सफल साधना की पृष्ठभूमि और आधार

November 1983

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प्राचीनकाल में तीर्थों की स्थापना, ऐतिहासिक कारणों तथा प्रकृति विशिष्टताओं के आधार पर ही नहीं हुई थी वरन् उन स्थानों पर बने ऋषि आश्रमों की गतिविधियों ने वहाँ की गरिमा तथा मान्यता बढ़ाई थी। ऋषि आश्रमों में बालकों के लिए गुरुकुल, व्यस्तजनों के लिए तीर्थसेवन तथा परमार्थियों के लिए आरण्यकों की त्रिविध व्यवस्था रहती थी। तीनों की स्तर के लोग वहाँ साधना करते, प्रशिक्षण पाते तथा प्रेरणाप्रद वातावरण का असाधारण लाभ लेते थे। ऐसे कारणों से ही तीर्थों की स्थापना हुई थी। उन कसौटियों पर कसने के उपरान्त ही कल्प साधना जैसे परिष्कार-उपचार की बात सोचनी चाहिए।

ऐसे वातावरण में निवास करने का जिन साधकों को सुयोग मिले, उन्हें इस सौभाग्य का समुचित लाभ उठाना चाहिए।इस अवसर को ऐसे ही असमंजस में नहीं गँवा देना चाहिए। असमंजस यह कि मन कहीं और शरीर कहीं रहे। जो बताया या कराया जा रहा है उसे उथले रूप में लिया गया और उपेक्षापूर्वक बेगार भुगतने के लिए, लकीर पीटने के लिए जैसे-तैसे, आधे-अधूरे, काने-कुबड़े रूप में निपटाया जाता रहे। ऐसी स्थिति उन लोगों की होती है। जिनका मन घर पर पड़ा रहता है और शरीर जेल के कैदी की तरह लोक-लाज में बँधकर किसी प्रकार समय काटता रहता है। ऐसी दशा में वह लाभ मिलना सम्भव ही नहीं जिसके लिए यह व्यवस्था बनाई गई हैं और सम्मिलित होने के लिए आया गया है।

साधना शारीरिक श्रम को नहीं कहते। श्रम करते रहने में श्रमिक बेमन से भी समय काटते और पैसा कमाते देखे गए हैं, पर विचारणा और भावना के क्षेत्र में वैसा बन सकना सम्भव नहीं है। कोई विद्यार्थी किताब पढ़ता-सुनता तो रहे पर समझे कुछ नहीं तो उसका उत्तीर्ण होना कठिन है। भावना क्षेत्र तो उससे भी ऊँचा है। उसमें क्रिया, विचारणा और भावना तीनों का समुचित समावेश होना चाहिए। तत्परता ही नहीं तन्मयता भी बढ़ती जानी चाहिए।

इस संदर्भ में यह मान्यता विकसित करनी चाहिए कि यह सुयोग दैवी अनुग्रह से ही मिला है। इस सौभाग्य का लाभ पूरी तरह उठाया जाय। इन दिनों न मन बिखरने दिया जाय न शरीर को आलस्य-प्रमाद में समय गँवाने दिया जाय। घर का चलता रहे और शरीर यहाँ घिसटता रहे तो इस उपहासास्पद स्थिति में दोनों ही क्षेत्रों की हानि होगी। घर की हानि इसलिए कि शान्ति-कुँज आकर घर का काम छोड़ा गया। यदि घर ही रहते तो घर का काम किया जा सकता था। चले आने पर तो वह भी नहीं हो सकता। यही बात युग तीर्थ में सम्पन्न की जा रही कल्प साधना के सम्बन्ध में भी। यदि मन को भी यहीं रोक रखा गया होता तो श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा का भी समावेश रहता है और क्रिया के साथ विचारणा भावना का समुचित संयोग रहने से दोनों तार मिलने पर बिजली की धारा बहती, दो पहिए की गाड़ी आगे चलती है।

होना यह चाहिए कि जितने दिनों साधना के लिए स्थान विशेष में रहा जाय, उतने दिनों अपने आपको गृह निवृत्त, एकान्त सेवी, योगी-तपस्वी की मनोभूमि बनाकर रहा जाय। अपने कमरे को एक गुफा माना जाय और जिस प्रकार तपसी अपनी गुफा में एकान्त सेवन करते हैं लगभग उसी स्तर की मनोदशा अपनाकर रहा जाय। इन दिनों साँसारिक समस्याएँ सुलझाने, लोगों के साथ उलझने, लिपटने से दूर रहकर आत्म-समीक्षा में निरत रहा जाय। संचित कुसंस्कारों से छूटने और उज्ज्वल भविष्य का ढाँचा खड़ा करने की योजना बनाने में संलग्न रहा जाय। इसके लिए चिन्तन, स्वभाव, समय निर्धारण, कार्यक्रम, व्यवहार में जो परिवर्तन अभीष्ट है उसका शुभारंभ इन्हीं दिनों किया गया जाना चाहिए और इस अवसर को अभीष्ट प्रयोजन के लिए सर्वोत्तम मुहूर्त मानना चाहिए।

क्षुद्र और महान व्यक्तियों के बीच जो महत्वपूर्ण अन्तर पाया जाता है उसमें ढर्रा ही प्रमुख अवरोध और वही प्रधान संयोग होता है। अभ्यस्त ढर्रा कुछ ऐसा विलक्षण होता हे कि समूची जीवनचर्या उसी धुरी पर घूमती रहती है। महान परिवर्तनों के सन्धिकाल में मनस्वी लोग अपना ढर्रा ही बदलते हैं। पुरानी आदतें तथा रुचि भिन्नताएँ उसे स्वीकारने में जो आना-कानी करती हैं। उनसे कुछ दिन संकल्प और साहस के सहारे ही जूझना पड़ता है। इसके बाद तो सब कुछ इतना सरल स्वाभाविक हो जाता है कि अपनाई हुई रीति-नीति दिशाधारा ऐसी लगती है मानो सदा से इसी ढर्रे के बीच गुजारा होता रहा है। जेल के कैदी, अस्पताल के मरीज, खानाबदोश, शिकारी, आवारागर्दी और जहाँ-तहाँ छिपते फिरने वाले चोर डकैत तक जब अभ्यस्त ढर्रे में दिन काटते हुए किसी प्रकार की कठिनाई अनुभव नहीं करते तो फिर कोई कारण नहीं कि उत्कृष्ट आदर्शवादिता के अनुरूप उज्ज्वल भविष्य की जो प्रगतिशील रूपरेखा बनाई जा रही है, वह कुछ ही दिन में सुगम एवं व्यावहारिक न बन जाय। भावी जीवनचर्या का निरूपण इन्हीं दिनों होना चाहिए। जब भी अवकाश मिले तब यही ताना-बाना बुनते रहना चाहिए। अपने आपको सर्व-साधारण की, नर पशुओं की श्रेणी से ऊँचा उठाकर असाधारण, जागृत एवं महान प्रयोजन के लिए अवतरित हुआ व्यक्तित्व अनुभव करना चाहिए। सामान्य को असामान्य, क्षुद्र को महान बनाने में जिस सूझ-बूझ और साहसिकता के साथ निर्धारण करना और ढर्रा बदलना पड़ता है। उसके लिए ठीक यही समय है जो साधना की इस अवधि में ईश्वर की असीम कृपा से हस्तगत हो रहा है।

निर्धारित साधनाओं में से प्रत्येक में पूरा मनोयोग लगाना चाहिए और निर्धारित विधि विधान को भली-भाँति समझकर उसे यथावत् करने का प्रयत्न करना चाहिए। जितनी रुचि जागेगी उतना ही मन लगेगा और उतना ही आनन्द तथा प्रतिफल उपलब्ध होगा। प्रमुख बात है- अनुशासन का परिपालन, समय का निर्धारण तथा हर घड़ी व्यस्त रहने का उपक्रम। आलस्य-प्रमाद को हटा दिया जाय। जो भी काम सामने हो उसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर भली प्रकार सम्पन्न करने का प्रयत्न किया जाय।

मूल प्रश्न है साधना अवधि पूरी करने के उपरान्त घर पहुँचने पर यही कैसे सिद्ध किया जाय कि ‘कल्प परिवर्तन’ सार्थक हुआ या व्यंग-विनोद का निमित्त कारण बना। शरीर संरचना में अन्तर आना कठिन है किन्तु गुण, कर्म, स्वभाव में भाव संरचना में महत्वपूर्ण हेर-फेर करना निश्चित रूप से सम्भव है। साधकों को यही करना चाहिए। इस संदर्भ में कुछ प्रसंग ऐसे हैं जिनमें यदि थोड़ा-सा परिवर्तन स्थायी रूप से करने का निश्चय कर लिया जाय तो उसका आश्चर्यजनक सत्परिणाम सामने हाथों-हाथ उपलब्ध होने लगेगा।

व्यक्ति, परिवार और समाजगत जीवन का पुनः निर्धारण इन तीनों क्षेत्रों के लिए निर्धारित पंचशीलों के आधार पर करने का प्रयत्न किया जाय। तीनों के निर्धारित सूत्र एवं अनुशासन ऐसे हैं जिन पर दिन में कम से कम एक बार तो बैठकर विचार कर ही लिया जाया करे कि इनमें से किन्हें कितनी मात्रा में किस प्रकार कार्यान्वित किया जाना सम्भव है। सब न सही, पूरी तरह न सही, उनमें से जितने बन पड़ें जितनी मात्रा में सम्भव हो सके उतना कार्यान्वित करने में तत्परता बरती जाय। संकल्प इतना सजग रखा जाय कि पुरानी आदतों के दबाव में बार-बार फिसलन उत्पन्न न करे। श्रेष्ठ निश्चयों को निबाहने में सत्संकल्प बढ़ता है। उसी को मनोबल या आत्मबल कहते हैं। यही है वह क्षमता जिसके सहारे सामान्यों का असामान्य, क्षुद्रों को महान बनने का सौभाग्य हस्तगत हुआ है।


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