एक थे सेठ। वे गुरु की तलाश में थे। पर चाहते ऐसे थे, जो पहुँचा हुआ हो ज्ञानी हो। बहुतों को जाँचा परखा पर कोई खरा न निकला। तलाश का अन्त न हुआ।
सेठानी ने कहा-“यह काम मेरे ऊपर छोड़ दे। जो मिला करे उसे मेरे पास भेज दिया करें। सेठ जी सहमत हो गये। एक झंझट टला।”
सेठानी ने पिंजड़े में एक कौआ पाला। जो भी महात्मा आया, उससे यही कहतीं देखिये मेरा पाला कबूतर अच्छा है न ?
सन्त लोग आते। कबूतर कहाँ है ? कैसा है कहते। जब सेठानी अपनी बात पर अड़ी ही रहतीं, तो वे क्रोध में भरकर उल्टी सीधी बातें कहते और वापस चले जाते।
यही क्रम चलता रहा। बहुतेरे आये और सभी चले गये। कई खरा उतरा नहीं। जो आवेशग्रस्त हो चले, वे सन्त कैसे ? जो सन्त नहीं वह गुरु योग्य कहाँ ?
एक दिन एक वयोवृद्ध सन्त आये। सत्कार करने के उपरान्त सेठानी ने वही कौआ कबूतर का सिलसिला चला दिया।
यह सन्त आवेश में नहीं आये। कौए और कबूतर का अन्तर समझाते रहे। न समझ पाने पर इतना ही कहकर चले गये बेटे हठ मत करना। तथ्य का पता लगाना। कोई सर्वज्ञ नहीं। हमसे आपसे भूल हो सकती है। सत्य को समझने के लिए मन के द्वार खुले रखने चाहिए। वे हँसते हुये चल दिये। क्रोध था न आवेश, न मानापमान का भाव।
सेठानी ने सन्त को द्वार से वापस लौटा दिया। नमन किया और कहा “जैसा चाहती थी, वैसा आपमें पाया। कृपया हमारे परिवार के गुरु का उत्तरदायित्व ग्रहण करें। घर के सभी लोग आपके शिष्य बन गये।