यज्ञ सान्निध्य से देवत्व और वर्चस् की प्राप्ति

November 1983

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यज्ञ को भगवान का साकार स्वरूप माना गया है। निर्जीव प्रतिमाओं की शक्ति पूजन कर्त्ताओं की श्रद्धा पर अवलम्बित है किन्तु यज्ञ की अपनी निजी सामर्थ्य है और वह शारीरिक, मानसिक आरोग्य, आत्मबल संवर्धन व्यक्तित्वों का विकास, वातावरण का परिशोधन, सर्वतोमुखी प्रगति में सहायक पर्जन्य जैसे कितने ही प्रत्यक्ष लाभ अनुष्ठान प्रस्तुत करता है। उसकी ऊर्जा का समीपवर्ती को सहज ही अनुभव होता है। इसके अतिरिक्त यज्ञाग्नि से कितनी ही परीक्षा शिक्षा प्रेरणाएँ मिलती हैं। ऐसी अनेकानेक विशेषताओं के कारण यज्ञ को परमेश्वर का प्रत्यक्ष शरीर माना गया है और उसके यजन पूजन में भावनापूर्वक तत्पर रहने का शास्त्र अनुशासन है।

कहा गया है-

यज्ञो वै विष्णुः।-शतपथ

यह यज्ञ ही विष्णु है।

अहं क्रतुरहं यज्ञः।-गीता

मैं (भगवान) यज्ञ ही हूँ।

भगवान की उपासना के जो लाभ अध्यात्म तत्व दर्शन-शास्त्र निर्धारण-आप्त वचन एवं योगी तप-स्त्रियों के अनुभव बताते हैं। उन सबको ब्रह्म विद्या के महा मनीषी यज्ञ प्रक्रिया के माध्यम से भी भली प्रकार उपलब्ध होने की बात कहते हैं। उपासनाओं के लिए अन्य इष्टदेवों का भी निर्धारण हो सकता है, पर उन सब प्रक्रियाओं में अग्नि को इष्ट मान लेना कहीं अधिक श्रेयस्कर है। उपासना कृत्यों की अनेकानेक विधि व्यवस्थाओं में ‘अग्नि पूजन’ को शास्त्रकार अधिक वरिष्ठता देते हैं। आत्मोत्कर्ष के इच्छुकों को वेद भगवान से यजन कृत्य को प्रमुखता देने के लिए कहा है और उस अवलम्बन को अपनाने का निर्देश किया है।

वेदों में स्थान-स्थान पर ऋग्वेद में कहा गया है- “यज्ञ न वर्धत् जातवेदसमाग्निम्। यज्ञग्वं हविषा तना गिरा।”

अर्थात्-“हे मनुष्यों ! यज्ञ द्वारा इस यज्ञाग्नि को प्रज्वलित करो एवं उत्तम हवियों द्वारा श्रद्धा, भक्ति, उदारता से यजन करो।”

आयुर्यज्ञेन कल्पताम्। -यजु0

जीवन को यज्ञमय बनायें।

अथर्ववेद के अनुसार प्राणि जगत दैवी चैतन्य शक्तियों के जागृत होने पर अगणित लाभ प्राप्त करता है।

“उत्तिष्ठं ब्रह्मणस्पते देवान यज्ञेन बोधय। आयुः प्राणं प्रजाँ पशून कीर्ति यजमानं च वर्धयं॥

अर्थात्-“हे ब्रह्मणस्पते। अब आप उठ खड़े हों।

आलस्य न करें। उठकर यज्ञ द्वारा’ उठकर यज्ञ द्वारा’ विश्व की दैवी शक्तियों को जागृत करें। इन जागृत दैवी शक्तियों से यजमान को सुखमय साधनों से अभिपूरित करें तथा प्राणीमात्र ही आयु, जीवनी शक्ति, उचित प्रजा, अच्छे पशु, यश तथा कीर्ति को भी बड़ा दें।”

वेदों-ब्राह्मण ग्रन्थों आदि में ‘यज्ञ’ को श्रेष्ठतम कर्म माना गया है-

यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म। (शतपथ. 1/7/3/5)

‘यज्ञ निश्चित रूप से श्रेष्ठतम कर्म है।’

यज्ञो हि श्रेष्ठतमं कर्म। (शतपथ. 3/2/1/4)

‘निश्चित रूप से यज्ञ श्रेष्ठतम कर्म है।

‘न ये शेकुर्यज्ञियाँ नावमारुहम् ईमेर्वे तेन्यविशन्त केपयः।’ (शतपथ. 10/44/6, अथर्व. 20/94/6)

अर्थात्-‘जो यज्ञरूपी नौका पर चढ़ने में समर्थ नहीं होते, वे कुत्सित आचरण वाले होकर, इसी लोक में अधःपतित होते जाते हैं।

‘....यः कामयेत ब्रह्मवर्चसी स्यामिति तर्हि हस जुहुयात्॥ -शतपथ. 2/3/2/13

अर्थात्-‘जो व्यक्ति चाहे कि मैं ब्रह्मवर्चस् से सम्पन्न बन जाऊँ, तो उसे यज्ञ करना चाहिए। क्योंकि यज्ञ से ब्रह्मवर्चस् की प्राप्ति होती है।

आध्यात्मिकं चाधिदैवमाधि भातिकमेव च। एतत् तापत्रयं प्रोक्तमात्मवद्भिर्नराधि प॥ यस्माद् वै त्रायते दुःखाद् यजमानं हुतोऽनलः। तस्माद् तु विधिवत् प्रोक्तमग्निहोत्रमिति श्रुता॥ -महा0 आश्व0 पर्व अध्याय 92

अर्थात्- हे राजन्! आध्यात्मिक, आधि दैविक तथा आधिभौतिक-ये तीन ताप आत्मवेत्ताओं ने कहे हैं। विधिपूर्वक हवन करके पर अग्नि यजमान का इन तीन दुःखों से रक्षा करता है। इसलिए वेदों में इसे अग्निहोत्र कहा गया है।

आग्नेयोऽयं यज्ञः। ज्योतिरग्निः पाप्मनो वग्धा सोऽस्य पाप्मानं दहति स इह ज्योतिरेव श्रिया यशसा भवति ज्योतिरमुत्र पुण्य लोकत्वैतन्नु तद्यस्मादाद्धीत॥ -शतपथ॰ 2/2/3/6

अर्थात्-यह अग्नि का यज्ञ है। अग्नि ज्योति है। वह पापों को जलाती है। यह (यहमान के) पापों को जलाती है। यह ज्योति, शोभा और पुण्य प्रदान करती है। इसलिए अग्निहोत्र करना चाहिए।

अग्निहोत्र के अनेक लाभ बताये गये हैं जिनमें आत्मबल का संवर्धन प्रमुख है। मनुष्य जन्म से शूद्र उत्पन्न होता है। संस्कारों से द्विज अर्थात् मानवी गरिमा को अवधारण करने वाला बनता है। संस्कारों का सामान्य अर्थ वातावरण एवं संपर्क में पड़ने वाले प्रभाव से किया जाता है किन्तु सूक्ष्म अध्यात्म विज्ञान के अनुसार यह प्रक्रिया यज्ञाग्नि के सान्निध्य में सम्पन्न होती है। मनुस्मृति के अनुसार “महा यज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तत्र” अर्थात्- यज्ञों और महायज्ञों के माध्यम से यह नगण्य महल का हाड़-माँस का पुतला-ब्रह्मत्व को उपलब्ध करने में सफल होता है। ब्राह्मण के छह कर्तव्य उत्तरदायित्वों में दो ‘यज्ञ करना-यज्ञ कराना’ भी निर्धारित है। जिनका सूत्र संकेत इस प्रकार किया गया है-

निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त प्रत्यक्ष देवताओं दिव्य शक्तियों को देवता प्राणों की गणना है। उनसे जीन मिलता-स्थिर रहता और सुविधाएं उपलब्ध करता है। इसलिए जीव जगत के प्रधान अवलम्बन जल, अग्नि, वायु आदि को देव संज्ञा दी गई है और उन्हें शुद्ध संतुलित रखने के रूप में देव पूजन करते रहने का निर्देश किया गया है। इसके अतिरिक्त दैवी प्रवाह की वे लहरे भी हैं जो अपने स्वरूप एवं स्वभाव के कारण अनेक क्षेत्रों के उत्तरदायित्व निभाती है। संपर्क साधने वालों की गुण कर्म, स्वभाव की-चिन्तन चरित्र की-उदास दृष्टिकोण एवं उत्कृष्टता की पक्षधर साहसिकता की विभूतियाँ प्रदान करती हैं। जो इन्हें जितनी मात्रा में ग्रहण साधारण करता है वह उसी अनुपात स्तर का महामानव, ऋषि, मनीषी, सिद्ध पुरुष एवं देवदूत बनाता चला जाता है। देवत्व की उपासना का यही सत्परिणाम है। देवता जिस पर भी प्रसन्न होते हैं इन्हें अपनी गहरी हलकी प्रसन्नता के अनुरूप सत्प्रवृत्तियों को अपनाने की उमंग भरते हैं। यह दैवी वरदान है। यह जितना जिसे मिलेगा वह उतना ही श्रेष्ठ वरिष्ठ बनता चला जायगा। कहना न होगा कि व्यक्तित्व की विशिष्टता परिष्टता ही लौकिक जीवन में अनेकानेक सफलताएँ प्रदान करती और शक्ति सम्पन्न सफलताएँ प्रदान करती है शक्ति सम्पदाओं का अधिष्ठाता बनाती है।

यज्ञ के माध्यम से देव सान्निध्य एवं अनुग्रह अर्जित करने के सम्बन्ध में शास्त्र कहता है-

सहयगाः प्रजा सृष्ट्ठा पुरोवाच प्रजापति अनेन प्रसविष्यधव में मेष वो।................कामधुक्। गीता

अर्थात्—प्रजापति ने सर्वप्रथम यज्ञ देवता का सृजन किया और जन-साधारण से कहा-“आप लोग इसका यजन अर्चन करें। बदले में यह आपके लिए कामधेनु की तरह फलप्रद सिद्ध होगा।

देवताओं में सर्वप्रथम एवं सर्वे समर्थ अग्निदेव की उत्पत्ति हुई और भी कितने ही प्रमाण उल्लेख मिलते हैं-

ब्रह्मत्वेनासृजं लोकानहमादौ महाद्युते॥ सृष्टोऽग्निर्मुखतः पूर्वं लोकानाँ हितकाम्यया॥ महाभारत अश्वमेधिक पूर्व, 92 वाँ अध्याय

अर्थात्- श्री भगवान् ने कहा महातेजस्वी राजन्! मैंने सबसे पहले ब्रह्म स्वरूप से लोकों को बनाया। लोगों की भलाई के लिए मुख से सबसे पहले अग्नि को प्रकट किया।

तदग्नि होत्रं सृष्टं वै ब्रह्मणा लोक कतृणा। वेदाश्चाप्याग्निहोत्रं तु जज्ञिरे स्वयमेव तु॥ महा0, आश्व0 पूर्व, अध्याय 92

अर्थात्-सृष्टि रचयिता ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम अग्निहोत्र प्रकट किया। वेद और अग्निहोत्र स्वयं की पैदा हुए हैं।

यस्मादग्रे स भूतानाँ सर्वेषाँ निर्मितो मया। तस्मादग्रीत्यभिहितः पुराणज्ञैर्मनीषिभिः॥ महा0, आश्व0 पर्व, वैष्णक पर्व, अध्याय 92

अर्थात्-सभी भूतों से पहले अग्नि तत्व मेरे द्वारा पैदा किया गया, इसलिए पुराण ज्ञाता मनीषी उसे ‘अग्नि’ कहते हैं।

यस्मात् तु सर्व कृत्येषु पूर्वमस्मै प्रदीयते। आहुतिर्दीप्यमानाय तस्मादग्नीति कथ्यते॥ महा0 आश्व0 पर्व, वैष्णव पर्व, अध्याय 92

अर्थात्-सभी कार्यों में सबसे पहले प्रज्वलित अग्नि में ही आहुति दी जाती है, इसलिए इसे अग्नि कहा जाता है।

यज्ञ के द्वारा देव शक्तियों के साथ संपर्क सधता है और वह उस आधार पर से यजन कर्त्ता पर उतरती हैं। इसी से यज्ञ को देवों की प्रसन्नता अनुकूलता का कार्य बताया गया है कहना न होगा कि इस अनुग्रह के सहारे आत्मिक और भौतिक क्षेत्र की अनेकों सिद्धियाँ, सफलताएँ प्राप्त होती हैं-

तथा कृतेषु यज्ञेषु देवानाँ तोषणं भवेत्। तुष्टेषु सर्व देवेषु यज्वा यज्ञ फलं लभेत्॥ -महा0, अनु0, पर्व, अध्याय 145

अर्थात्-यज्ञों से देवताओं को सन्तुष्टि होती हैं, और सर्व देवों के सन्तुष्ट होने पर यज्ञ करने वाले को पूरा-पूरा फल प्राप्त होता है।

तेन सर्प्तषयः सिद्धाः संयतेन्द्रिय बुद्धयः। गता ह्यमर सायुजयं ते ह्मइर्न्यचन तत्पराः॥ -महा0, आश्व0, पर्व अध्याय92

अर्थात्- इन्द्रियों और बुद्धि पर संयम रखने वाले सिद्ध सप्तर्षिगण ने अग्नि की अर्चना में तत्पर रहने के कारण ही देवताओं के स्वरूप को प्राप्त किया है।

यज्ञ की महिमा शास्त्र वचनों में सतत् वर्णित होती रही है। यज्ञ के अनेकानेक लाभ हैं। आयुष्य में वृद्धि नीरोगता- समस्वरता तो इससे उपलब्ध होती ही हैं- मानवी गरिमा को बढ़ाने वाला देवत्व और वर्चस् भी प्राप्त होता है। व्यक्तित्व में सद्गुणों की वृद्धि मनुष्य को आत्मिक दृष्टि से तो ऊँचा उठाती ही है, भौतिक प्रगति का पथ भी प्रशस्त करती है।


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