तु शिरस्तव तोदरम्। किमु पादादिक त्वं तवैर्तात्क महीपते॥ 37

समस्तावयेभस्त्वं पृथम्भूतो व्यवस्थितः। कोऽहमित्यत्र निपुणं भुत्वा चिन्तय पार्थिव॥ तच्छुत्वोच राजा तमवधूत द्विजं हरिम्॥38

अर्थात्—तू इस विश्व वसुधा का शासक है। पिता का पुत्र है। शत्रु का शत्रु है। पत्नी के लिए पति है। पुत्र के लिए पिता है। बता तुझे मैं क्या कहकर पुकारूं ?

क्या तू शिर है- नहीं शिर तो तेरा है। क्या तू पेट है- नहीं पेट तो तेरा है। क्या तू पैर है- नहीं, पैर तो तेरा है? वह समस्त अंग तेरे उपकरण मात्र है। तू इससे कुछ पृथक ही है। हे मिट्टी के पुतले! मैं कौन हूँ, इस पर अत्यन्त गम्भीरता और सावधानी के साथ विचार कर।

नाहं पदार्थस्य न में पदार्थ इति भावते। अन्तःशीतलता बुद्धृया कुर्वतो लीलया क्रियाम्॥ -महोपनिषद् 6।43

अर्थात् - न मैं इन पदार्थों का हूँ और न ये मेरे हैं अन्त-करण में शान्ति और प्रफुल्लता प्राप्त हो, हे ईश्वर मेरी यही प्रार्थना है।

आत्मा का विकसित, परिष्कृत रूप ही परमात्मा है। जीव की सुविकसित स्थिति का नाम ही ब्रह्मा है। अज्ञान जन्य अन्धकार से निवृत्त हो जाने का नाम ही आत्म साक्षात्कार अथवा ईश्वर दर्शन है। यह प्रक्रिया अपने से बाहर संसार में अन्यत्र कहीं सम्भव नहीं है। तीर्थ, गुरु सत्संग आदि से मार्ग दर्शन एवं प्रोत्साहन भर मिलता है। अभीष्ट वस्तु की उपलब्धि तो अपने भीतर अंतःकरण में ही होती है। तप करने से लेकर ईश्वर दर्शन करने तक का प्रयोजन पूर्ण करने से लेकर ईश्वर दर्शन करने तक का प्रयोजन पूर्ण करने के लिए हृदय गुफा रूपी तीर्थ को, तपोवन को ही एक मात्र उपयुक्त स्थान माना गया है।

हृदिस्था देवताः सवर्सा हृदि प्राणाः प्रतिष्ठिताः हृदि प्राणश्य ज्योतिश्चय त्रिवृत्सूत्रं च तद्विदुः। हृदि चैतन्येतिष्ठति॥ —ब्रह्मोपनिषद् 4-5

अर्थात्- हृदय में समस्त देवता निवास करते हैं हृदय में ही प्राण और प्रकाश है। परमात्मा के इन तीन आधारों की अभिव्यक्ति के लिए यज्ञ सूत्र यज्ञोपवीत पहना जाता है।

हृदय में परब्रह्म का निवास है। यह तथ्य यज्ञोपवीत प्रकट करता है। जो इस तथ्य को जानता है वही देवज्ञ ब्राह्मण है।”

नवद्वारे पुरे देहि हंसो लेलायत बहिः। वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य चं॥18 -श्वेताश्वेतर

अर्थात् - सम्पूर्ण स्थावर-जंगम विश्व का नियामक परमेश्वर नौ द्वार वाले देह रूप पुर में स्थित में निवास करता और बाह्य संसार में भी वही क्रीड़ा कर रहा है।

तस्मादिदं गुहेव हृदयम्। -शतपथ 11।2।2615

अर्थात् - यह हृदय ही गुफा है।

अणोरणीयान् महतो महीया- नात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्। तमक्रतुः पश्यति वीताशोको, धातुः प्रसादान्महिमा महात्मनः। -(कठ 2120)

अर्थात्- छोटे से भी वह छोटा है बड़े से भी बड़ा है, इस जीव की हृदय रूपी गुफा में भी वह विराजमान है। उस परमात्मा की महिमा को उसी परमात्मा की कृपा से कामनाशून्य वीतशोक के पुरुष देखते हैं।

वस्तुतः इस आत्म गुहा में आश्रय वाले उस परम पुरुष-विश्वरूप-हिरण्यमय तथा बुद्धिमान है और वह बुद्धि का अतिक्रमण करके ही स्थित रहा है और वह बुद्धि का अतिक्रमण करके ही स्थित रहा करता है। वह शास्त्र वचन हर क्षण एक ही सत्य की प्रतिष्ठापन करता है। वह उद्घोष करता है कि अपने को परमात्मा का अविनाशी अंश मानकर जीवन नीति निर्धारण करना ही जीवन मुक्ति का एकमात्र साधन है। इसके विपरीत जो शरीराभ्यास में क्रीड़ा-कल्लोल में निमग्न रहकर अपने आपको देहधारी मात्र मानत हैं और भौतिक सुखों के लिए आत्म-कल्याण की अभीष्ट और भौतिक सुखों के लिए आत्म-कल्याण की अभीष्ट गतिविधियाँ अपनाने से इन्कार करते हैं, उन्हें आत्महंता, माया मोहग्रस्त लोगों की भर्त्सना ही की गई है एवं सत्पथ अपनाने वालों की प्रशस्ति कर उन्हीं का अनुगमन करने का निर्देश दिया गया है।

यह तथ्य है कि आत्मज्ञान प्राप्त मनुष्य का घर ही तपोवन बन जाता है। अन्तर की महानता घर-परिवार से लेकर समीपवर्ती कार्य व्यवसाय में भी आनन्द, उल्लास का, उत्कृष्टता का वातावरण उत्पन्न करती है और उन परिस्थितियों में रहता हुआ मनुष्य श्रेष्ठ बनता है और अपने आपको सब प्रकार का धन्य हुआ अनुभव करता है।

वसिष्ठोस्मि वरिष्ठोऽस्मि वसे वासगृहेष्वपि। वसिष्ठात्वाच्च वासाच्च वसिष्ठ इति विद्धिमाम्॥ -महाभारत

अर्थात्- “घर में रहते हुए भी मैं वशिष्ठ हूँ। मैं सबमें बसा हुआ हूँ। सब मुझमें बसते हैं। इससे मैं वसिष्ठ हूँ। “

यह विशिष्टता--मानवी जीवन की श्रेष्ठता ही मानव को वशिष्ठ का ऋषि पद देती है एवं उसे गौरवान्वित करती है। मनुष्य की चरमोपलब्धि यही है- आत्मज्ञान। जिसे वह प्राप्त हो गया, उसे ऋषि स्तर पर पहुँचा माना जाना चाहिए।


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