अजस्र अनुदानों से भरी-पूरी परब्रह्म की सत्ता

November 1983

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परब्रह्म पर भाण्डागार असीम है। वहाँ कभी-किसी भी वस्तु की नहीं। वस्तुतः वह अपने आपमें पूर्ण है। अपूर्ण को पूर्ण कर सकने वाली समर्थ सत्ता ही अपने चारों और विद्यमान है। प्रश्न केवल उसके साथ संपर्क साधने और आदान प्रदान का द्वार खोलने वाली घनिष्ठता को बढ़ाने का है। वह प्रवास प्रक्रिया जैसे-जैसे लघु को महान बनने-तद्रूप विकसित होने का अवसर मिल जाता है।

परब्रह्म को एक प्रकार का पावन ग्रिडस्टेशन कहा जा सकता है जिससे अनेकों बिजली घर जुड़े होते हैं। यदि पन्द्रह वॉट की क्षमता की अपनी काया को सामर्थ्यवान बनाकर सौ वॉट की विद्युत प्राप्ति योग्य बनाया जा सके तो उस विद्युत भण्डार की आरे से कमी नहीं होने वाली। विश्व चेतना रूपी विराट् पुरुष के साथ संपर्क जोड़कर सामान्य स्तर के साधक भी असामान्य स्तर प्राप्त करते देखे जा सकता है।

दैवी शक्तियों के किसी व्यक्ति विशेष पर अनुग्रहीत होने पर अहैतुकी कृपा करने की मान्यता व्यर्थ है। जहाँ सबके लिए समान रूप से द्वार खुला है। पक्षपात जैसा प्रचलन यहाँ है ही नहीं। अपने पराये का भेदभाव यदि दैवी शक्तियाँ भी करने लगे तो फिर पशुता और असुरता का लाँछन भी उन्हीं के कन्धों पर लदेगा। तब वे वैसी न रहेगी जैसी कि होनी चाहिए और है।

सूर्य के लिए भी सभी समान हैं चन्द्रमा की शीतल किरणों, प्राणवायु, शीत-ग्रीष्म के सम्बन्ध में भी यही बात है। वे अपनी ओर से सभी को समान रूप से प्रभावित करती है, सर्वत्र समान रूप से अपना असर डालती हैं। वह व्यक्ति विशेष पर निर्भर है कि उनके साथ सघनता स्थापित करने और विलग रहने का कौन कितना प्रयत्न करें और उनसे परिणति का कैसा आधार खड़ा करें?

परब्रह्म और दैवी शक्तियों में मूलतः एकता रहते हुए भी उनके मध्य अन्तर उतना ही है जितना कि जलाशय और उनके ऊपर थिरकने वाली जल तरंगों का। अदृश्य अनुशासन की विधि-व्यवस्था रूप में विद्यमान अदृश्य अनुशासन की विधि-व्यवस्था रूप में विद्यमान सत्ता की वे अभिव्यक्ति मात्र है। व्यक्ति एक ही है पर उसके पाँव, हाथ, उंगलियां अपना-अपना काम अलग-अलग रूप में करती है। यही बात आँख, कान, जिह्वा आदि के संबंध में भी है। सभी है तो कायसत्ता के अविच्छिन्न अंग ही। फिर उनके जिम्मे जो-जो काम सौंपे गए हैं, जिस स्तर की उनकी संरचना हुई है, उसी परिधि में उनके क्रिया-कलाप भी चलते हैं। उनकी कार्य पद्धतियों में अन्तर भी रहता है और स्वरूप में भी, फिर भी तत्वतः इनकी कोई पृथक सत्ता है नहीं। मूलभूत है। दैवीय शक्तियों के- देवताओं के- कृपा बरसाने वाली अदृश्य सत्ताओं के संबंध में भी यही बात है। इस देव समुदाय में वे सभी अदृश्य चेतन घटक आ जाते हैं जिनकी प्रकृति उत्कृष्ट उदारता के साथ सम्बद्ध है।

इस चेतन समुदाय में पितर वर्ग के अदृश्य सहायकों को भी सम्मिलित किया जाता है, जो मनुष्य से आगे बढ़कर देवत्व की भूमिका में प्रवेश कर रहे हैं किन्तु अभी उस स्तर में पूर्ण परिपक्व नहीं हुए हैं। ऐसी आत्माएं मनुष्यों के साथ व्यक्तिगत संपर्क साधने और कल्याणकारी सहायता करने में भी रुचि लेती है जबकि पूर्ण देवत्व प्राप्त कर चुकने वाली शक्तियाँ व्यक्तियों के साथ मोह न रखकर व्यापक प्रसंगों पर ही ध्यान देती है और जो करना है वह हर सत्पात्र को समान रूप से उपलब्ध हो इतना भी ध्यान रखती है। महापुरुष स्तर के व्यक्ति परब्रह्म की प्रखरता व पवित्रता को अपने जीवन में उतार कर अपनी क्षमता असाधारण रूप से बढ़ा ले हैं लेकिन इनमें भी ऊंची भूमिका ऋषिकल्प योगीजनों की है। वे अपने सुपर चेतन को परिष्कृत विकसित करते-करते उच्चतम स्तर तक पहुँचा देते हैं। ताकि परब्रह्म का तेज उनमें अधिकाधिक मात्रा में अवतरित हो एवं वे उस महान स्तर की देवोपम भूमिका निभा सकें। ऐसे देव पुरुषों को भूसुर कहना तनिक भी अत्युक्ति पूर्ण नहीं होगा।

परब्रह्म की इन दैवी शक्तियों को इस प्रकार अनेकानेक वर्गों में बाँटा जा सकता है एवं इनके उदाहरण की पुराण आख्यानों में पाए जाने सकते हैं। विक्रमादित्य के साथ पाँच ऐसे ‘वीरों’ का संबंध था जो समय-समय पर उन्हें इच्छित सहायता करते थे। वे समय-समय पर दूरगामी हितों को ध्यान में रखते हुए मार्गदर्शन एवं सहयोग भी दिया करते थे। अलादीन के चिराग की कथा भले ही कल्पना लोक ही हो, पर उसमें चिराग के माध्यम से सशक्त अदृश्य आत्माओं के सहयोग का तथ्य ही सन्निहित है।

सुकरात ‘डेमन’ प्रख्यात था। वह काई अदृश्य आत्मा थी जो सत्त सुकरात के साथ बनी रहती थी अथवा उनके बुलाते ही आ उपस्थित होती थी। मात्र दर्शन हेतु नहीं अपितु सहयोग करने के लिए। सुकरात अपनी हर समस्या व नये चिन्तन के लिए महत्वपूर्ण विषयों पर उससे परामर्श करते तथा तदनुसार ही कार्य करते थे। अन्यायों को तो उसका दर्शन नहीं होता था पर सुकरात उसके साथ वैसा ही संपर्क परामर्श करते थे, मानों कोई जीवित व्यक्ति सामने बैठा हो।

दैवी सहायता के अनुदान प्रत्यक्ष परोक्ष रूप से सुपात्रों को पुण्य-प्रयोजन के निमित्त प्राप्त होने के कई उदाहरण मिलते हैं। विश्वमित्र यज्ञ रक्षा हेतु राम व लक्ष्मण को दशरथ से आग्रहपूर्वक ले गए थे और वहाँ उन दोनों को बला-अतिबला विद्या सिखाई थी। बला -सावित्री’ को एवं अतिबला ‘गायत्री’ को कहते हैं। सावित्री अर्थात्। भौतिकी। गायत्री अर्थात् आत्मिकी। इन्हीं विभूतियों के कारण वे लंका विजय और रामराज्य की संस्थापना के भिन्न प्रकृति के किन्तु परस्पर पूरक कार्य कर सकने में समर्थ हुए थे। विश्वामित्र ही राम को सिया स्वयंवर में अपनी ओर से ले पहुँचे थे एवं ऋषि रक्त सिंचित बीज से विकसित जनक सुता से अवतार राम विवाह के स्वयं सूत्रधार बने थे।

ऐसे ही सहयोग अन्य महामानवों ऋषिकल्प दिव्यात्माओं ने अपने साथ जुड़े हुए सत्पात्रों को प्रदान किये है एवं अपूर्णता को पूर्णता से बदलने वाला असाधारण सहकार किया, भावभरा अनुदान दिया है। समर्थ गुरु रामदास और शिवाजी के मध्यवर्ती आदान प्रदान की कथा प्रख्यात है। समर्थ ने ही अपने सत्पात्र को खोजा। उसे उद्बोधन देकर आदर्शवादी महानता अपनाने और तद्नुरूप जीवन जीने के लिए प्रोत्साहित किया। बात आगे बढ़ी तो अनुदान देने से पूर्व यह भी जाँचा कि पात्र-कुपात्र का चयन करने में कहीं कोई भूल तो नहीं हो रही है।

ठीक इसी से मिलते-जुलते आदान-प्रदान चाणक्य और चन्द्रगुप्त के, रामकृष्ण परमहंस और विवेकानन्द के, विरजानन्द और दयानन्द के तथा प्राणनाथ और छत्रसाल के मध्य भी चले है। यदि इन युग्मों को पृथक करके देखा जाय तो दोनों ही अपूर्ण रह जाते है॥ अंधे और लंगड़े के बीच परस्पर सहन सहयोग जुड़ा तो दोनों ही नदी पार करने में सफल हुए। पृथक-पृथक रहते, सहयोग न साधते हुए तो सम्भवतः दोनों में से किसी को वह श्रेय न मिलता तो एकात्मता के सहारे बन पड़ा।

मीरा का विष का प्याला पीना ओर अदृश्य सत्ता द्वारा उस हलाहल को निगल जाना एक रहस्य नहीं, परब्रह्म की सत्ता व उनकी सहायता का बोधक प्रसंग है। दुर्वासा के शाप से त्रस्त राजा अम्बरीष की सहायता हेतु स्वयं सुदर्शन चक्र आया। समुद्र से टिटहरी के अण्डे दिलाने में सहायता हेतु भगवान सत्ता की अगस्त्य मुनि के रूप में प्रकट हुई। कोई अदृश्य बाजीगर ही था जिसने हनुमान को समुद्र लाँघने हेतु अपरिमित सामर्थ्य देकर चमत्कार दर्शाया। ये सारे प्रसंग चाहे वे ऊंची स्थिति में पहुँचे साधारण मनुष्य हो अथवा तप पूत ऋषिगण, अदृश्य सहायक हो अथवा पितरगण, एक ही तथ्य सत्यापित करते हैं कि परब्रह्म असीम सामर्थ्यों का समुच्चय है। सुपात्र को दैवी अनुदान किसी भी माध्यम से मिलते रह सकते हैं उसके लिये याचना नहीं अपितु प्रमाणित सिद्ध करनी होगी।


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